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अयोग हो योग का / ४७ चूंकि आज संसार भौतिकता से जुड़ा है, अतः विचार भी उसी से जुड़े रहते हैं । ध्यान करने तो बैठ गये, पर मन टिकता नहीं । वह कभी तो बाजार में जाता है, कभी घर का चक्कर लगाता है, तो कभी विचारों में किसी अप्सरा का, मेनका का रूप उभरता है । इसे कहते हैं - विचारों में बहना । जिसके मन में जैसे भाव होते हैं, जैसे विचार होते हैं, वह व्यक्ति वैसा ही बन जाता है ।
शारीरिक क्रियाएँ वास्तव में आन्तरिक विचारों की अभिव्यक्तियाँ हैं । क्रोधी मन के विचार भी क्रोधी होंगे । कामुक मन के विचार भी कामुक होंगे। जो विचारों में प्रकाशित होता है, जो विचारों में है, वही शारीरिक क्रियाओं द्वारा प्रकट होता है ।
राम और सीता के बारे में एक प्रसंग है । अपहृत सीता अशोक - वाटिका में थी । सीता की सेवा के लिए, रक्षा के लिए राक्षस जाति की अनेक स्त्रियां वहाँ पर रहती थीं । एक स्त्री थी सुरमा । सीता यद्यपि शरीर से अशोकवाटिका में थी, रावण के अधीन थी, किन्तु सीता के अन्तर - विचारों में एक मात्र राम थे । एक दिन सीता ने सुरमा से कहा, सुरमा ! मेरे भीतर राम- ही - राम है, राम में मैं इतनी तल्लीन हो गई हूँ कि मैं अपने को राममय पा रही हूँ । मुझे ऐसा लग रहा है, मेरे भीतर पुंसत्व / पुरुष धर्म पनपने लगा है। सुरमा बोली, राम के मन में तुम्हारा ध्यान है । तुम पुरुष धर्मं पाने लगी हो, तो राम में भी स्त्रैण धर्म अवश्य पनपने लगा होगा ।
यह है वैचारिक प्रभाव । रामकृष्ण परमहंस के बारे में भी ऐसी ही घटना बताई जाती है । जब रामकृष्ण राधा - सम्प्रदाय में दीक्षित हुए, तो वे कृष्ण के ध्यान में इतने बह गये, कि उन्होंने स्वयं को राधामय पाया । छह महीने के बाद उन्हें भी स्त्रैण धर्म प्रकट होने की अनुभूति हुई । यद्यपि बाद में उन्होंने उस सम्प्रदाय को छोड़ दिया था ।
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