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चूक्या हता अने तेनी घणी जूदी जूदी पाठभेदोवाळी प्रतिओ पण थई चूकी हती। आ वस्तुस्थिति त्यारे ज बंध बेसती बनी शके ज्यारे शीलांकाचार्य अने जिनभद्रमणी क्षमाश्रमण वच्चे कालकृत विशेष अन्तर होय । जो ए बन्नेनी बच्चे कांई अन्तर न होय अने पट्टावलि लेखकना कथन प्रमाणे एमनामां गुरु-शिष्यनो ज संबन्ध रहेलो होय तो विशेषावश्यकभाष्यमां आवा पाठभेदो अने प्रत्यन्तरोनी नोंध लेवा जेवी स्थिति शीलांकाचार्यनी सन्मुख उपस्थित ज शी रीते थई शके । माटे ज्यां सुधी बीजां कोई स्पष्ट साधक बाधक प्रमाण न मळी आवे त्यां सुधी शीलाकाचार्यने जिनभद्रगणीना शिष्य पण मानी शकाय तेम नथी, तेम ज ते बन्ने समकालीन हता एम पण कही शकाय तेम नथी।
जिनभद्रगणी क्षमाश्रमणना समय निर्णय माटे हजी बीजी घणी बाबतो चर्चवा जेवी छे, पण आ स्थळे ते बधीनी चर्चा करवा जेटलो अवकाश न होवाथी हुं ए बाबतनो कोई स्पष्ट निर्णय आपी शकुं तेम नथी । पण, खास काई विरोधी प्रमाण नजरे न पडे त्यां सुधी पट्टावलियोमा जे वीर संवत् १११५-विक्रम संवत् ६४५ नी साल एमना माटे लखेली छे तेनो स्वीकार करीए तो तेमां कशी हरकत नथी।
जीतकल्पसूत्र आ सूत्र, एना नाम प्रमाणे जैन श्रमणोना आचार विषयक छे अने एमां १० प्रकारना प्रायश्चित्तनुं विधान करवामां आव्यु छ । आ प्रायश्चित्त संबन्धी विषय छेद सूत्रो अने बीजा घणा ग्रन्थोमां चर्चवामां आव्यो छे। तेमां, केटलीक जग्याए ते बहु ज संक्षिप्त रीते चर्चेलो छे, तो केटलीक जग्याए धणी ज विस्तृत रीते वर्णवेलो छ । एटला माटे जिनभद्रगणी क्षमाश्रमणे बहु संक्षिप्त नहीं तेमज बहु विस्तृत नहीं एवी मध्यमरीते ए विषयने समजाववा माटे आ ग्रन्थनी संकलना करी होय तेम संभवे छे । ___ आ प्रायश्चित्तना विषयमां एक वात नोंधवा जेवी छे; अने ते ए छे, के श्वेतांबर संप्रदायना सर्व आगमोमां अने अन्य ग्रन्थोमां आ जीतकल्पसूत्र प्रमाणे ज १० प्रकारनां प्रायश्चित्त वर्णवेलां मळे छे । पण तत्त्वार्थसूत्रना नवमा अध्यायना २१-२२ सूत्रमा प्रायश्चित्तना प्रकार ९ ज गणाव्या छे, अने तेमां, आ सूत्रमा वर्णवेलां मूल, अनवस्थाप्य अने पारंचिक आ छेल्लां त्रणनां स्थाने, परिहार अने उपस्थापना नामना बे प्रायश्चित्त कह्यां छे । दिगम्बर संप्रदायना साहित्यमां प्रायः सर्वत्र तत्त्वार्थसूत्र प्रमाणे ९ ज प्रायश्चित्त मळी आवे छे। श्वेतांबर साहित्यमां एक तत्त्वार्थसूत्र सिवाय बीजे क्याए आ प्रकार दृष्टि गोचर नथी थतो। जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण जीतकल्पसूत्रनी अंते एम पण कहे छे के तप-अनवस्थाप्य अने तप-पारांचिक आ बन्ने प्रायश्चित्त भद्रबाहुखामी पछी व्युच्छेद पाम्यां छे । दिगम्बर साहित्यमां आ विचार क्याए नथी । तेम ज तत्त्वार्थभाष्यमां पण आ संबंधे कांई सूचन नथी । विद्वान् अभ्यासिओ तत्त्वार्थसूत्रना कर्तृत्वना प्रश्ननो ऊहापोह करे त्यारे आ विषय पण तेमां विचारवा जेवो छे, ए सूचन करवा सारु अहिं आ नोंध करवी उचित लागी छे ।
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