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________________ आत्मा की सत्ता : अनछुई गहराईयाँ/७१ आत्मा संसार से छुटकारा पा लेतो है, निर्वाण पा लेती है, अपने वास्तविक स्वरूप को ग्रहण करती है, तब उसमें कतृत्व नहीं रहता। जहाँ कहीं भी आत्मा के सम्बन्ध में कर्तृत्व की बात आती है, उसका आशय भी यही समझना चाहिए कि माया, पुद्गल या भौतिक परमाणुओं के साहचर्य से जुड़ी आत्मा में केवल कर्तृत्व का आभास मात्र रहता है । कर्तृत्व आत्मा का निजी गुण नहीं है। कारण, यदि निजी गुण होता तो, निर्वाण-प्राप्ति के बाद भी यह गुण रहना चाहिए । जबकि ऐसा नहीं रहता है। वस्तुतः आत्मा मूल रूप में अकर्ता है। परन्तु अपने अशुद्ध रूप में वह कर्ता भी है। जब तक आत्मा कर्म के परमाणुओं से युक्त है, तब तक वह कर्ता है। अथवा इसे यों कहा जाये कि कार्मिक परमाणुओं के साहचर्य से उत्पन्न चेत्स-भावों का कर्ता है। मैंने देखा है कि एक बैलगाड़ी के नीचे-नीचे एक कुत्ता चल रहा था। गाडी चलती कुत्ता भी चलता । गाड़ी रूकती, कि कुत्ता भी रूक जाता। कुत्ता गाड़ी के नीचे से न तो आगे बढ़ता है और न पीछे खिसकता है । कुत्ता यह सोचता है कि मेरे भरोसे ही गाड़ी चलती है। यदि मैंने चलने में थोड़ी सी भी ढील कर दी, तो गाड़ी नीचे गिर जायेगी। आत्म-कर्तृत्ववाद भी तो ऐसा ही है। गाड़ी और कुत्ते का संयोग, आत्मा और शरीर का संयोग–यही तो कतृत्ववाद की गाड़ी को चलाता है। आत्मकर्तृत्व की भांति ही आत्म-भोक्तृत्व की धारणा है। जो आत्मा शरीर में है, या बद्ध है, उसके साथ भोक्तृत्व का सम्बन्ध जोड़ा जा सकता है। जबकि आत्मा सत्यतः तो साक्षी स्वरूप है। शरीर में आबद्ध होने के कारण शारीरिक, वैचारिक, मानसिक क्रियाओं का भोक्ता है। आदमी जेल में बन्द हो गया, तो वह कैदी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003964
Book TitleAmiras Dhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1998
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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