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६४/ अमीरसधारा नाव तो साधन है पार उतरने के लिए। “शरीर माध्यम खलु धर्म साधन'' शरीर धर्म साधन का कर्म करती है, उसी के अनुरूप परमाणु समूह उसकी ओर खींचते हैं, वैसा ही शरीर बनता है। शरीर बनता अवश्य है, पर आत्मा तैल व बत्ती से भिन्न ज्योति की तरह है। जिस शक्ति से शरीर चिन्मय हो रहा है, वह अन्तः ज्योति शरीर से भिन्न है। यह आत्मा ही है, जिसके द्वारा शरीर से विभिन्न क्रियाएँ संचालित होती हैं। जिस प्रकार मशीन को चलाने के लिए कोई चालक होता है, उसी प्रकार शरीर रूपी मशीन को चलाने के लिए आत्मा चालक है। जब उसका एक देह के साथ सम्बन्ध का समय समाप्त हो जाता है, तो वह अपने शरीर को छोड़कर दूसरे नये शरीर को प्राप्त कर लेता है, जैसे हम पुराने वस्त्र को छोड़कर नये वस्त्र को धारण करते हैं। मृत देह जला दी जाती है, पर आत्मा अमर है। आत्मा तो वह है, जिसे शस्त्र काट नहीं सकते, आग जला नहीं सकती, पानी गला नहीं सकता, हवा सोख नहीं सकती
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नेनं दहति पावकः । न चैनं क्लेदयन्त्यापो, न शोषयति मारुतः ।।
भला, जो अविनाशी है, उसे उत्पन्न कैसे माना जा सकता है। जन्मने वाला जरूर मरता है। उत्पत्ति और विनाश दोनों ध्र व सत्य हं। निश्चित रूप से जड़ और चेतन दोनों अलग-अलग हैं—यही आध्यात्मिक भाषा में भेद-विज्ञान है। न केवल शरीर और आत्मा, बल्कि प्रत्येक दो व्यतिरेकी भिन्न पदार्थों में द्वैत सम्बन्ध है। जो आत्मा को शरीर से तत्त्वतः भिन्न जानता है, वही भेदविज्ञान की पराकाष्ठा को छू सकता है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा है
जो अप्पाणं जाणदि, असुइ-सुरीरादु तच्चदो भिन्नं । जाणग - रूव - सरूवं, सो सत्थं जाणदे सत्वं ॥ यानी जो आत्मा को इस अपवित्र शरीर से माध्यम है। मनुष्य
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