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जिनत्व : गंगासागर से गंगोत्री की यात्रा /५ सम्भलायी। जो बात और लोगों ने ईश्वर के लिए कही, महावीर ने वही बात आत्मा के लिए कह दी। नर ही नारायण होता है, आत्मा ही परमात्मा होता है। जिनत्व की साधना का सम्बन्ध व्यक्तित्व से है, न कि उसकी जाति से। जाति का सम्बन्ध समाज से है और धर्म का सम्बन्ध व्यक्ति से है।
महावीर ने जो सबसे बड़ी बात कही, वह यह है कि तुम किसी का अनुसरण मत करो, अपने पैरों पर खड़े होने का साहस स्वयं में प्रगट करो। उन्होंने वेद यज्ञ आदि को आप्त वचन मानकर, अपौरुषेय मानकर अन्धानुसरण करने का भी विरोध किया। उपनिषदों में जहाँ यह लिखा गया है कि 'नहि तर्केण मतिः एषा अपनेया' तर्क के द्वारा इस समस्या का समाधान नहीं हो सकता, वहाँ महावीर ने कहा सत्यार्थ जानने के लिए भरपूर तर्क करो। तुम्हारी बुद्धि जिस बात की गवाही दे वही करो। तुम्हारा गुरु, तुम्हारा सहायक, तुम्हारा अवलम्बन तुम स्वयं हो। तुम्हारे ईश्वर भी तुम ही हो । अपनी शक्ति को पहचानो, संकल्प करो, संघर्ष करो। तुम अपने को तोलो। यदि तुम में कष्ट सहने की क्षमता हो, कठिनाइयों से जूझने का बल हो, असत् से सत् को निकालने का विवेक हो, आत्मकल्याण की प्रबल अभीप्सा हो, जरा, मृत्यु के तीखे कांटों की चुभन से उबरना हो, तो पकड़ो जिनत्व का मार्ग। प्रयोग करो अपने आत्मबल को, अपने बाहुबल को बाहुबली की तरह। जिनवाणी के सागर के मन्थन का यही मक्खन है। यही वह अमृत तुल्य औषध है, जिसका सेवन करने से दुःखों के सारे घाव खतम हो जाते हैं।
जिणवयणमोसहमिणं, विसयसुह-विरेयणं अमिदभयं । जरामरणवाहिहरणं, खयकरणं सव्व दुक्खाणं ॥
जिनवाणी तो सुधा है, पर उसका सेवन करने वाले कितने हैं ? यहाँ पर अधिकांश लोग जैन हैं। जैन तोह, पर जिनत्व का
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