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ध्यान-साधना बनाम स्वार्थ-साधना / ३१
जिसके पास यौगिक
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युग को प्रभावित करने के लिए जरूरी है कि व्यक्ति में कुछ यौगिक बल हो, यौगिक शक्ति हो ध्यान के बीज हों। शक्ति है उसका नगाड़ा जोरदार बजता है । लोग उससे अवश्य प्रभावित होते हैं । और जो लोग ऐसे होते हैं, उनको दुनिया की परवाह नहीं रहती, पर दुनिया उनकी परवाह करती है । आनन्दघन योगी हुए, ध्यानी हुए । उन्होंने जग की परवाह नहीं की, पर जग ने उन्हें माना । वे तो कहते थे 'आशा औरन की क्या कीजे', पर सब लोग उनके पीछे पड़े। मूत्रोत्सर्ग से पेशाब से, पत्थर को स्वर्ण में बदल देना, बुखार को कपड़े में उतार देना जैसे उनके अनेक यौगिक चमत्कार प्रसिद्ध हैं । कबीर की तरह अलमस्ती में गाये - रचे उनके पद, उनके गीत आज हम सबके लिए वरदान सिद्ध हुए हैं ।
शान्तिविजयजी को क्या कम चामत्कारिक योग - विभूतियाँ प्राप्त थीं । उनके पास में सिंह, चीते, बाघ आदि हिंसक पशु भी हिंसा का भाव छोड़कर उपस्थित रहते थे । उनके कोई चेला नहीं था, पर आज कितने लोग उनको मानते हैं । रहे पहाड़ों में; आबु में, पर ध्यान की जड़ें उनकी इतनी गहरी होती गयी कि पहाड़ों को छेदकर सारे देश में फैल गयी उसकी शाखाएँ ।
तो जिसने भी ध्यान को, योग को, साधना को, साधुता को महत्व दिया, उसने संसार में महत्ता पायी, गरिमा पायी । वह अकेला होकर भो संसार का शिरोमणि बना, कोहिनूर हीरावत् चाहा गया । तो ध्यान साधुओं के समस्त धर्मों का, और समस्त साधुता का सार है, जड़ है, बीज है । ध्यान को साधना उतना ही कठिन है, जितना बीज को सींच- सींचकर उससे फूल खिलाना । जब ध्यान के फूल खिल जाते हैं, तो आनन्द की सुगन्ध फैल जाती है, जीवन का बगीचा महक उठता है । यद्यपि मन चंचल है; टिकता नहीं, दौड़ता है, फिर चाहे वह साधु का हो या गृहस्थी का, किसी सांसारिक का । वेश या
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