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________________ २२ / अमीरसधारा लोग इस भवसागर के किनारे पर बैठे हुए भी डूबकर मर जाते हैं। वे जिन्दे-जी डूबने के भय से सागर में नहीं उतरते। जो स्वयं जिन होने का पुरुषार्थ नहीं कर सकते, वे चले जाये उस मार्ग से जिससे जिन गये हैं। जो जिन-गुजरी पगडंडी पर चले, वही जैन है। अन्त में मैं यह भी कहना चाहूँगा कि हम जिन-वाणी का जिनशास्त्रों का स्वाध्याय करें। शास्त्रों में उन लोगों की वाणी के अमृतकण संकलित हैं, जिन्होंने जन-जन को जिन बनने का संदेश दिया, अनगिनत लोगों को जिन बनाया। पहले कमाया, फिर लुटाया, बाँटा। खुद भी तिरे, औरों को भी तैरना सिखाया। पहले मार्ग देखा, फिर मार्ग दिखाया। रास्ते की दुविधाओं को, रास्ते की दूरी को और गंतव्य की स्वणिमता को देखा, समझा, सोचा। सत्य, शिव, सुन्दर का सभी भोग करे। इसी उद्देश्य से प्रेरणाएँ दी, सूक्त कहे सूक्तियाँ बिखेरी। सारी दुनिया मेरा कुटुम्ब है। सबको यहाँ लाओ और सबके साथ मिलकर यहाँ रहो। अपने एक प्रज्वलित दीप से लाखों-लाख बुझे हुए दीप जलाये। उनका यह महादान है। उनकी इस ज्योति की सम्पदा ने प्रभावना की। इसलिए वे जिनत्व की यात्रा के प्रकाशस्तम्भ हैं, महादीप हैं। महावीर उन्हीं का नाम है। वस्तुतः महावीर हमें वहाँ ले जाना चाहते हैं, जहाँ विकारों का धूआं नहीं उठता, केवल आत्मा की अनन्त चैतन्य-ज्योति निर्धूम प्रज्वलित रहती है। जहाँ आग में धूआँ हैं, वहाँ गीलापन है, भटकना है, अज्ञान है, मिथ्यात्व है, अजिनत्व है । जैसे ही धूआँ हटा, जलती आग सुनहरी लगेगो । धूएँ सहित आग से, धूएं सहित दीये से लोग स्वयं भी बचना चाहते हैं, दीवार और कमरे की छत को भी बचाना चाहते हैं। भला, काला-कलूटापन किसे अच्छा लगे ! तो हमें हटाना है मिथ्यात्व के, अजिनत्व के गलाघोंटू धूएँ को। जलानी है निर्धूम ज्योति, जिनत्व की, सम्यक्त्व की, निर्वाण की, महाजीवन की। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003964
Book TitleAmiras Dhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1998
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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