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५० / अमीरसधारा
मन्त्र की तरह ही तन्त्र है । तन्त्र मन्त्रों का ही विस्तार है । मन्त्र हमारे विचारों को अध्यात्म से जोड़ता है । वैचारिक ऊर्जा मन्त्र से आबद्ध होकर विकेन्द्रित नहीं होती । जैसे-जैसे व्यक्ति मन्त्र की गहराई में उतरेगा, उसे मोती मिलते जाएगे वह बौद्धिक विचारों से, मन के चिन्तन से, सैद्धान्तिक बातों से ऊँचा उठता जाएगा । उसे एक गहन अनुभूति होगी । उसी अनुभूति से आत्मा की किरण फूटेगी । मन्त्र की ध्वन्यात्मकता शरीर के रग-रग में फैल जाएगी । वह अन्तरात्मा के भीतरी लोक से जान-पहचान करायेगी । अन्ततः साधक को आत्म-प्रतीति, आत्म-अनुभूति हो जायेगी, आत्मतोष का सागर उमड़ पड़ेगा ।
इसीलिए मन्त्र 'मैग्नेटिक करेन्ट' की तरह, चुम्बकीय विद्युत्धारा की तरह हमें भीतर ले जाता है । हमारे शरीर की भीतरी शक्तियों से दोस्ती करवाता है । जब मन्त्र को शक्ति के पटल खुल जाते हैं, तो हम बेतार -के-तार ज्यों सीधे सम्पर्क कर सकते हैं, अपने से, अपने आराध्य से ।
तो अध्यात्म जगत् में प्रवेश करने के लिए ध्यान एकाग्र करने के लिए जरूरी है कि जोड़ बाकी में बदले। जितनी बार हमने जोड़ की, उतनी ही बार बाकी करनी पड़ेगी । गणित के हिसाब से चलना होगा । हमें ऊपर उठना होगा मन से, बचन से, शरीर से ।
पहले शरीर, फिर वचन, और फिर मन को साधना - यह थोड़ा सरल है, पर समय ज्यादा मांगता है। पहले मन, फिर वचन और फिर शरीर को साधना यह थोड़ा कठिन है, पर तत्काल लाभदायक है । चाहे कुछ भी करें, कैसे भी करें, इन तीनों बाधाओं को पार करना होगा । चूंकि मन मुख्य है । जिसने मन का काला सागर पार कर लिया, वह हर सागर से गुजर सकता है । भला, जिस मन में देह में रहते हुए भी सारे ब्रह्माण्ड की यात्रा करने की शक्ति है, उसे यदि
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