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१०/ अमीरसधारा
अविजित अपनी आत्मा ही प्रधान शत्रु है। अविजित कषाय और इन्द्रियाँ ही शत्रु हैं। मैं हूँ ऐसा, जो उन्हें जीतकर न्याय-नीतिपूर्वक विचरण करता हूँ। परम अहिंसक होकर शत्रु-विजय की बात करनी क्या कम महत्वपूर्ण है ? परम अहिंसक होकर परम योद्धा होना बड़ी विचित्र बात है। ऐसी विचित्रता महावीर में थी।
वस्तुतः अस्त्र-शस्त्र मनुष्य की दुर्बलता के परिचायक हैं। एक बटन दबाया, एटम बम गिरा और लाखों स्वाहा हो गये। यह कोई वीरता की बात है ? यह तो कायरों की, बुझदिलों की, बच्चों को बात है। सच्चे बहादुर मौत से डरते नहीं, और न किसी को मारते हैं। मनुष्य को तो क्या, एक चींटी को भी नहीं मारते। कोई किसी को मारता है, इसलिए कि वह उससे डरता है। महावीर ने जिनत्व की बात इसीलिए कही, ताकि व्यक्ति निर्भय बने। उन्होंने जीवन के संघर्षों को तो छोड़ो, मौत को भी अपनाने की बात कही। मृत्यु व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है। आवश्यकता पड़ने पर फैले हुए धागों को समेट लेना ही मृत्यु का उत्सव है, जिन त्व का महोत्सव है।
मैं तो यही कहूँगा कि व्यक्ति को जिनत्व की साधना अवश्य करनी चाहिये। जिन ही तो जनक है जैन का। जिनत्व के बीज से ही जैनत्व का कल्पतरु लहराया है। जैसे शरीर में मस्तक, वृक्ष में जड़ मुख्य है, वैसे ही जैनत्व में जिन है। बिना जिन का जैन अर्थ शून्य है। बिना आत्मा का शरीर शव है। बिना जिन का जैन निल है अर्थ-हीन है। जिन तो है एक का अंक । जैन है शून्यांक। शून्य ढेर सारे हों, पर जब तक उसके साथ, उसके पूर्व एक का अंक नहीं है, शून्यों की कोई कीमत नहीं है। जैसे बिना इंजन के डिब्बे, बिना एक के शून्य निरर्थक हैं, वैसे ही बिना जिन के जैन हैं। पर जब हम एक के अंक के साथ शून्य का उपयोग करेंगे, तो इससे एक भी कीमती होता जायेगा और शून्य भी। दोनों की अपनी-अपनी अर्थवत्ता होगी।
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