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आत्मवाद : रहस्यमयी परतों का उद्घाटन / ५९ वह स्वयं को भी देख सकती है ? जीभ फल का, मीठे का, नमक का स्वाद महसूस कर सकती है, पर अपना स्वाद ? चाहे आँख हो या जीभ, इन्द्रियां तो मात्र माध्यम है, पर पदार्थों का आत्मा को बोध कराने के लिए । यह आत्मा ही है, जो इन्द्रियों के साधन से ज्ञान प्राप्त करती है । इन्द्रियां तो ज्ञान प्राप्ति की सहायिकाएँ हैं । वे अमूर्त को ग्रहण नहीं कर सकती, मूर्त को ही ग्रहण कर सकती है ।
आपने बिजली की चमक को उसके प्रकाश को देखा है, परबिजली को कभी देखा है ? किसी ने भी बिजली को नहीं देखा । जिस वैज्ञानिक ने बिजली को खोज की, जो वैज्ञानिक बिजली की परिभाषा कर रहे हैं, उन्होंने भी बिजली को कहां देखा है ? बिजली अमूर्त है, उसका प्रकाश मूर्त है । आत्मा अमूर्त है, शरीर मूर्त है । आत्मा बिजली की तरह है । कहा गया है
पुष्पे गन्धं तिले तैलं, कास्टेग्नि पयसि घृतम् । इक्षौ गुडं तथा देहे, पश्यात्मानं विवेकतः ॥
जैसे फूल में सुगन्ध, तिलों में तेल, काष्ठ में -अरणि की लकड़ी में आग, दूध में घी और गन्ने में गुड़ दिखाई नहीं देता, तथैव शरीर में छिपे हुए आत्मा के अस्तित्व को भी विवेक से जान लो ।
आत्मा तो मात्र स्वयं की स्वीकृति है ! स्वयं की सत्ता, स्वयं का अस्तित्व जानने की मंजूरी है । मैं बोलता हूँ, अतः मैं हूँ । मैं विचार करता हूँ, अतः मैं हूँ यह 'मैं' ही आत्म-अभिव्यक्ति है । चूंकि आत्मा ज्ञाता है, द्रष्टा है, अतः यह ज्ञेय या दृश्य नहीं बन पायेगी । इसकी तो अनुभूति होती है, अन्तर्यात्रा के क्षणों में । आत्मा कोई वस्तु या पदार्थ या मेटेरियल नहीं है, जिसे कोई छू सके, सके, देख सके । देखा - छूआ तो उसे जाता है, जिसका कोई रूप होता है, जैसे यह भवन । आत्मा तो कालातीत है, क्षेत्रातीत है ।
जान
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