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________________ ७०/अमोरसधारा समझने की चेष्टा कीजिये । शब्दों का फक महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण है अर्थों का फर्क। पर आत्मा और जीवन में शब्दों का ही फर्क-भेद है, पर अर्थ एक ही है। हमें इस शब्दार्थ की जड़ों को गहराई से परखना है। हमारा जीवन, हमारी आत्मा तो धुरी है। स्वयं स्थिर है, पर उस पर लगा चक्र चलता है । चूंकि चक्र चलता है, अतः जहाँ तक चक्र जाता है, वहाँ तक धुरी को भी जाना पड़ता है । अब समझने की बात यह है कि चक्के में लगी धुरी कर्ता है या अकर्ता । धुरी यानी आत्मा। आत्मा का कर्तृत्व और अकर्तृत्व विचारणीय है। व्यवहारतः तो नैतिक या अनैतिक सभी प्रकार के कर्मों का कर्ता मनुष्य ठहरता है किन्तु इस पर बारीको से विचार कर तो मूलतः इन कर्मों का एक मात्र कर्ता मनुष्य नहीं है। क्योंकि मनुष्य न तो शरीर है, और न ही आत्मा है, अपितु वह इन दोनों का एक सम्बन्ध है, एक संयोग है। इस संयोग के कारण ही मनुष्य जीता है। धुरी और चक्र के संयोग से ही गाड़ी आगे बढ़ती है। शायद आपको मालूम नहीं होगा कि कुछ दार्शनिक लोग शरीर | अचित् रूप प्रकृति को ही कर्ता मानते हैं। किन्तु यह धारणा उचित नहीं है। क्योंकि प्रकृति आखिर जड़ है, निर्जीव है और निर्जीव कर्ता नहीं हो सकता। भला, मुर्दा कभी कर्ता हो सकता है। कर्तृत्व का सम्बन्ध तो एक मात्र चेतन से है। . कुछ दार्शनिक आत्म-कर्तृत्ववाद का समर्थन करते हैं। यद्यपि शरीर को कर्ता मानने की अपेक्षा आत्मा को कर्ता मानना ठीक है, पर उसमें भी संशोधन को जरूरत है। वस्तुतः कतृत्व का सम्बन्ध नैतिक अनैतिक समस्त व्यापारों से है। जब आत्मा संसार में रहती है, तब तो उसके साथ कतृत्व का सम्बन्ध जोड़ा जा सकता है, परन्तु जब Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003964
Book TitleAmiras Dhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1998
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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