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८/ अमीरसधारा आलम्बन नहीं लिया, वैसे ही निरालम्ब होना है, आकाश की भाँति । सच तो यह है कि जिसने अवलम्बन लिया, वह बंधनयुक्त ही रहा। यही कारण है कि गौतम महावीर के पास रहते हुए भी जिनत्व की यात्रा पूरी न कर पाए। जैसे ही निरालम्ब हुए, निरासक्त हुए, केवलज्ञान के फूल पल-भर में खिल गये । ___ मैं महावीर को प्रतीक मानता हूँ जिनत्व की साधना का। मेरा विश्वास है कि महावीर जैसे लोग ही जिन बन सकते हैं। जिन अपनी वीरता दिखाते हैं, जीवन की उन सभी चट्टानों को हटाने में, जो अन्तरात्मा के झरने को रोके हुए है। जिन साधना-पथ के एक-एक काँटे को हटाकर प्रशस्त पथ का निर्माण करते हैं। फलत: भगवत्ता उसके पथ पर अनन्त सुरभि भरे फूल बिखेरती है। आत्मस्रोत का अमृतस्रावी जल उसका अभिषेक करता है। वे आन्तरिक शत्रुओं को हराते हैं और जयपत्र पाते हैं। सच्चा जिन यह सिद्ध कर दिखाता है कि सच्ची वीरता अन्य को नहीं, अनन्य अपने आपको जीतने में है। दूसरों को अनुशासित करने की अपेक्षा अपने आप पर शासन करना अधिक अच्छा है। महावीर की भाषा में
जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुज्जए जिणे । एगं जिणेज्ज अप्पाणं, एस से परमो जओ ॥ अप्पाणमेव जुज्झाहि, किं ते जुझण बज्झओ।
अप्पाणमेव अप्पाणं, जइत्ता सुहमेहए ॥ जिनेश्वर महावीर की मान्यता थी कि जो दुर्जेय संग्राम में हजारों-हजारों योद्धाओं को जीतता है, उसकी अपेक्षा जो एक कोअपने आपको जीतता है, उसकी विजय ही परम विजय है । जीत उसकी जो आत्मजेता है, जो जिन है। बाहरी युद्धों से क्या, वह तो स्वयं के लिए भी हानिकर है और दुनिया के लिए भी। युद्ध करना है
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