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२/ अमीरसधारा
वैदिक-संस्कृति या ब्राह्मण-संस्कृति की प्रतीक यही धारा है। किन्तु यह बात आधी हुई। जैन संस्कृति ठीक इसके विपरीत है, उल्टी है। यहाँ जाना कहीं नहीं है, अपितु जहाँ गये हुए हैं, वहाँ से वापस आना है। आकाश में उड़ रहे पक्षी का सांझ ढलते ही अपने घोंसले में आना यही है जैन संस्कृति । सूरज द्वारा सांझ ढलते ही अपनी किरणों को अपने में समेट लेना इसी का नाम है जैन संस्कृति ।
हमें इन सब बातों को व्यावहारिक ढंग से, मनोवैज्ञानिक ढंग से समझना होगा। जो बात मानव-जीवन में घटती है वही बात उसके मूल कारण में भी घटती है। घर में अकेला बैठा हुआ व्यक्ति सोचता है कि चलूं , जरा बाजार घूम आऊँ। अकेले मन नहीं लगता, जरा भीड़-भाड़ से गुजर आऊँ। फिर जब उसका उसका मन भीड़-भाड़ से भी ऊब जाता है, तो वह सोचता है, चलूं, अब घर चलूं। वैदिक संस्कृति घर से बाजार जाने की पद्धति है और जैन संस्कृति बाजार से घर आने की संस्कृति है। घर से बाजार जाना—यह आधी बात हुई, आधी यात्रा हुई। पूरी यात्रा तब होगी जब व्यक्ति बाजार से वापस घर आयेगा।
जैनों के मनोविज्ञान का एक शब्द है बहुचित्तवान । आधुनिक मनोविज्ञान को जैनों की इस मायने में महान देन है। महावीर ने कहा है कि मनुष्य अनेक चित्तवान है। बँटा हुआ है उसका चित्त । खण्ड-खण्ड में बँटता जा रहा है उसका चित्त । बँटना सहज है, इकट्ठा करना ही मुश्किल है। गंगोत्री से सागर की तरफ धारा के साथ बहाव के अनुरूप बहना बहुत सरल है, मगर सागर से गंगोत्री की तरफ जाना, धारा की उल्टी दिशा में जाना बहुत कठिन है। यह कठिनाई का रास्ता ही जिनत्व की साधना है, राधा है। धारा का उल्टा राधा है। राधा जैन-आराधना है। मैं धारा से अलग नहीं कर रहा हूँ, मात्र दिशा में उलट-फेर कर रहा हूँ। यदि धारा को
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