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________________ अयोग हो योग का / ४१ तो आदमी दुकान चला जाता है। शरीर की सारी चेष्टाएँ मन के आदेश से होती है। वचन बेचारा है। मन ने चाहा कि मैं जैसा हूँ, वैसा ही वचन हो, तो वचन को वैसा ही होना पड़ता है। मन ने चाहा, कि मैं जैसा हूँ, वैसा वचन अगर मुंह से निकला, तो इसमें मेरी बेइज्जती होगी, मेरी हानि होगी, तो बिचारे वचन को मन की चाह के अनुकूल होना पड़ता है। इसलिए जो मन में है, वही वचन में होगा। जो हमारे वचन में है, वही शरीर में घटित होगा। मन तो बीज रूप है। वचन अंकुरण है और शरीर फसल है। फसल से प्राप्त होने वाले अनाज ही उसका अभिव्यक्त रूप है। यद्यपि बहिष्टि से शरीर प्रथम है, किन्तु अन्तरदृष्टि से मन प्रथम है। पर योजित तो हम होते ही हैं, चाहे बाहर से हों या भीतर से। हम योजित होते ही हैं, यानी हमारी आत्मा योजित होती है, हमारा अस्तित्व योजित होता है। जैसे भूख लगने पर हम कहते हैं मुझे भूख लगी है। अब आप सोचिये कि भूख किसे लगती है ? भूख का सम्बन्ध इस पेट से है, शरीर से है, किन्तु हम कहते हैं मुझ भूख लगी है। तो हमने शरीर से जुड़ने वाली चीज को आत्मा से जोड़ लिया। इसलिए, क्योंकि शरीर के साथ तादात्म्य है। इसी तरह क्रोध उठा। क्रोध विचारों में आया, किन्तु हम कहेंगे, मुझे क्रोध आया। यह विचारों के साथ आत्मा का तादात्म्य है। वासना जगी। वासना मन में जगती है, पर कहते हैं मैं कामोत्तेजित हूँ। हमने मन के साथ मैं को जोड़ा, आत्मा को जोड़ा, पर के साथ स्वयं को जोड़ा। यद्यपि मन, वचन, शरीर ये तीन नाम हैं, किन्तु तीनों अलगअलग नहीं है। तीनों का कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। तीनों एकदूसरे के पूरक हैं, अन्योन्याश्रित हैं। बीज, अंकुर और फसल कोई अलग-अलग नहीं है। तीनों का अपना-अपना स्वरूप होते हुए भी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003964
Book TitleAmiras Dhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1998
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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