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जिनत्व : गंगासागर से गंगोत्री की यात्रा ___यह संसार एक भूल-भूलैया है। मनुष्य जहाँ रहता है, उसके सामने वाली भूमि या तो समतल मालूम पड़ती है या फिर ऊबड़. खाबड़। लेकिन यह भूमि पूरी गोल हैं, यह बात समझाने पर भी उसके दिमाग में नहीं बैठती। आज के वैज्ञानिक इसो निर्णय पर पहुंचे हैं कि समस्त अंतरिक्ष के अगणित ग्रह गोल है, वर्तुल हैं। यह गोलाई हमें कुछ संकेत करती है। यह हमें कुछ ऐसा पाठ पढ़ाती है, जिसका सम्बन्ध हमारे जीवन से है। - यदि हम इस बात को जीवन के क्षेत्र में समझे तो यूं कहेंगे कि जीवन के प्रारम्भ में भगवान् एक केन्द्र बिन्दु के रूप में था, अकेला था, दूसरा कुछ नहीं था। उसने सोचा, मैं अकेला हूँ, एकान्त में हूँ, बहुत बन जाऊँ । तो अकेलापन उसे अखरा। उसने सोचा मैं बहुत हो जाऊँ—'स एकाकी न रेमे एकोऽहं बहुस्याम ।' वैदिक संस्कृति ऐसा ही मानती है। और बढ़ने की, फैलने की, संसार के रचने की जो प्रक्रिया है, वह ऐसा ही मानती है। जीव इसी प्रक्रिया का एक अंग है। 'ईश्वर अंश जीव अविनाशी'-जीव अंश है। . वैदिक संस्कृति कहती है संसार की संसरणशील जो प्रवृत्ति है, उसमें अपने को मिला दो। भगवान् की फैलने की जो इच्छा है, वही माया है। और माया के अनर्थों से बचने के लिए उसकी शरण में जाओ, धारा के साथ बहो, अपनी इच्छाओं को सर्वथा परित्याग कर दो। अन्त में तुम उसी तरह उसके पास पहुँचोगे, जिस प्रकार गंगोत्री से निकलती हुई गंगा की धारा सागर में मिलती है
और फिर सागर से बादलों की सवारी पर सवार होकर गंगोत्री के पास मूल स्थान में पहुँचती है।
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