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ध्यान-साधना बनाम स्वार्थ-साधना / २५ नहीं करता है। फिर भी दुःख से छुटकारा नहीं मिलता है। यह कैसी भाग्य की विडम्बना है कि दुःख किसी न किसी मार्ग से आ ही जाता है। बुद्ध के चार आर्यसत्य इसी दुःखवाद के खम्बों पर टिका है। सचमुच दुःख है। यह अनचाहा मेहमान है और सबको इसकी खातिरदारी करनी पड़ती है। यह वह मेहमान है, जो हमारे पूर्व जन्म से सम्बन्ध जोड़ता है, पूर्व जन्मों के कर्मों और संस्कारों का लगाव लेकर आ जाता है। हमें भले ही जानकारी न हो, मगर हमारा दुःख हमें भूलता नहीं। यह पुराना दोस्त है। कितना भी उससे पिंड छुड़ावें वह छोड़ने को राजी नहीं होता। ____ आप जरा सोचिये, ऐसा क्यों होता है ? दुःख बिना बुलाए क्यों आ जाता है ? और सुख बुलाने पर भी क्यों नहीं आता ? इसे आप समझे। बात यह है कि जब मनुष्य अपने स्वार्थ को समझने में गलती करता है, सुख को ठीक से नहीं पहचानता, तो वह अपनी गलती की सजा पाता है। दुःख आता है, सुख का चूंघट निकाल कर, आकर्षण का मनमोहक रूप धारण कर। ____ सुख का आवरण इतना घना और मोहक होता है कि बड़े-बड़े समझदार व्यक्ति भी समझ-बूझ रखते हुए भी चकरा जाते हैं। दुःख के कारणों को सुख के सबसे बढ़िया कारण समझने लगते हैं। और उन्हें समझाओ, तो समझाने पर भी समझ नहीं पाते हैं। जिसे दिग्भ्रम हो जाता है, वह पूर्व दिशा को ही पश्चिम दिशा समझने लगता है। इसका मतलब यह नहीं है कि वह नहीं जानता कि सूरज किस दिशा में उगता है। पर जब उसे नई जगह पर दिशा का भ्रम हो जाता है, तो लाख समझाने पर भी उसके दिल-दिमाग में नहीं बैठता कि सूर्योदय पूर्व दिशा में हो रहा है। उसे यही लगता है कि सूरज ही गलती से आज पश्चिम दिशा में निकला है।
यही बात घटती है सुख-दुःख की वास्तविक पहचान में भी। इसे ही लोग माया और मिथ्यात्व की लीला कहते हैं। विरले ही
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