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२४ / अमीरसधारा
किसी का उल्लू वास्तविक है, घोंसले वाला है । यह सारा भेद स्वार्थ में स्व के अर्थ की समझदारो और नासमझी से है । स्वार्थ का अर्थ है आत्म-प्रयोजन यानी मतलब साधना । इसीलिए स्वार्थी आदमी को मतलबी कहते हैं ।
स्वार्थ यानी स्व के लिए, अपने लिए, आत्मा के लिए । कोई अपने शरीर के अन्तस्थ-तत्त्व को आत्मा समझता है और कोई इस शरीर को ही आत्मा समझता है, स्व समझता है। किसी का स्व अपने भरे-पूरे परिवार में रहता है, तो किसी का स्व अपने बैंक - बैलेंस में उलझा रहता है । कोई अपने स्व को अपना सुन्दर रूप समझता है, तो किसी की समझदारी में अपना पेट पालना ही बहुत बड़ा स्व है । कोई इन सबसे दूर जाता है हिमालय में स्व को ढूंढने, तो कोई मन्दिरों, मस्जिदों में स्व की तलाश करता है । कोई दुःखी - दरिद्रों की सेवा में ही उस स्व की आहट पाता है, तो कोई स्व को अपने ही अन्दर दर्शन करता है । स्व से हटा कौन है ? सभी तो स्व से जुड़े हैं, और जो स्व से जुड़े हैं, वे स्वार्थी हैं । इसीलिए मैंने कहा संसार स्वार्थी है, परम स्वार्थी है, स्वार्थ का धाम है । भेद स्वार्थ के तौर-तरीकों में हैं ।
एक बात और है कि स्वार्थ चाहे जैसा हो, पर उसकी मूल जड़ सुख पाना है । सारे स्वार्थ सुख की प्राप्ति हेतु ही साधे जाते हैं ।
स्वार्थ बिना कोई करे, अच्छे बुरे न काम | फिर चाहे परमार्थ हो, पुण्यार्जन का धाम ||
चाहे पाप हो या पुण्य, स्वार्थवश ही तो होते हैं । पाप करने से अपना स्वार्थ सधता है और पुण्य करने से स्वर्ग का स्वार्थ । चाहे आदमी पाप करे या पुण्य, सुख का स्वार्थ सभी से जुड़ा रहता है । प्राणी प्रत्येक कार्य सुख के लिए ही करता है, दुःख के लिए कोई काम
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