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अयोग हो योग का | ४३ सधा, पर शरीर सधने से यह कोई जरूरी थोड़े ही है कि विचारों की आँधी शान्त हो गयी। शरीर से हटे, तो विचारों में जाकर उलझ गये। जैसे ही उपशम-गिरि पर चढ़े, कि सिद्ध-बुद्ध बन गये।
हठयोग जरूरी तो है, पर वह साधना का अन्तिम रूप नहीं है। चूंकि साधना का पहला सोपान शरीर है व्यक्ति इससे बहुत अधिक जुड़ा है, अतः शरीर की साधना भी बहत जरूरी है। पर उसे साधने के लिए लोग ऐसे-ऐसे तरीके अपना बैठते हैं, जिससे शरीर तो शायद सध जाए, पर मन न सधे। शरीर को मैथुन से दूर कर लिया पर मन में विषय-वासना की आँधी उठ सकती है। इसीलिए मैंने कहा कि मन ही प्रधान है। यदि मन में वासना ही नहीं है, तो शरीर द्वारा वासना की अभिव्यक्ति कैसे होगी। शरीर तो स्वयमेव सध गया ।
घी बनाने के लिए मक्खन पकाते हैं, बर्तन में, आग में। हमारा उद्देश्य मक्खन को पकाना है, न कि बर्तन को तपाना। पर क्या करें, जब तक बर्तन नहीं तपेगा, तब तक मक्खन पकेगा भी कैसे ? वैसे ही हमारा उद्देश्य आत्मा को पाना है, विचारों को शान्त करना है। शरीर को शान्त करना हमारा उद्देश्य नहीं है। पर क्या करें, विचारों को शान्त करने के लिए शरीर को भी विचारों के अनुकूल बनाना पड़ता है। जो लोग केवल शरीर को सुखाते हैं, शरीर का दमन करते हैं, वे तपस्वी और ध्यानी योगी, कैसे हो गए। जिन्होंने केवल शरीर के साथ अपनी साधना को जोड़ा, उनके कारण ही गफ को कहना पड़ा कि यह देह दंडन है । बुद्ध को भी तप का विरोध करना पड़ा। महावीर के अनुसार तो यह अज्ञान तप है। इसीलिए कमठ जैसे तपस्वी का पार्श्व ने विरोध किया, क्योंकि उसने तप को, साधना को केवल शरीर से जोड़ा। पंगाग्नि जलाकर उसके बीच में बैठनायह जान-बूझकर कष्ट झेलना है। कष्ट सिर पर आ गिरे, तो उसे झेलना परीषह है। आपत्ति आ जाये, तो उसका स्वागत करना तप है।
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