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जिनत्व : गंगासागर से गंगोत्री की यात्रा /९ तो अपने से ही करो। अपने से अपने को जीतना ही सच्ची विजय है। 'जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ' जो एक को जानता है, वह सबको जानता है, जो एक को जीत लेता है, उसकी सब पर विजय होती है। अविजित एक अपनी आत्मा ही शत्रु है। अविजित कषाय और इन्द्रियाँ ही शत्रु हैं।
इन्द्रियाँ सबके पास हैं। एक व्यक्ति इन्द्रियाधीन होता है, और एक व्यक्ति के इन्द्रियाँ अधीन होती हैं। इस फर्क को आप समझे।
एक बच्चा अपने पिता के साथ राजमार्ग पर खड़ा था। इतने में ही उस मार्ग से राजा गुजरा। उसके साथ पाँच-छह सिपाही
और चल रहे थे। तो बच्चे ने पिता से पूछा, पापा! यह कौन जा रहा है ? पिता ने कहा-राजा। थोड़ी देर बाद उसी मार्ग से पाँचछह सिपाही और चले जा रहे थे, किसी को घेरे हुए। बच्चे ने पिता से पूछा, पापा ! यह कौन जा रहा है ? पिता बोला-चोर। बच्चे को बड़ा आश्चर्य हुआ। आश्चर्य होना भी स्वाभाविक ही था । उसने पिता से पूछा-पापा ! यह कैसी विरोधी बात ? सिपाहियों के साथ जाने वाला एक राजा और एक चोर ! पिता ने कहा बेटे ! दोनों में बड़ा भारी फर्क है। पहले जिस व्यक्ति के साथ पाँच-छह सिपाही थे, वे उस व्यक्ति के अधीन थे और पीछे वाला व्यक्ति सिपाहियों के अधीन था। एक शासक है, दूसरा गुलाम ।
आप टटोलें अपने को कि आप शासक हैं या गुलाम । इन्द्रियाँ आपसे हारी हैं या आप इन्द्रियों से हारे हैं। आपकी आत्मा क्या गवाही देती है ? महावीर ऐसे ही जिन न हो गए। हार गई उनसे उनकी इन्द्रियाँ । उत्तराध्ययन में कहा है।
एगप्पा अजिए सतु, कसाया इन्दियाणि य । ते जिणित्तु जहानायं, विहरामि अहं मुणी ॥ महावीर कहते हैं हे मुनि ! हे साधक। एक बात पक्की है कि
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