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ध्यान-साधना बनाम स्वार्थ-साधना / २७ तुम्हारा सारा राज्य उजड़ जायेगा। दिलीप बोला, सिंह ! तुम घबराते हो, मुझे मारने से। लो, मैं स्वयं ही अपने प्राणों का उत्सर्ग करता हूँ। यह कहते हुए दिलीप ज्यों ही प्राणोत्सर्ग करने के लिए उद्यत होता है, कि तत्काल सिंह अपना वास्तविक स्वरूप प्रकट कर देता है। कामधेनु कहती है, दिलीप ! यह सारी मेरी ही माया थी। मैं तुम्हें वरदान देती हूँ, तुम्हारा मनवांछित सिद्ध होगा। कामधेनु की कृपा से दिलीप ऐसा पुत्र पाता है, जिसके नाम से रघुवंश चलता है। ___ मैं सोचता हूँ कि कितने हैं भारत में दिलीप जैसे। जैसे दिलीप कामधेनु के लिए अपना सर्वस्व अर्पित करने के लिए उतारु हो जाता है, वैसे ही जब कोई व्यक्ति स्वयं को सच्चे सुख के लिए, उस चूंघट को पहनने के लिए, उसे पहने रखने के लिए न्योछावर होता है, तभी वह कुछ उपलब्धि कर सकता है। यह वह उपलब्धि होगी, जो उसे अजरअमर कर देगी।
जिस सच्चे सुख को, जिस सच्चे स्वार्थ को मैं साधने की बात कह रहा हूँ वह रास्ता सचमुच दुष्कर है। पहले पहल तो लगेगा, अँधियारे से भरा हुआ, काँटों से सजा हुआ, वापस धकेलता हुआ। पर अँधियारे में ही कहीं दीया पड़ा है, काँटों में ही कहीं फूलों की कलियाँ छिपी हैं, वापस धकेलनेवालों के बीच ही कोई हाथ थामने वाला खड़ा है। उस दीये को जलाना, उन कलियों को खिलाना; थामने वाले को खोजना ही हमारी सच्ची साधना है। इसी में परम स्वार्थ सधता है; सुख की बाँसुरी के स्वर वहीं सुनाई देते हैं।
स्वार्थ साधने के रास्ते अनगिनत हैं, किन्तु यह हमारे ऊपर है कि हमने कौन-कौन-सा रास्ता अपनाया। या हमें कौन-कौन-सा रास्ता अपनाना है। माचिस के अनेक उपयोग हैं, पर हम उससे
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