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ध्यान-साधना बनाम स्वार्थ-साधना
सभी स्वार्थी हैं। जो जितना बड़ा बुद्धिमान है, वह उतना ही बड़ा स्वार्थी है। स्वार्थी होना कोई बुरी बात नहीं है। बुराई है स्वार्थ को ठीक तरह से न समझने में। एक कुत्ता भी स्वार्थवश ही घंटों मुँह ताकता है, दुम हिलाता है। उसका स्वार्थ है एक रोटी का टुकड़ा। आप एक कुत्ते को चार-पाँच दिन तक एक ही समय में रोटी गिराइये। छठे दिन आप देखेंगे कि कुत्ता ज्यों ही आपको देखेगा, अपनी दुम हिलायेगा। इसीलिए, क्योंकि कुत्ते ने अपनी स्वार्थ-पूर्ति का सम्बन्ध आपसे जोड़ लिया।
आपने देखा होगा तोता-पंडित। जो फुटपाथों पर पिंजड़े से निकलता है और एक दाने के स्वार्थ के लिए मनुष्य का भाग्य-पत्र निकालता है। संसार के सारे व्यापार इसी तरह चलते हैं। मनुष्य के सारे धंधे, सारे कार्यकलाप स्वार्थ के लिए चलते हैं। दुकानदार दुकान खोलता है, मदारी तमाशा दिखाता है, योगी योग करता है, विद्यार्थी पाठशाला जाता है, सब स्वार्थ के लिए। मालिक नौकर को खिलाता-पिलाता है, पैसे देता है, नौकर मालिक की सेवा करता है, स्वार्थ के लिए। बाप बेटे को, पति पत्नी को, भाई-भाई को, गुरु शिष्य को, दुकानदार ग्राहक को किसान बैल को प्यार करते हैं, स्वार्थ के लिए। दान देते हैं स्वार्थ वशात्। स्वार्थ सधा कि सम्बन्ध कटा। स्वार्थ में बाधा पड़ी कि शत्रुता बढ़ी। सच पूछिये तो दुनिया स्वार्थ का अखाड़ा है, बड़ा भारी अखाड़ा।
लेकिन सबका स्वार्थ एक जैसा नहीं है। सबके स्वार्थ अलग-अलग हैं, स्वार्थ-पूर्ति के तरीके भी अलग-अलग हैं। सभी अपने-अपने उल्लू सीधा करते हैं। फर्क यही है कि किसी का उल्लू काठ का है और
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