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जिनत्व : गंगासागर से गंगोत्री की यात्रा / १३ यह बात बिल्कुल पक्की है कि तीनों लोकों पर विजय प्राप्त करना सम्भव है, साहसी के लिए सरल भी है, किन्तु अपने भीतर के शत्रुओं को जीतना, जिन होना दुष्कर है, अति दुष्कर है। मैंने बार-बार कहा शत्रु-विजय। लेकिन शत्रु कैसा ? निराकार। भीतरी शत्रुओं का कोई आकार नहीं है। आकार को तो बाँधा जा सकता है, रोका जा सकता है, मारा-काटा जा सकता है। पर निराकारी शत्रुओं को जीतना—यही तो है जिनत्व की साधना। हमारे सबसे बड़े शत्रु हैं काम, वासना, राग, द्वेष, कषाय आदि। ये हमारे भीतर रहते हैं। हमारे मन को, हमारे चिन्तन को ये ही तो प्रदूषित करते हैं। और, जब तक इन पर विजय न पायी जाये, इन्हें काबू न किया जाये, तब तक कोई साधना सिद्ध नहीं होगी, सफलता हमारे चरण नहीं चूमेगी। जिनत्व ही तो साधना और सिद्धि का अप्रतिम सोपान है। जिनत्व की यात्रा ही साधना की प्रशस्त पद्धति है। इसका संकेत हम जिन शब्द से ही प्राप्त कर सकते हैं।
___ आप 'जिन' शब्द को कोई सामान्य शब्द न समझें। बड़ा सोचसमझकर इस शब्द का प्रयोग किया गया है। सारा जैन दर्शन, उसकी सारी साधना इसी एक 'जिन' शब्द में लीन है। या यूं समझें कि सारा जैन आचार-दर्शन इसी से जन्मा है। तो जिन शब्द जैन दर्शन का जनक है। जिन ही वह बीज है, जिससे जैन दर्शन का वृक्ष प्रकट हुआ। अब आप थोड़ा-सा गहराई से समझे जिन की जड़ों को, जिन की गहराइयों को, उसके वर्ण-विन्यास को, उसके तात्पर्य को। जो गहराई से समझेंगे, उन्हें मोती मिलेंगे, जो ऊपर-ऊपर रहेंगे, उन्हें सागर खारा पानी लगेगा। ___जिन में चार वर्ण हैं आधा ज, इ, आधा न और अ। यानी इनमें दो व्यंजन हैं और दो स्वर हैं। ज और न् व्यंजन हैं तथा इ और अ स्वर है। इनमें पहला वर्ण है ज। ज वर्ण जय का प्रतीक है। अब
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