Book Title: agam 38 Chhed 05 Jitkalpa Sutra
Author(s): Jinvijay
Publisher: Jain Sahitya Sanshodhak Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य संशोधक ग्रन्थमाला ७. श्रीजिनभद्रगणि-क्षमाश्रमण-विरचितं जीतकल्प-सूत्रम् (विषमपदव्याख्यालंकृत-सिद्धसेनगणिसन्हब्ध बृहन्चूर्णिसमन्वितम् ) संपादक मुनि जिन विजय प्रकाशक जैन साहित्य संशोधक समिति अमदाबाद वीराब्द २४५३ ] [विक्रमाब्द १९८३. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्गत मोदी श्रीयुत प्रेमचंद दोलतराम स्मारक -ग्रन्थांक १ अमदाबाद निवासी सगत श्रावक श्रीयुत प्रेमचंद दोलतराम मोदीना पुण्यस्मरणार्थ, तेमना स्नेही रा. ब. श्रीगिरधरलाल उत्तमराम पारेख, बी. ए., एलएल. बी., (पब्लिकप्रोसीक्युटर - अमदाबाद) एमणे अर्पण करेला द्रव्यमांथी आ ग्रन्थ प्रकाशित करवामां आव्यो छे. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य संशोधक ग्रन्थमाला जीतकल्प-सूत्र संपादकमुनि जिन विजय Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्य जीतकल्पसूत्रस्य प्रथमप्रकाशनकर्तृभ्यः जर्मनि-विषयवास्तव्य-अध्यापक श्री अस्त लॉयमान् ( Ernst Leumann) नामधेय-पण्डितप्रवरेभ्यः समर्पितमिदं ग्रन्थरत्नम् ___ सम्पादकेन Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य संशोधक ग्रन्थमाला ग्रन्थाङ्क ७. श्रीजिनभद्रगणि-क्षमाश्रमण-विरचितं जीतकल्प-सूत्रम् [श्रीचन्द्रसूरिसन्हब्ध-विषमपदव्याख्याविभूषित श्री सिद्ध से नगणि कृतबृहचूर्णिसमन्वितम्] संशोधक तथा संपादक मुनि जिन विजय [आचार्य-गूजरात पुरातत्त्व मन्दिर-अमदाबाद] प्रकाशक जैन साहित्य संशोधक समिति (अमदावा दें) खि० स० १९२६] [वि० सं० १९८२ [ मूल्यं रूप्यक-त्रयम्] Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Printed by Ramchandra Yesu Shedge, at the Nirnaja Sagar Press, 26-28, Kolbhat Lane, Bombay. Published by Muni Jina Vijayaji, (Jaina Sāhitya Sams'odhaka Samiti) AHMEDABAD. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादकीय प्रस्तावना आधारभूत प्रतिओनो परिचय जीतकल्पसूत्रनी प्रस्तुत आवृत्ति नीचे जणावेली हस्तलिखित प्रतिओना आधारे तैयार करवामां आवी छे:[१] जीतकल्पसूत्र मूलपाठ. (A) ताडपत्र ऊपर लखेली बृहचूर्णिसाथेनी,पूनाना भांडारकर ओरिएन्टलरीसर्च इन्स्टीट्युटमांना राजकीय ग्रन्थ संग्रहनी । (B) कागळ ऊपर लखेली केवळ मूलमात्रनी ३ पानानी, गूजरातपुरातत्त्वमन्दिरमा (अमदाबाद) ना संग्रहनी। (C) तिलकाचार्यकृत वृत्तिसमेतनी श्रीयुत के. प्रे. मोदी मारफत आवेली । (D) जर्मन विद्वान् डॉ. अर्नस्त लॉयमान संपादित अने Sitzungsberichte der Koniglich Preussischen Akademie der Wissenschaften, Berlin, 1892. मां रोमना क्षरमां मुद्रित । [२] सिद्धसेनसूरिकृत बृहचूर्णि. (A) पूनाना भांडारकर ओरिएन्टल रीसर्च इन्स्टीव्युटमांना संग्रहमांनी ताडपत्रनी नं. २३, १८८०-८१ वाळी प्रति । ए प्रतिने आ आवृत्तिमां पाठान्तर सूचववा माटे A संज्ञा आपवामां आवी छे । ए प्रतिमां लेखनकाल आपेलो नथी पण लीपिनी आकृति ऊपरथी ते विक्रमना १२ मां सैकामां लखाएली होय तेम लागे छ । प्रति बहु शुद्ध नथी । एमां मूळ सूत्र-पाठ पूर्ण आपेलो छ । (B) उक्त संग्रहमांनी ताडपत्रनी नं. २४; १८८०-८१ वाळी बीजी प्रति । ए प्रतिना पाठान्तर सूचववा माटे, एने अहिं B संज्ञा आपी छे । ए, प्रमाणमां कांईक वधारे शुद्ध छे। हांसियाओमां घणी जग्याए ढूंका टिप्पणो पण आपेलांछे। पण एनां अन्तनां केटलांक पांनां नष्ट थई गयां छे तेथी एनो पण लेखनकाल ज्ञात थई शक्यो नथी। वर्णाकृति ऊपरथी अनुमाने ए १३ मा सैकामां लखाएली होय तेम जणाय छ । [३] श्रीचंद्रसूरिरचित चूर्णिविषमपव्याख्या. (A) श्रीयुत के. प्रे. मोदी मारफत मळेली मुनिवर्य श्रीहंसविजयजीना शास्त्रसंग्रहमांनी कागळ ऊपर लखेली नवीन प्रति । (B) आचार्य श्रीविजयनेमी सूरिना संग्रहमांनी ए ज जातनी बीजी प्रति । आ बन्ने प्रतिओ कोई एक ज मूल प्रति ऊपरथी लखाएली नवीन नकलो छ । प्रतिओ सामान्यरीते बहु ज अशुद्धतावाळी छे । जूनी प्रतिनी लीपिना वळणने बराबर नहीं सम Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनार एबा कोई सीखाउ लहियाओना हाथे आ नकलो थई छे तेथी एमां, ए लहियाओए, एक अक्षरना बदले बीजो अक्षर लखी नांखी, ग्रन्थनी अशुद्धिमां घणो वधारो करी दीधो छ । उदाहरण तरीके–'ए' अक्षरनी जग्याए 'प'; 'थ' नी जग्याए 'घ', 'द्र' ना बदले 'इ', 'स्त' ना बदले 'सू'; 'भ' ना माटे 'त'; अने 'घ' ना माटे 'ब'; एम पंक्तिए पंक्तिए अनेक वर्णोनो विपर्यय करी दीधेलो नजरे पडे छ। आम, जूनी अने शुद्ध प्रतिनी प्राप्तिना अभावे ए व्याख्याना संशोधनमा घणी कठिनता अनुभववी पडी छे अने तेथी कचित्स्थळे तो अशुद्ध पाठने ज स्थानस्थित राखवो पड्यो छे । जिनभद्रगणि-क्षमाश्रमण आ जीतकल्पसूत्रना कर्ता जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण छे, एम चूर्णिकारनो स्पष्ट उल्लेख छ; अने अन्यान्य टीकाकारोए तथा अन्य ग्रंथकारोए पण ए बाबतनो घणा ठेकाणे निर्देश करेलो छ । __ आवश्यक सूचना सामायिकाध्ययन ऊपरनुं लगभग पांच हजार ग्रन्थप्रमाण प्राकृतगाथाबद्ध भाष्य के जे विशेषावश्यक भाष्यना नामे सुप्रसिद्ध छे तेना कर्ता पण आ ज जिनभद्र गणी छे । आ भाष्यग्रन्थ जैन प्रवचनमा एक मुकुटमणि समान लेखाय छे अने तेथी भाष्यकार जिनभद्रगणी जैनशास्त्रकारोमां अग्रणी मनाय छे । जैन दर्शन प्रतिपादित ज्ञानविषयक विचारने केवळ श्रद्धागम्य-विषयनी कोटिमाथी बुद्धिगम्य-विषयनी कोटिमा उतारवानो सुसंगत प्रयत्न, सौथी प्रथम एमणे ज ए महाभाष्यमां को होय, एम जैन साहित्यना विकासक्रमनुं सिंहावलोकन करतां जणाई आवे छे । जैन आगमोना संप्रदायगत रहस्य अने अर्थना, पोताना समयमां अद्वितीय ज्ञाता तरीके, ए आचार्य सर्वसम्मत गणाता हता; अने तेथी एमने 'युगप्रधान एवं महत्वख्यापक उपपद मळेलु हतुं । जीतकल्पचूर्णिना कर्ताए, प्रारंभमां, ५ थी ११ मा सुधीना पद्यमां आ आचार्यनी जे गंभीरार्थक स्तुति करेली छे ते ऊपरथी एमनी ज्ञानगंभीरता अने सांप्रदायिक प्रतिष्ठितता, काईक सूचन थाय छे । आ पद्योनो भावार्थ आ प्रमाणे छे: ५. अनुयोग एटले आगमोना अर्थ ज्ञानना धारक, युग-प्रधान, प्रधानज्ञानियोने बहुमत, सर्व श्रुति अने शास्त्रमा कुशल, अने दर्शन-ज्ञान उपयोगना मार्गस्थ एटले मार्गरक्षक । ६. कमलना सुवासने अधीन थएला भ्रमरो जेम कमलनी उपासना करे छे तेम ज्ञानरूप मकरन्दना पिपासु मुनियो जेमना मुखरूप निर्झरमांथी नीकळेला ज्ञानरूप अमृतनुं सदा सेवन करे छ । ७. ख-समय अने पर-समयना आगम, लीपि, गणित, छन्द अने शब्दशास्त्रो ऊपर करेलां व्याख्यानोथी निर्मित थएलो जेमनो अनुपम यशःपटह दशे दिशाओमां भमी रहेलो छ। ८. जेमणे पोतानी अनुपम मतिना प्रभावे ज्ञान, ज्ञानी, हेतु, प्रमाण, अने गणधरपृच्छानुं सविशेष विवेचन विशेषावश्यकमां ग्रन्थनिबद्ध कर्यु छ । ९. जेमणे छेद सूत्रोना अर्थाधारे, पुरुष विशेषना पृथक्करण प्रमाणे, प्रायश्चित्तना विधिनुं विधान करनार जीतकल्पसूत्रनी रचना करी छ । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. एघा, परसमयना सिद्धान्तोमा निपुण, संयमशील श्रमणोना मार्गना अनुगामी, अने क्षमाश्रमणोमां निधानभूत जिनभद्र गणी क्षमाश्रमणने नमस्कार। आमांना ५ मा पद्यना तात्पर्थार्थ ऊपरथी ए जणाय छे के-जिनभद्र गणी आगमोना अद्वितीय व्याख्याता हता; युगप्रधान पदना धारक हता; तत्कालीन प्रधान प्रधान श्रुतधरो पण एमने बहु मानता हता; श्रुति अने अन्य शास्त्रोना पण ए कुशल विद्वान् हता; अने जैन सिद्धांतोमा जे ज्ञान-दर्शनरूप उपयोगनो विचार करवामां आव्यो छे तेना ए समर्थक हता। ६ट्ठा पद्यना तात्पर्यथी ए जणाय छे के एमनी सेवामां घणा मुनियो ज्ञानाभ्यास करवा माटे सदा उपस्थित रहेता हता । ७ मा पद्यमां, जुदा जुदा दर्शनोनां शास्त्रो; तथा, लीपि विद्या, गणित शास्त्र, छन्द शास्त्र, अने शब्द ( व्याकरण ) शास्त्र आदिमां एमर्नु अनुपम पांडित्य सूचित कर्यु छ । ८ मा पद्यमां विशेषावश्यकभाष्य; अने ९ मामां, जीतकल्पसूत्र विषयक एमनुं कर्तृत्व प्रकट कर्यु छे । १० मा पद्यमां, एमनी परसमयना आगम विषेनी निपुणता, खाचारपालननी प्रवणता, अने सर्व जैन श्रमणोमा रहेली मुख्यतानुं सूचन कर्यु छ । आटला संक्षिप्त परिचय सिवाय अन्यत्र क्याए पण ए महान् आचार्यनो कशो पण विशेष उल्लेख दृष्टिगोचर थतो नथी। ___ हरिभद्रसूरि, शीलांकाचार्य, जिनेश्वरसूरि, अभयदेवसूरि, हेमचंद्रसूरि, वादीदेवसूरि, मलय. गिरि अने देवेन्द्रसूरि विगेरे पाछळना प्रसिद्ध प्रन्थकारो अने टीकाकारोए एमनो नामनिर्देश पोतानी कृतिओमां अनेकशः करेलो छ । “भाष्यसुधाम्भोधि; भाष्यपीयूषपाथोधि: भगवान् भाष्यकार; दुष्षमान्धकारनिमनजिनवचनप्रदीपप्रतिमः दलितकुवादिप्रवाद; प्रशसभाव्यसस्यकाश्यपीकल्प; त्रिभुवनजनप्रथितप्रवचनोपनिषद्वेदी; सन्देहसन्दोहशैलशंगभंगदम्भोलि" इत्यादि प्रकारनां विशिष्ट विशेषणोपूर्वक एम, नामस्मरण करवामां आव्युं छे; अने ए रीते एमनी आप्ततानो गौरवपूर्वक स्वीकार करवामां आव्यो छे । दरेक संप्रदायमा विद्वानोना बे प्रकार नजरे पडे छः एक तो आगमप्रधान; अने बीजो तर्कप्रधान । आगमप्रधान पंडितो हमेशां पोताना परंपरागत आगमोने-सिद्धान्तोने शब्दशः पुष्टरीते पकडी रहेवाना स्वभाववाळा होय छे; त्यारे तर्कप्रधान विद्वानो आगमगत पदार्थव्यवस्थाने तर्कसंगत अने रहस्यानुकूल मानवानी वृत्तिवाळा होय छे । आथी केटलीक वखते आगमप्रधान अने तर्कप्रधान विचारकोनी संप्रदायगत तत्त्वविवेचननी पद्धतिमा विचारभेद पड़े छे । ए विचारभेद जो उग्र प्रकारनो होय छे तो कालक्रमे संप्रदाय-भेदना अवतारमा अवसान पामे छ; अने सौम्य प्रकारनो होय छे तो ते मात्र मतभेदना रूपमा ज विरमी जाय छे । जैन संप्रदायना इतिहासमुं अवलोकन करतां तेमां आवा अनेक विचारभेदो, मतमेदो अने संप्रदायभेदो अने तेनां मूलभूत उक्त प्रकारनां कारणो बुद्धि आगळ स्पष्ट तरी आवे छे । ए विचारना एक उदाहरणभूत जिनभद्र गणी क्षमाश्रमण पण छे; अने तेथी जैन प्रवचनना इतिहासमा एमने घणी प्रसिद्धि प्राप्त थई छ । जिनभद्रगणी आगम-प्रधान आचार्य छ । जैन आगमानाय जे परंपराथी चाल्यो आवतो हतो Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेने शब्दशः अनुसरी ते ऊपर संगतवार भाष्य रचवानुं प्रधान कार्य एमणे कर्यु हतुं । ए भाष्यमां आम्नायथी विरुद्ध जनारा दरेक पक्ष ऊपर एमणे यथेष्ट आक्षेप-प्रतिक्षेप कर्या छे अने खसंप्रदायर्नु समर्थन कर्यु छे । ए पोताना समर्थनमा तर्कनो उपयोग करे छे पण ते तर्क आम्नायानुकूल होय तो ज तेने महत्त्व आपे छे । आम्नायथी आगळ जनार तर्कने ए उपेक्षणीय गणे छ । ___ उदाहरण तरीके एक प्रसंग लईए-सिद्धसेन दिवाकर जिनभद्रना पुरोगामी आचार्य छ । जैनवाङ्मयमां अने इतिहासमा तेमनुं स्थान घj ऊंचुं छे । जैनधर्मना जे महान् समर्थक अने प्रभावक आचार्यों थई गया छे तेमां सिद्धसेनसूरि घणा आगळ पडता छ । सम्मतितर्क, न्यायावतार, महावीरस्तुति विगेरे मौलिक-सिद्धान्त-प्रतिपादक अने प्रौढविचार-पूर्ण एमना ग्रन्थो छ । जैन तर्कशास्त्रना ए व्यवस्थापक अने विवेचक छे । एथी ए तर्कप्रधान आचार्य मनाय छे । जैनदर्शनना ए एक अनन्य आधारभूत आप्त पुरुष छ । एमना पाछळना सर्व समर्थ आचार्यो ए एमने आप्तरूपे खीकार्या छे । ए आचार्ये पोताना सम्मतितर्क नामना तात्त्विकग्रन्थमां, केवलज्ञान अने केवलदर्शनना खरूपनो विचार करतां, ए सिद्धांत प्रतिपादित कर्यो छे के केवलज्ञानीने ज्ञान अने दर्शन बन्ने युगपत् ज होई शके छ; अने तेथी यथार्थमा बन्ने एक खरूप ज छ । आगमोमां जे "जुगवं दो णत्थि उवओगा" ए विचार प्रतिपादेलो छे तेनाथी सिद्धसेननो सिद्धान्त जराक विरुद्ध देखाय छे । एटले आगमवादी जिनभद्र गणी क्षमाश्रमणे पोताना भाष्यमां सिद्धसेनना विचारनो विगतवार प्रतिक्षेप कर्यो छे अने तात्पर्यमां जणाव्युं छे के तर्कथी गमे ते विचार सिद्ध थतो होय पण आगमथी बहार जता तर्कनो खीकार न करी शकाय । आगममां क्याए पण युगपदुपयोग, सूचन नथी अने तेथी ए विचार अग्राह्य छे । आ विषयनो उपसंहार करतां जिनभद्र गणी क्षमाश्रमण जणावे छे के कस्स व नाणुमयमिणं जिणस्स जइ हुज दोवि उवओगा। नूणं न हुंति जुवगं जओ निसिद्धा सुए बहुसो ॥ न वि अभिनिवेसबुद्धी अम्हं एगंतरोवओगम्मि । तह वि भणिमो न तीरइ जं जिणमयमनहा काउं॥ (विशेषावश्यकभाष्य, पृष्ठ १२१३) अर्थात्-जो जिनने-केवलीने युगपद् बन्ने उपयोग होत तो ते कोईने अनभिमत न थात । पण ते छ ज नहीं; कारण के सूत्रमा तेनो घणी जग्याए निषेध करवामां आवेलो छ । तेम ज क्रमोपयोगमां-एक पछी एक थनार ज्ञानमां-अमारी कांई अभिनिवेशबुद्धी नथी। पण तथापि कहीए छीए के जिनना मतने अर्थात् आगमनी परंपराने अन्यथा न ज करी शकाय । ___ आम जिनभद्रगणी आगमपरंपराना महान् संरक्षक हता अने तेथी तेओ आगमवादी के सिद्धान्तवादी ना बिरुदथी जैन वाङ्मयमां ओळखाय छे ।। जिनभद्रगणीनी ग्रन्थकृतिओ जिनभद्रगणीना बनावेला ग्रन्थोनी चोकस माहिती कांई मळती नथी । सामान्य रीते नीचे जणावेला पांच ग्रन्थो तेमनी कृति तरीके सुप्रसिद्ध छ । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. विशेषावश्यक भाष्य मूळ अने टीका. आ भाष्य बहु प्रसिद्ध अने प्रकाशित छ । आना ऊपर ग्रन्थकारे पोते ज एक संस्कृत टीका लखी हती पण ते अत्यारे दुर्लभ छ । बीजी टीका शीलांकाचार्य जेमर्नु बीजं नाम कोट्याचार्य पण प्रसिद्ध छे तेमणे लखी छे । ए टीकानी ताडपत्र ऊपर लखेली एक अतिजीर्ण प्रति पूनाना राजकीय ग्रन्थसंग्रहमां सुरक्षित छे । त्रीजी टीका मलधारी हेमचंद्रसूरिनी बनावेली छे अने ते प्रकट थई गई छ । २. बृहत्संग्रहणी. आ लगभग ४०० थी ५०० गाथानो ग्रन्थ छ । एना ऊपर मलयगिरि सूरिए संस्कृत टीका लखी छे । ग्रन्थ सटीक प्रसिद्ध थई चुक्यो छे । ३. बृहत्क्षेत्रसमास. आ पण प्राकृत गाथाबद्ध ग्रन्थ छे । आना ऊपर पण मलयगिरि विगेरे आचार्योए टीकाओ लखी छे । ग्रन्थ प्रसिद्ध छे ।। ४. विशेषणवती. लगभग ४०० गाथाओनो बनेलो आ एक प्रकरण ग्रन्थ छे, अने अद्यापि अप्रकाशित छ । ५. जीतकल्पसूत्र. प्रस्तुत ग्रन्थ । आ सिवाय ध्यानशतक नामनो एक ग्रन्थ जे हरिभद्रसूरिनी आवश्यक टीकामां समुद्धृत छे तेना कर्ता पण जिनभद्रगणी कहेवाय छे पण ते सन्दिग्ध छ । जिनभद्रगणीनी भाष्यकार तरीकेनी बहु ख्याति छ। तेमा मुख्यतया तो विशेषावश्यक भाष्य ने लईने ज ए प्रसिद्धि प्राप्त थई होय तेम जणाय छे । कारण के ज्या ज्यां भाष्यकारना नामे एमनो उल्लेख आवे छे त्यां त्यां घणा भागे विशेषावश्यकना अवतरणो टांकवामां आव्यां होय छे । पण, ए भाष्य सिवाय बीजां पण कोई भाष्यो एमणे रच्यां होय तो ते संभवित छ । एनुं काईक अस्पष्ट सूचन, कोट्याचार्यनी विशेषावश्यकभाष्यटीकामांना एक उल्लेखथी थाय छे: 'पोग्गल-मोयगदन्ते' ए पदथी शुरुथती विशेषावश्यकभाष्यनी २३४* मी गाथामां जे दृष्टान्तो सूचव्या छे तेमनुं विवरण आ भाष्यमां करवामां आव्यु नथी । पण निशीथसूत्रना भाष्यनी पीठिकामां आ गाथा अने एमां सूचवेलां दृष्टान्तोनुं विवरण विगतपूर्वक आपेलं छे । एटलामाटे कोट्याचार्य पोतानी टीकामां आ दृष्टांत-सूचक गाथानी व्याख्या करतां विवरणमाटे लखे छे के–'निशीथे वक्ष्यामः'-निशीथमां आ विवरण करीशुं ।' आ वाक्य कोट्याचार्य- होय एम तो संभवे ज नहीं । कारण के निशीथभाष्य कोट्याचार्यकृत छे एवी प्रसिद्धि के परंपरा बिल्कुल संभळाती नथी । तेथी आ वाक्य जिनभद्रगणीनी खोपज्ञटीकामांनुं होवू जोइए। अने जो तेम होय तो ग्रन्थकारे आ गाथार्नु विवरण निशीथ भाष्यमां कयु होय एटले विशेषावश्यकभाष्यमा पुनः ते करवानी आवश्यकता नहीं रहेवाथी अहिं मात्र तेनुं सूचन ज करी दीधुं होय । विशेषावश्यकटीकाकार हेमचंद्रसूरि पण आ गाथानी व्याख्यामां अंते एम लखे छे के-'एतान्युदाहरणानि विशेषतो निशीथादवसेयानि ।' मारी पासे केटलांक प्रकीर्ण पानाओनो एक संग्रह छे तेमां भाष्यो अने चूर्णिओमांनी केटलीक नोंधो कोई विद्वाने करेली छे । * काशीथी प्रकट थएल आवृत्तिमां आ गाथानो क्रमांक २३५ छे, पण पूनानी कोट्याचार्यवाळी टीकानी प्रतिमा ए अंक २३४ छ। 2 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए संद्रह आसरे ३०० करतां वधारे वर्षनो जूनो लखेलो छ । एमां एक ठेकाणे निशीथभाष्यनी ३ गाथा लखेली छे, अने ते पछी "इति जिनभद्रक्षमाश्रमणकृतनिशीथभाष्यस्याष्टमोद्देशके" आवी स्पष्ट नोंध करी छे । अभ्यासिओए आ बाबतमा विशेष शोध करवानी आवश्यकता छ ।* जिनभद्रगणीनो समय __ जिनभद्र गणीना गण-गच्छादिनो के गुरु-शिष्यादिनो कोई उल्लेख जोवामां आवतो नथी । सोळमा सैका पछी लखाएली पट्टावलिओमां तेमना समयनो निर्देश थएलो जोवामां आवे छे अने ते प्रमाणे महावीर निर्वाण पछी सं० १११५ मां तेमनो वर्गवास थयो मानवामां आवे छे । वीरनिर्वाण १११५ ते विक्रम संवत् ६४५ बराबर थाय छे । पट्टावलिओमां उल्लेखेलो आ समय केटलो असन्दिग्ध छे ते जाणवानां विशेष प्रमाणो अद्यापि दृष्टिगोचर थयां नथी। तपागच्छ, अंचलगच्छ, उपकेशगच्छ, लघुपोशालिक, बृहत्पोशालिक, आदि गच्छोनी जे आधुनिक पट्टावलिओ उपलब्ध छे तेमनी मुख्य परंपरामां तो जिनभद्रनो कोई निर्देश नथी । पण खरतर गच्छीय पट्टावलिओमां कोक ठेकाणे मूल पट्टपरंपरामा जिनभद्रने दाखल करी दीधेला जोवामां आवे छे खरा । पण तेमां परस्पर घणो ज विरोध नजरे पडे छ । उदाहरण तरीके, मारी पासे जे केटलांक आवां पट्टावलिनां पानाओ छे तेमांथी एकमां जिनभद्रने महावीरथी ३५ मी पाटे लख्या छे; बीजा पानामा ३८ मी पाटे लख्या छे; त्यारे वळी त्रीजा पानामां २७ मी पाटे लख्या छ । केटलांक पानाओमां जिनभद्रनी पाटे हरिभद्रने बेसार्या छे, तो केटलांकमां जिनभद्रनी पाटे शीलांकाचार्यने बेसार्या छ । एक पट्टावलिमां हरिभद्रने महावीर निर्वाण पछी ५८५ वर्षे अने जिनभद्रने ९८० वर्षे थएला जणाव्या छे । आम पट्टावलिओनी विगतो बहु ज असंबद्ध होवाथी तेमांना कोई पण कथनने अन्यान्य पुरावाओना आधारे निर्णीत कर्या सिवाय सत्य मानी शकाय तेम नथी ए स्पष्ट ज छे। धर्मसागर गणीकृत तपागच्छ पट्टावलि के जे केटलाक ऐतिहासिक ऊहापोह पछी लखवामां आवी छे अने जेनुं संशोधन पण केटलाक विद्वानोनी बनेली खास समितिए कयु छे, तेना उल्लेख प्रमाणे जिनभद्र गणी, हरिभद्र पछी ६०-६५ वर्षे थया हता। पण आ उल्लेख पण एटलो ज भूलभरेलो छ । कारण के प्रथम तो हरिभद्रनो स्वर्ग समय जे ए पट्टावलिमां वीरसंवत् १०५५, विक्रम संवत् ५८५ आप्यो छे ते ज बराबर नथी, ए में हरिभद्रना समय निर्णयमा विस्तृत चर्चा करी सिद्ध कयुं छे; अने बीजुं, हरिभद्र सूरिए पोतानी आवश्यक टीकामां अनेक ठेकाणे जिनभद्रनुं स्मरण कर्यु छे अने विशेषावश्यकनो स्पष्ट उल्लेख पण को छे । एटले हरिभद्र पछी जिनभद्र कोई पण रीते होई शक नहीं ए निश्चित छ । धर्मसागरकृत पट्टावलिनो उल्लेख आ प्रमाणे छे:__ श्री वीरात् १०५५ वि० ५८५ वर्षे याकिनीसनुः श्रीहरिभद्रसरिः स्वर्गभाक् । निशीथ-बृहत्कल्प-भाण्यावश्यकादिचूर्णिकाराः श्रीजिनदासगणिमहत्तरादयः पूर्वगत * पहावलिओना केटलांक पानाओमां तो एमने "सर्व भाज्यकर्ता" पण लखेला छ । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ gaur- श्रीप्रद्युम्न क्षमाश्रमणादिशिष्यत्वेन श्रीहरिभद्रसूरितः प्राचीना एव यथाकालभाविनो बोध्याः । १११५ श्रीजिनभद्रगणिर्युगप्रधानः । अयं च जिनभद्रीयध्यानशतककरणान् भिन्नः संभाव्यते । - इण्डियन एण्टीरी, पु. ११, पृ. २५३. खरतर गच्छनी पट्टावलिओ – जेमां छेल्ला सैकामां थई गयेला क्षमाकल्याणमुनिनी बनावेली मुख्य कही शकाय अने जेनो सार डॉ. क्लाटे इण्डियन एण्टिकेरीना पु० ११, पृ० २४३-४९ मां आप्यो छे—ते अनुसारे जिनभद्रनो समय वीरनिर्वाणनो दशमो सैको छे । ए पट्टावलिमां लख्या प्रमाणे वीर सं० ९८० मां देवर्द्धिगणी थया । ते ज समयमां चतुर्थीनी संवत्सरी स्थापन करनार कालकाचार्य थया ( वी. सं. ९९३ ); ते ज अरसामां विशेषावश्यक भाष्यादिना कर्ता [ बीजी प्रतिप्रमाणे सर्व भाष्यकर्ता ] जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ( वी. स. ९८० ), तथा आचारांगादि सूत्रोनी टीका करनार तेमना शिष्य शीलांकाचार्य थया; अने ते ज जमानामां १४४४ ग्रन्थोना रचनार हरिभद्रसूरि थया । आ प्रमाणे आ पट्टावलिलेखकना हिसाबे देवर्धिगणी, कालकाचार्य, जिनभद्र, शीलांकाचार्य अने हरिभद्रसूरिः ए बधा समकालीन छे । आ बधामां हरिभद्रसूरि सिवाय बाकीमा आचार्योनो समय हजी प्रमाण पुरस्सर निर्णीत थयो नथी । पण, सांप्रदायिक इतिहासनुं एकंदर वळण जोतां ए बधा समकालीन होय ते संभवतुं नथी । हरिभद्रनो समय, लगभग विक्रमना आठमा सैकानो छेल्लो भाग निश्चित थयो छे । देवर्धिगणी अने कालकाचार्य छट्ठा सैकानी शुरुआतमां थएला मनाय छे । एटले एमनी वच्चे ओछामां ओछु २५० वर्ष जेटलं अंतर पडे छे । एमांथी हरिभद्रने बाद करी देवामां आवे - कारण के तेमनो समय निर्णीत छे—अने बाकीना बधाने समकालीन मानी लेवामां आवे तो ते सप्रमाण होई शके के केम; ए प्रश्न विचारणीय रहे छे खरो । पण, आ स्थळे देवर्धिगणी अने कालकाचार्यना समयना विचारने पुरतो अवकाश नथी, तेथी हुं ए बाबतने वगर चर्चे ज मुंकी देवा मांगु छु । जिनभद्रगणी अने शीलांकाचार्यनी समकालीनता अने गुरु-शिष्य-सम्बन्ध माटे कांईक विचार अवश्य कर्तव्य छे । कमनशीबे, शीलांकाचार्य संबंधी जे संवत्नो उल्लेख मळे छे ते पण परस्पर विरोधी छे । आचारांगसूत्रनी टीकानी केटलीक प्रतिओमां टीका बनाव्याना समयनो निर्देश बे रीते मळे छेः एक निर्देश गद्यमां छे, अने बीजो पद्यमां छे । तेमांए वळी दरेकमां बब्बे पाठभेद छे । ( १ ) A पहेलो गद्य निर्देश आ प्रमाणे: "शकनृपकालातीतसंवत्सरशतेषु सप्तसु चतुरशीत्यधिकेषु वैशाखपञ्चम्यां आचारटीका ब्धेति । " खंभातना शान्तिनाथना भंडारमां सं० १३२७ मां लखाएली ताडपत्रनी प्रति छे तेमां आ पंक्ति छे. जुओ, पीटर्सन रिपोर्ट ३, पृ. ९०. Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ B. बीजो गद्य निर्देश आ प्रमाणे:"शकनृपकालातीतसंवत्सरशतेषु सप्तसु अष्टानवत्यधिकेषु वैशाखशुद्धपञ्चम्यां आचारटीका कृतेति ।"-इण्डियन एण्टीक्केरी, सन् १८८६, पृ० १८८. (२) बीजो, जे पद्य निर्देश छे ते आ प्रमाणे: द्वासप्तत्यधिकेषु हि शतेषु सप्तसु गतेषु गुप्तानाम् । संवत्सरेषु मासि च भाद्रपदे शुक्लपञ्चम्याम् ॥ शीलाचार्येण कृता गम्भूतायां स्थितेन टीकैषा । सम्यगुपयुज्य शोध्या मात्सर्यविनाकृतैरायः ॥ -आगमोदयसमिति प्रकाशित आवृत्ति, पृ. ३१७। मारी पासेनी एक नोंधमां, गुप्तानां ना बदले शकानां आवो पण पाठ छे । तेम ज केटलीक प्रतिओमा आमांनो कोई पण उल्लेख सर्वथाए नथी मळतो। ___ आ रीते, आ उल्लेखो, जुदी जुदी ४ सालो बतावे छे । पहेलो, शक संवत् ७८८ नी; बीजो ७२८ नी; त्रीजो, गुप्त संवत् ७७२ नी; अने चोथो शक संवत् ७७२ नी । आमांनी कई साल साची छे ते चोकस कही शकाय तेम नथी* । गुप्त संवत्नी जे गणत्री अद्यापि विद्वानो करता * आचारांगटीकाना आ संवत्सरविषयक उल्लेखना संबंधमां डॉ. फ्लीटे इण्डियन एण्टीकेरी, पु. १५, पृ. १८८ मां एक टिप्पणी लखी छे ते जाणवा जेवी होवाथी तेनुं भाषान्तर अहिं आपवामां आवे छ । ___ आचार टीकामांथी बे उताराओ. श्रीयुत के. बी. पाठके जैन हरिवंशमांथी एक महत्त्वनो उतारो १४१ मा पान उपर आप्यो छे। एमां गुप्त राजाओना उल्लेख उपरांत महावीरना निर्वाण पछीना वंशोनो नियमित क्रम आपी ए समयनो संबंध बता. ववा प्रयत्न कर्यो छे । जो के ए संबंध बराबर नथी। हुँ अहिं थोडीघणी एने मळती ज साहित्यविषयक ध्यान खेंचे एवी बाबत आपवा इच्छु छु। डॉ. भगवानलाल एन्द्रजीए १८८३ नी शुरुआतमा, जैनप्रन्थ आचारांग सूत्र ऊपरनी शीलाचार्यनी आचारटीकानी एक हस्तलिखित प्रति मने बतावी हती। ए लगभग ३०० वर्ष पहेला लखाएली मनाय छ। एमांथी हुंबे उतारा आपुं छु । पहेलो पद्यबद्ध उतारो २०७ B अने २०८ A पान ऊपर छे, अने ते आ प्रमाणे छे: द्वासप्तत्यधिकेषु हि शतेषु सप्तसु गतेषु गुप्तानाम् । संवत्सरेषु मासि च भाद्रपदे शुक्लपञ्चम्याम् ॥ शीलाचार्येण कृता गम्भूतायां स्थितेन टीकैषा। सम्यगुपयुज्य शोध्या मात्सर्यविनाकृतैरायः॥ आ उतारो, शीलाचार्ये टीकानो आ भाग गुप्तसंवत् ७७२ ना भादरवा सुदी पांचमने दिवसे गंभूता (खंभात ) मां पूरो कर्यो एम जणावे छ । बीजो उतारो पुस्तकना अंते २५६ B पान ऊपर आवेलो छ । अने ते गद्यमां होई आ प्रमाणे छ: शकनृपकालातीतसंवत्सरशतेषु सप्तसु अष्टानवत्यधिकेषु वैशाखशुद्ध पञ्चम्यामाचारटीका कृतेति। २५६ B पान अहिं पुरुं थाय छे अने ए पछीनुं पानुं जेमां आ तिथि- आंकडामा पुनरावर्तन अने लेखकना उपसंहारना शब्दो छे ते नष्ट थई गयुं छे। आ उतारो संपूर्ण टीकानी समाप्तिनी तिथि तरीके शकसंवत् ७९८ नी वैशाख सुदी पांचमने मुंके छे । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ आव्या छे ते प्रमाणे जो गणीए तो गुप्त संवत् ७७२ एटले ११४१ विक्रम संवत् (१०९१ई.स०) थाय । ए समय तो शेषनवांग टीकाकार अभयदेवसूरिनो छ। प्रथमद्वितीयांगटीकाकर्ता शीलांकाचार्य तो ए अगाऊ घणा वर्षा पूर्वे थई गयाना घणा पुरावाओ उपलब्ध छ । तेथी कां तो गुप्त संवत् ७७२ वाळो उल्लेख भ्रमपूर्ण होवो जोईए, अने कां तो गुप्त संवत्नी जे गणत्री आज पर्यंतना बधा शोधको गणता आव्या छे ते खोटी होवी जोईए । पण, मात्र आ अनिश्चित पाठ. भेदना आधारे ज गुप्त संवत्नी गांठने आपणे ऊकेली शकीए तेम नथी; तेथी ज्यां सुधी गुप्तसंवत्नी गणना अन्य प्रमाणोथी खोटी न ठरे त्यां सुधी आ प्रस्तुत उल्लेखने आपणे सत्य न मानी शकीए । हवे रह्या शक संवत्सरवाळा उल्लेखो । एमां जो के ७७२, ७८४ अने ७९८ आम त्रण भिन्न भिन्न संवत्सरो छे, पण ते बधानो अन्तर्भाव एक ज पचीसीमां थाय छे तेथी आ बन्ने उताराओ एम बतावे छे के शीलाचार्ये गुप्त अने शक संवतूने एक गण्यो छ । एमां स्पष्टरीते एक प्रकारनी भूल तो छ ज । अने आ भूल, गुप्त अथवा शक संवत् जेने विषे एन अधुरं ज्ञान हतुं, तेनो निर्देश, कोईपण रीते दाखल करी पोतानी विद्वत्ता बताववाना हेतुने लईने थई छ । ज्यां सुधी, गुप्त संवत् ७७२ थी ७९८ (इ. स. १०९१ थी १११७) अथवा शक संवत् ७७२ थी ७९८ (इ. स. ८५० थी ८७६) ए बेमांथी कया अरसामा आचारटीका लखाई ए बताववा माटे पुरती थई पडे एवी शीलाचार्यनो खरो समय प्रदर्शित करती माहिती न मळी आवे त्यां सुधी ए भूल दूर थवानी नथी। परंतु आ उताराओ एम बताववा माटे महत्त्वना छे के शीलाचार्यना समयसुधी पण ए वातनुं स्मरण हतुं के ए संवत् (गुप्त संवत् ) के जे वल्लभीना राजाओना वापरने लीधे जाणीतो हतो अने छेवटे काठियावाडमा वल्लभी संवत् तरीके प्रचलित थयो हतो, एनो मूळ अने खास संबंध गुप्त राजाओ साथे हतो जेमणे काठिया. वाड अने बीजा पाडोशना भागोमां एनो फेलावो को हतो।" आ संवत् अने डॉ. फ्लीटनी टिप्पणी ऊपर प्रो. पीटर्सने, हस्तलिखित पुस्तकोनी शोधवाळा, पोताना त्रीजा रीपोर्टना पृ० ३६-३७ ऊपर जे नोंध करी छे ते पण आ बाबतमां उपयोगी होवाथी अहिं अवतारबामां आवे छे: नं. २५५. आचारांगसूत्र ऊपरनी शीलाचार्यनी टीका शीलाचार्य के शीलांक सुप्रसिद्ध नगर अणहिलवाड पाटणना संस्थापक वनराजना धर्मगुरु तरीके सुविदित छ। २४७ मां पान ऊपर जे अवतरण आपेलुं छे ते ऊपरथी जणाय छे के शीलांकनी आचारांगवृत्तिमां एनो रचना-समय श. सं. ७७८ छ । वधारेमा जणाय छे के जे श्लोकमां ए मिति छे ते छेवटना पान ऊपर छे एटले बहु भार मूकवा जेवी नथी । १८८६ ना मार्चना इ. ए. मां फ्लीटनी शीलाचार्यना ग्रंथ ऊपर एक ढूंकी नोंध छ । एमां भगवानलाल इंद्रजीनी प्रतिना आधारे ए लखे छ के ग्रंथना अंदरना भागमां गुप्त संवत् ७७२ अने अंतना भागमां श. सं. ७९८ आपवामां आव्या छ । हाल तो हं, अहिं आपेलो गुप्त अने शक संवत् वच्चेनो गोटाळो टाळी शकुं एम नथी; परंतु संवत् १३२७ अर्थात् इ. स. १२७१ मा लखाएली ए ग्रंथनी खंभातवाळी प्रतिमां ए मूळ ग्रंथ लखायानो जे समय आपेलो छे ते विषे मने नहीं जेवी ज शंका छ । ए ग्रंथ श. सं. ७८५-इ. स. ८६३ मां पूरो करवामां आव्यो हतो। बीजा श्लोकमांनो जे शब्द हुँ बराबर नहोतो समजी शक्यो ते “गंभूता"छे, एम फ्लीटना अवतरणथी समजाय छे। गंभूता एटले खंभात एम फ्लीटनो अभिप्राय देखाय छे । मारावाळा उतारामां ए श्लोकनो अंक बीजो आप्यो छे परंतु पहेला अंकवाळो श्लोक एमां नथी । एनुं स्थान समयनिर्देशक गद्य पंक्तिए लीधुं छे। शीलाचार्ये पोतानी टीका धीरे धीरे पूरी करी हती एटले एमणे एबे श्लोक अथवा एना जेवू काइक बच्चे बच्चे की दीधं होय एम लागे छे।" Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेमनी सत्यता जो पुरवार थाय तो ते काल संभवनीय बनी शके छे । पण, केटलांक अवान्तर प्रमाणोनो विचार करतां आ समय पण शीलांकाचार्य माटे जरा वधारे अर्वाचीन जणाय छे । शकसंवत् ७७२-७९८ एटले विक्रम संवत् ९०७-९३३ जेटला थाय । परंतु एम छेक विक्रमना दशमा सैकामां शीलांकाचार्य, अस्तित्व स्वीकारवं ते कदाचित् भ्रमपूर्ण थशे । प्रमाणो जो के स्पष्ट नथी; छतां शीलांगाचार्य हरिभद्र करतां वधारे अर्वाचीन होय एवं मानवु शंकाशील लागे छ । परंपरागत किम्वदन्ती प्रमाणे शीलांकाचार्य अणहिल्लपुर संस्थापक वनराज चावडाना गुरु थता हता । ते जो किम्वदन्ती साची होय-खोटी होवा माटे खास प्रमाण मळतुं नथीतो शीलांकाचार्यनी हयाती विक्रम संवत् ८०० नी आसपास होई शके । कारण के वनराजे सं०८०२ मां पाटणनी संस्थापना करी हती । शीलांकाचार्यना एक विद्या-गुरु जिनभट होय एम तेमनी विशेषावश्यकटीकामांना उल्लेखोथी अनुमान थाय छे । जिनभट ज हरिभद्रना पण धर्माचार्य थता हता एम हारिभद्रीय आवश्यक-वृत्तिना प्रान्तोल्लेखथी ज्ञात थाय छे । हरिभद्रनो समय वनराजना समय साथे एकता धरावे छे, ए तो हरिभद्रना समय निर्णयथी सिद्ध ज छे । एटले जिनभटना शिष्य शीलांक अने हरिभद्र बन्ने समकालीन होय एवा आ पुरावाओ जणाय छे । वळी एक विशेष प्रमाण पण ए कथननी पुष्टि करतुं होय एवं कही शकाय तेम छे । कुवलयमाला कथा जे दाक्षिण्यचिह्न उद्योतनसूरिए शक संवत् ७०० मां रची छे तेनी प्रशस्तिनी ८ मी ९ मी गाथामां* तत्त्वाचार्य नामना एक आचार्य- वर्णन आवे छे। ए तत्त्वाचार्य शीलांक ज होय एम मारी कल्पना थाय छ। कारण के आचारांगटीकानी प्रांते शीलांकाचायेनुं बीजुं नाम तत्त्वादित्य स्पष्ट पणे लखेलं मळे छ; अने कुवलमालानी ९ मी गाथामां तत्त्वाचार्यने सीलंगविउलसालो एवा श्लेषात्मक विशेषणद्वारा शीलांक उपपदथी सूचित करवामां आवेला छे, एवो मारो अभिप्राय छ । जो ए अभिप्राय यथार्थ होय तो ए ज तत्त्वाचार्य ऊर्फ शीलांकाचार्य कुवलयमालाकर्ता उद्योतन सूरिना दीक्षा-गुरु सिद्ध थाय छे अने तेम थवाथी उद्योतन सूरिना एक विद्या-गुरु हरिभद्रसूरि शीलांकना समकालीन सहजे साबीत थई जाय छे । ___ आ हकीकत ऊपरथी ए विचार स्पष्ट थतो लागे छे के शीलांक हरिभद्रना समकालीन होई, विक्रमना ८ मा सैकाना छेल्ला भागमां ते थएला होवा जोईए; पण आचारांगटीकाना प्रांतोल्लेख प्रमाणे १० मा सैकाना पूर्व भागमां तो नहीं । परंतु, ऊपर जोई गया तेम केटलीक पट्टावलिओमां जे एमने साक्षात् जिनभद्र क्षमाश्रमणना शिष्य जणाव्या छे तेनी शी स्थिति छे ए विचार तो बाकी ज रहे छे । एटले हवे जरा ए विचार तरफ पण दृष्टि फेरवी जोईए । विशेषावश्यक भाष्यटीकाकार कोट्याचार्य ए ज शीलांकाचार्य होय-ए टीका अने प्रघोष प्रमाणे ते होय पण खरा तो ए टीकागत उल्लेखोथी तो शीलांकाचार्य जिनभद्रगणीना शिष्य सिद्ध थई * तस्स य आयारधरो तत्तायरिओ त्ति नाम सारगुणो। आसि तवतेयनिजियपावतमोहो दिणयरो च ॥ जो दूसमसलिलपवाहवेगहीरन्तगुणसहस्साण । सीलंगविउलसालो लग्गणखंभो व्व निकंपो॥ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ शकता नथी । कमनशीबे, पूनाना ग्रन्थसंग्रहमां ए टीकानी जे प्रति छे तेनां आद्यन्तनां केटलांक पानां खंडित थई गएला छे, तेथी टीकाकारे मंगलाचरणमां के प्रशस्तिमां पोताना विषे के जिनभद्रगणीविषे कोई विशेष सूचन कर्यु छे के नहीं, ते जाणवानुं कशुं साधन नथी । पण टीकामां वच्चे वच्चे कटलीक जग्याए भाष्यकारनी खोपज्ञ व्याख्याविषे जे केटलाक उल्लेखो करेला छे ते ऊपरथी कांईक अनुमान थई शके तेम छ । शीलांक ऊर्फ कोट्याचार्य पोतानी टीकामां जिनभटाचार्य अने जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण एम बे आचार्योनो वारंवार मत प्रदर्शित करे छे । दाखला तरीके थोडांक अवतरणो जोईए(१) उपयोगस्तु छद्मस्थस्य सर्वत्रान्तर्गौहर्तिक एव श्रोत्रादिषु प्राय ईहान्वयत्वात् । इति जिनभटाचार्यपूज्यपादाः इति । (२) तत्राप्यपूर्वमिवापूर्वमिति जिनभटाचार्यपूज्यपादाः इति । (३) जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणपूज्यपादैस्तु नोक्तम् ।। (४) अत एव पूज्यपादैः स्वटीकायां प्रायोग्रहणं कृतम् । (५) क्षमाश्रमणटीकात्वियम् । (६) क्षमाश्रमणटीकापीयम् । (७) श्रीमत्क्षमाश्रमणपूज्यपादानामभिप्रायो लक्षणीयः। आमांनां प्रथमनां बे अवतरणोमां जिनभटाचार्यनो उल्लेख छ । जिनभटाचार्यनी कोई कृति जैन साहित्यमां जाण्यामां नथी; तेम ज आ अवतरणो ऊपरथी एम पण नथी भासतुं के आमां जिनभटना कोई ग्रन्थना आधारे कोट्याचार्य आ अभिप्रायो टांकता होय । आ अभिप्रायो तो एम सूचवता होय तेम लागे छे के, कोट्याचार्ये जिनभटना मुखेथी कांई विचारो सांभळ्या-सीख्या होय अने ते प्रसंगवश आ टीकामां व्याख्यान्तररूपे टांकी देवामां आव्या होय । आथी हुं एम अनुमानु छ के जिनभट पासे शीलांकाचार्ये शास्त्राभ्यास कर्यो होवो जोईए, अने तेथी तेओ तेमना एक गुरु थवा जोईए । हवे बीजां अवतरणोमां जोईए तो तेमां जिनभद्रगणी अने तेमनी खोपज्ञटीकानो निर्देश स्पष्ट ज करेलो छ । आ निर्देश ऊपरथी, जिनभद्रगणीना शीलांकाचार्य शिष्य थता होय तेवो कशो ध्वनि प्रकट थतो नथी । जो तेओ तेमना साक्षात् शिष्य होत तो केक ठेकाणे ते विषेनो स्पष्ट-अस्पष्ट उल्लेख तेओ अवश्य करत । ए टीकामां एक उल्लेख तो एवो पण नजरे पडे छे, जे, ए बेनो परस्पर कालकृत विशेष भेद सूचवनारो कही शकाय । ए उल्लेख आ प्रमाणे छे:___ "भाष्याननुयायि पाठान्तरमिदं अग्रतः, एवमनेनैव वृद्धिक्रमेणेत्यादेराक; न चेदं भूयसीषु प्रतिषु दृश्यते ।" वि० भाष्यनी ६३७ मी गाथानी व्याख्यामां आ उल्लेख आवेलो छ । अहिं, कोई जूनी प्रतिओमां शीलांकाचार्यने पाठभेद नजरे पड्यो छे अने ते पाठभेद भाष्यकारना अभिप्रायथी जूदो पडतो जणायो छे; तेथी ते माटे पोतानी टीकामां एमने उल्लेख करवो पड्यो छे के आ पाठभेद भाष्यने अनुगत नथी; तेम ज घणी प्रतिओमां आ पाठ मळतो पण नथी। आ उल्लेख स्पष्ट सूचवे छे के शीलांकाचार्यना समयमा विशेषावश्यकमां पाठभेदो थई Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूक्या हता अने तेनी घणी जूदी जूदी पाठभेदोवाळी प्रतिओ पण थई चूकी हती। आ वस्तुस्थिति त्यारे ज बंध बेसती बनी शके ज्यारे शीलांकाचार्य अने जिनभद्रमणी क्षमाश्रमण वच्चे कालकृत विशेष अन्तर होय । जो ए बन्नेनी बच्चे कांई अन्तर न होय अने पट्टावलि लेखकना कथन प्रमाणे एमनामां गुरु-शिष्यनो ज संबन्ध रहेलो होय तो विशेषावश्यकभाष्यमां आवा पाठभेदो अने प्रत्यन्तरोनी नोंध लेवा जेवी स्थिति शीलांकाचार्यनी सन्मुख उपस्थित ज शी रीते थई शके । माटे ज्यां सुधी बीजां कोई स्पष्ट साधक बाधक प्रमाण न मळी आवे त्यां सुधी शीलाकाचार्यने जिनभद्रगणीना शिष्य पण मानी शकाय तेम नथी, तेम ज ते बन्ने समकालीन हता एम पण कही शकाय तेम नथी। जिनभद्रगणी क्षमाश्रमणना समय निर्णय माटे हजी बीजी घणी बाबतो चर्चवा जेवी छे, पण आ स्थळे ते बधीनी चर्चा करवा जेटलो अवकाश न होवाथी हुं ए बाबतनो कोई स्पष्ट निर्णय आपी शकुं तेम नथी । पण, खास काई विरोधी प्रमाण नजरे न पडे त्यां सुधी पट्टावलियोमा जे वीर संवत् १११५-विक्रम संवत् ६४५ नी साल एमना माटे लखेली छे तेनो स्वीकार करीए तो तेमां कशी हरकत नथी। जीतकल्पसूत्र आ सूत्र, एना नाम प्रमाणे जैन श्रमणोना आचार विषयक छे अने एमां १० प्रकारना प्रायश्चित्तनुं विधान करवामां आव्यु छ । आ प्रायश्चित्त संबन्धी विषय छेद सूत्रो अने बीजा घणा ग्रन्थोमां चर्चवामां आव्यो छे। तेमां, केटलीक जग्याए ते बहु ज संक्षिप्त रीते चर्चेलो छे, तो केटलीक जग्याए धणी ज विस्तृत रीते वर्णवेलो छ । एटला माटे जिनभद्रगणी क्षमाश्रमणे बहु संक्षिप्त नहीं तेमज बहु विस्तृत नहीं एवी मध्यमरीते ए विषयने समजाववा माटे आ ग्रन्थनी संकलना करी होय तेम संभवे छे । ___ आ प्रायश्चित्तना विषयमां एक वात नोंधवा जेवी छे; अने ते ए छे, के श्वेतांबर संप्रदायना सर्व आगमोमां अने अन्य ग्रन्थोमां आ जीतकल्पसूत्र प्रमाणे ज १० प्रकारनां प्रायश्चित्त वर्णवेलां मळे छे । पण तत्त्वार्थसूत्रना नवमा अध्यायना २१-२२ सूत्रमा प्रायश्चित्तना प्रकार ९ ज गणाव्या छे, अने तेमां, आ सूत्रमा वर्णवेलां मूल, अनवस्थाप्य अने पारंचिक आ छेल्लां त्रणनां स्थाने, परिहार अने उपस्थापना नामना बे प्रायश्चित्त कह्यां छे । दिगम्बर संप्रदायना साहित्यमां प्रायः सर्वत्र तत्त्वार्थसूत्र प्रमाणे ९ ज प्रायश्चित्त मळी आवे छे। श्वेतांबर साहित्यमां एक तत्त्वार्थसूत्र सिवाय बीजे क्याए आ प्रकार दृष्टि गोचर नथी थतो। जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण जीतकल्पसूत्रनी अंते एम पण कहे छे के तप-अनवस्थाप्य अने तप-पारांचिक आ बन्ने प्रायश्चित्त भद्रबाहुखामी पछी व्युच्छेद पाम्यां छे । दिगम्बर साहित्यमां आ विचार क्याए नथी । तेम ज तत्त्वार्थभाष्यमां पण आ संबंधे कांई सूचन नथी । विद्वान् अभ्यासिओ तत्त्वार्थसूत्रना कर्तृत्वना प्रश्ननो ऊहापोह करे त्यारे आ विषय पण तेमां विचारवा जेवो छे, ए सूचन करवा सारु अहिं आ नोंध करवी उचित लागी छे । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ जीतकल्पसूत्र - व्याख्या - साहित्य आ सूत्र ऊपर उपलब्ध थता व्याख्या - साहित्यमां जूनामां जूनी कृति ते आ आवृत्तिमां प्रकाशित सिद्धसेनकृत चूर्णि छे । आ चूर्णि रचायां पहेलां पण कोई चूर्णि ए सूत्र ऊपर रचाएली हती एम प्रस्तुत चूर्णिमां, पृष्ठ २३, पंक्ति २३ ऊपर, आवेला उल्लेखथी ज्ञात थाय छे, पण ते उपलब्ध नथी । आ मुद्रित चूर्णिना कर्ता सिद्धसेनगणिना समयादि विषेनो निर्णय करवा माटेनां साधनोविषे विशेष शोध खोळ थई शकी नथी, तेथी आ सिद्धसेन कोण अने क्यारे थया - ए प्रश्नने छेड्या वगर ज हाल तो चलावी लेवुं प्राप्त छे । आ चूर्णि ऊपर जे टिप्पण आपवामां आव्युं छे तेना कर्ता श्रीचन्द्रसूरिना समयादिनो उल्लेख टिप्पणनी प्रशस्तिमां आपेलो छे; अने ते अनुसारे विक्रम संवत् १२२७ मां अणहिलपुरमां तेमणे आनी रचना करेली छे । आ श्रीचंद्रसूरिए श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रवृत्ति ( संवत् १२२२ ), पंचोपांगवृत्ति (संवत् १२२८), निशीथविंशोद्देशकवृत्ति, विगेरे बीजा पण केटलाक व्याख्याग्रन्थो लख्या छे । प्रस्तुत चूर्णि सिवाय आ सूत्र ऊपर एक प्राकृत गाथाबद्ध भाष्य पण उपलब्ध थाय छे । ए भाष्यना कर्ता कोण छे ते कांई ज्ञात थई शक्युं नथी । एनो आदि - अंतनो भाग आ प्रमाणे छेआदि - कयपवयणपणामो वुच्छं पच्छित्तदाणसंखेवं । atraanrai जीवस विसोहणं परमं ॥ पवयणदुवालसँग सामाइयमाइ बिन्दुसारन्तं । अह व चविसंघो जत्थेव पइट्ठियं नाणं || अह वा पयपसत्थं पहाणवयणं व पवयणं तेण । अह व पवत्तयतीई नाणाई पवयणं तेण ॥ अन्त - अप्परगन्थमहत्थो इति एसो वण्णिओ समासेणं । पंचमतो ववहारो नामेणं जीयकप्पो ति ॥ कपव्ववहाराणं उदहिसरिच्छाण तह णिसीहस्स । सुतरतण बिन्दुणवणीत भूतसारेस णातच्चो ॥ कपादी विष्णव जो सुत्तत्थेहि माहिती णितुणं । णि दिसति सो एयं सीसपसीसाण णहु अण्णो || ॥ इति श्रीजीतकल्पभाष्यं ॥ ३३०० ॥ सं० १७२० वर्षे मार्गशीर्ष शुदि १ शुक्रवासरे अद्येह श्रीपत्तने लि० श्रीमोदज्ञातिना श्रीकाशीदासात्मजेन अंबादत्तेन । शुभं भवतु । शिवमस्तु । 3 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ भाष्य, प्रस्तुत चूर्णि रचाया बाद लखायुं होय तेम जणाय छे, कारण के चूर्णिमां भाष्यनो क्याए उल्लेख थएलो नथी देखातो । चूर्णि पहेलां जो भाष्यनी रचना थई होत तो चूर्णिकार तेनो अवश्य उल्लेख करत । चूर्णि अने भाष्य सिवाय, आ सूत्र ऊपर, एक संस्कृत टीका पण खतंत्र रीते लखारली मळे छ । ए टीका, आवश्यकसूत्रनी लघुवृत्ति रचनार श्रीतिलकाचार्य रची छे । ए टीकानो आदि अने अन्त भाग आ प्रमाणे छे:वन्दे वीरं तपोवीरं तपसा दुस्तपेन यः । शुद्धं स्वं विदधे स्वर्ण स्वर्णकार इवाग्निना ॥ जिनस्य वचनं नौमि नवं तेजस्विमण्डलम् । यतो ज्योतींषि धावन्ति हनुमन्तर्गतं तमः॥ निःप्रत्यहं प्रणिदधे भवानीतनयानहम् । सर्वानपि गणाध्यक्षानक्षामोदरसङ्गतान् ॥ जिनभद्रगणि स्तौमि क्षमाश्रमणमुत्तमम् । यः श्रुताज्जीतमुधे शौरिः सिन्धोः सुधामिव । प्रणमाम्यात्मगुरूंस्तान् धनसारशलाकयेव यद्वाचा । अज्ञानतिमिरपूरितमुद्घाटितं ममान्तरं चक्षुः इति नुतिकतसुकतःश्रुतरहस्यकल्पस्य जीतकल्पस्य । विवरणलवं करिष्ये स्वस्मृतिबीजप्रबोधाय॥ श्रीमान् चन्द्रप्रभः सूरियुगप्राधान्यभागभूत् । तदासनमलंचक्रुः श्रीधर्मघोषसूरयः॥ तत्पश्रीभुजोऽभूवन् श्रीचक्रेश्वरसूरयः । श्रीशिवप्रभसूरिस्तत्पश्रीहीरनायकः॥ तदीयशिष्यलेशोऽहं सूरिश्रीतिलकाभिधः । अनन्यसमसौरभ्यश्रुताम्भोजमधुव्रतः॥ इमामीविधां चूर्णे तस्याश्चोपनिवन्धतः । गुरूणां संप्रदायाच विज्ञायार्थ स्वशक्तितः॥ अकार्ष जीतकल्पस्य वृत्तिमत्यल्पधीरपि । सा विशोध्या श्रुतधरैः सर्वैर्मयि कृपापरैः॥ सहस्रमेकं श्लोकानामधिकं सप्तभिः शतैः । प्रत्यक्षरेण संख्याया मानमस्स विनिश्चितम् ॥ जीतकल्पसूत्रना अनुकरण-ग्रन्थ आ सूत्रना अनुकरण रूपे, पाछळना आचार्योए यतिजीतकल्प अने श्राद्धजीतकल्प ए नामना बीजा बेत्रण स्वतंत्र ग्रन्थो पण लख्या छे, अने तेमना ऊपर टीका-टिप्पणी आदि केटलाक व्याख्या ग्रन्थो पण उपलब्ध थाय छे. आ ग्रन्थने, आ रूपमा प्रकट करवा माटे, श्रीयुत मोदी केशवलाल प्रेमचन्द भाईना उत्साह अने आग्रह ज मुख्य कारणभूत थया छे अने तेथी आ प्राचीन ग्रन्थरत्नना उद्धारनुं मुख्य श्रेय तेमने ज घटे छ। गूजरात पुरातत्त्व मन्दिर ) अमदाबाद -मुनि जिनविजय आश्विनमास, संवत् १९८२.) 1 जुओ, जैनग्रन्थावली, पृष्ठ ५६. Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट NRNEM शीलांकाचार्य विषे वधारे विगत पाछळनां पानाओमां शीलांकाचार्य विषे केटलीक चर्चा करी छे अने तेमां में एम अभिप्राय दर्शाव्यो छे के शीलांकाचार्य घणुं करीने हरिभद्र सूरिना समकालीन होवा जोईए । आ प्रस्तावना प्रेसमां गया बाद डॉ. हर्मन याकोबीनी लखेली हरिभद्रकृत समराइचकहानी प्रस्तावना मारा जोवामा आवी । ए प्रस्तावनामा प्रसंगवशात् शीलांकाचार्य विषे एक बे ठेकाणे डॉ. याकोबीए उल्लेख करेलो छ भने एमना मते ए आचार्य हरिभद्र करतो एक सैका पछी थया हता तेम लागे छ । प्रमाण जो के कोई नवु ए नथी आपता पण आचारांग टीकानी प्रांते जे शक संवत् ७९८ नी पंक्ति मळी आवे छे तेने ज प्रमाण मानी ए पोतानो अभिप्राय व्यक्त करे छ। प्रस्तावनाना पृष्ठ १. नी नोटमा ए जणावे छे के___In the Laghuvrtti [ of Ganadhara Sārdha Sataka] V. 60. According to that source and to the Pattavali of the Kharataragaccha S'ilāņk was the successor of Haribhadra; but that is impossible, since the date of his Achārāngaţika is said to be S'aka 798=872 A. D., or more than century later than Haribhadra. एज प्रस्तावनाना पृष्ठ १२ ऊपर एक बीजी रीते पण हरिभद्र अने शीलांक वच्चे एक सैकानुं भंतर सूचवता ए विद्वान् लखे छे के For according to Prof. Leumann Haribhadra commented on the text in Sanskļit, but retained the Kathānakas and certain other parts of the Cūrni in the original Prakrit; while Slilānk who flourished more than a century later, translates such passages also into Sanskrit. ___ आमांना प्रथम अवतरणमां तो आचारांग टीकाना शक संवत् ७९८ वाला उल्लेखने, ज्यां सुधी ते अन्य प्रमाणोथी असिद्ध न ठरे, प्रमाणभूत मानी, खरतरगच्छ पट्टावलीमा जे शीलांकने हरिभद्रना शिष्य लख्या छे तेने डॉ. याकोबी असंभव माने छ; अने हरिभद्रनो जे समय में निर्णीत को छे तेनो संपूर्ण स्वीकार करी, तेज समयना हिसाबे, ए बंने आचार्यों बच्चे एक सैका जेटलं अंतर बतावे छे । बीजा अवतरणमा प्रो. लॉयमाने पोताना दशवैकालिक सूत्र ऊपरना निबंधमां (Z. D. M.G., vol. 46 p. 581. ff.) जैन आगमो ऊपरना व्याख्या साहित्यना कालक्रम संबंधे जे अभिप्राय जणाव्यो छे तेने भनुसरीने डॉ. याकोबीए हरिभद्र अने शीलांक वच्चे एक सैका जेटलं व्यवधान सूचव्यु छ । आ प्रस्तावनाना वाचकोनी विशेष समजण खातर प्रो. लॉयमाने दोरेला व्याख्या-साहित्यना कालक्रमनुं स्पष्टीकरण करवु आवश्यक छ । जैन आगमो ऊपर सौथी प्रथम नियुक्ति नामे प्राकृत गाथाबद्ध ढूंकी टिप्पणीओ रचाई ते पछी प्राकृत गाथामां ज विस्तृत भाष्यो रचायां; ते पछी प्राकृतबहुल अने क्वचित् संस्कृतवाला गद्यमां चूर्णिओ रचाई ते पछी संस्कृतबहुल अने क्वचित् प्राकृतवाला गद्यमा टीकाओ रचाई अने ते पछी छेवटे केवल संस्कृतमा ज व्याख्याओनी रचना थई । आ प्रकारना दरेक व्याख्या-निबंधोनो कालक्रम साधारण रीते एक-एक सैका जेटको समजी लेवानो अभिप्राय ए विद्वानोनो थाय छ । उदाहरण तरीके-आवश्यक अने नंदिसूत्रनी चूर्णिना कर्ता जिनदासगणि महत्तर विक्रमना आठमा सैकाना पूर्वार्धमा थया । तेमना पछी एक सैका बाद संस्कृतबहुल एवी टीकाओ लखवानी शुरुआत करनार हरिभद्र थया । हरिभद्रे पोतानी टीकाओ माटे जो के संस्कृतमा ज लखवानी १ नंदिसूत्रनी चूर्णि शक संवत् ५९८-विक्रमसंवत् ७३३ मां रचाई हती। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. पद्धतिनो अंगीकार कीधो हतो पण वच्चे वचे प्रमाणरूपे जे कथानको विगेरे आपवानी जरूर पडी ते तेमणे पूर्वनी चूर्णिभोमांथी प्राकृतमा ज तद्वत् तारवी लीधां। ए पछी, एक सैका बाद शीलांकाचार्य थया जेमणे पोतानी व्याख्याओने परिपूर्णरीते संस्कृतमा ज लखवानी शैलीनो स्वीकार कीधो। प्रो. लॉयमाने दोरेलो आ कालक्रम जो के सामान्यरीते बंध बेसतो जणाय छे अने जैन आगम-साहित्यना विकासक्रमनो इतिहास जोतां ए विचार घणाभागे स्वीकारणीय पण जणाय छे । छतां एमां कोक अपवाद पण दृष्टिगोचर थाय छ । दाखला तरीके इग्यारमा सैकामां शांत्याचार्य उत्तराध्ययनसूत्र ऊपर जे टीका लखी छे ते हरिभद्रनी पद्धतीए लखी छ । मूळ सूत्र अने नियुक्तिनी व्याख्या ज्यारे ए आचार्य संस्कृतमां लखी छे त्यारे एमां आवतां बधां कथानको प्राकृतमा ज पूर्वनी चूर्णिमाथी तद्वत् उतारी लीधां छेअने एथी ए टीकार्नु बीजु नाम पाइय (प्राकृत) टीका तरीके वधारे प्रसिद्ध छे । केवल शांत्याचार्य ज नहि पण तेमना पछीना सैकामां थएला ए ज सूत्रना बीजा टीकाकार देवेंद्रगणिए पण ए पद्धतिनुं अनुसरण करी पोतानी टीकामां लांबी लांबी कथाओ प्राकृतमा ज गुंथी छ। ____ आ ऊपरथी आपणे जोई शकीए छीए के शीलोकाचार्यना समयमाटे प्रो. लॉयमान-अंकित कालक्रम सर्वथा साधकरूप मथी। तेम ज, आचारांग टीका प्रांते आवेली शक संवत् वाळी पंक्ति पण विविध पाठभेदो धरावती होवाने लीधे, जेम में प्रस्तावना पृष्ठ १४ ऊपर जणाव्युं छे, तेम अभ्रान्त गणी शकाय तेम नथी। पण ए आचारांग टीकावाली पंक्तिनुं समर्थन करे एवं जे एक बीजं प्रमाण हमणा मारी दृष्टिगोचर थयुं छे तेनी नोंध हुँ अहिं लऊ कुं: जैन साहित्य संशोधकना प्रथम भागना, २ जा अंकमां, बृहट्टिप्पनिका नामनी एक प्राचीन जैन ग्रंथ सूचि में प्रकट करी छे । ए सूचि लगभग ५०० वर्ष जेटली जूनी छे अने बहु गवेषणा पूर्वक तैयार करवामां आवी होय तेवी तेनी संकलना छ। ए सूचिना २८३ क्रमांक ऊपर शीलाचार्य रचित प्राकृत मुख्य महापुरुष चरिवनी नोंध छ। जेनी १०००० जेटली श्लोकसंख्या, अने ९२५ वर्षे रचना थएली लखी छे । मूलग्रंथ अद्यापि मारा मोवामां आव्यो नथी तेथी एना रचना-समयनो उल्लेख केवा प्रकारनो छे ते काई कल्पी शकाय तेम नथी; परंतु जो ए चरित्रकर्ता शीलाचार्य अने आचारांग अने सूत्रकृतांग टीकाकर्ता शीलाचार्य बन्ने एक ज होय तो, आचारांग टीकागत शक संवत् ७९८ वालो उल्लेख अवश्य सत्य होई शके छे । कारण के , शक संवत् ७९८ ए विक्रम संवत् ९३३ बराबर थाय छ; अने महापुरुष चरित्रनी रचनानी जे ९२५ नी साल बृहटिप्पनिकाकारे आपेली छे ते विक्रम संवतूनी गणत्री वाली ज होवी जोईए; कारण के, ए सूचिमा प्रायः सर्वत्र एज गणत्रीनो व्यवहार करवामां भाव्यो छे। 'तेथी ए बन्ने साल वच्चे मात्र ८ वर्षनो ज तफावत रहेतो होवाथी आ बन्ने कृतिओ-आचारांग टीका अने महापुरुष चरित्र-समकालीन जठरे छ। अने तेथी ए बग्नेना कर्ता शीलाचार्य एकज व्यक्ति हता, एम मानवें प्राप्त थाय छे। आ हकीकत ऊपरथी आचारांग टीकाकर्ता शीलाचार्यनो समय निर्णय थई शके छे; पण, विशेषावश्यक भाष्यटीका कर्ता कोट्याचार्य के जेमनुं नाम शीलांक पण कहेवामां आवे छे तेमनो तथा अणहिलपुर संस्थापक वनराजना गुरु तरीके प्रसिद्ध थएला शीलगुण के शीलांक नामना जे आचार्य छे तेमनो निर्णय तो मूल प्रस्तावनामां जणाव्या प्रमाणे अनिश्चित ज रहे छ । १ ए सूचिकारे आचारांग टीकानो रचना समय पण विक्रमसंवत्नी गणत्रीए गणी ९३३ वर्ष नो ज आष्यो छे-जुओ बृहट्टिप्पनिका, क्रमांक १ (३). Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥णमो समणस्स भगवओ महावीरस्स ॥ सिरि-जिणभद्द-खमासमण-विरइयं जी य क प्प-सु त्तं 2000000000000 कय-पवयण-प्पणामो वोच्छं पच्छित्तदाण-संखेवं । जीयव्यवहार-गयं जीयस्स विसोहणं परमं ॥१॥ संवर-विणिजराओ मोक्खस्स पहो, तवो पहो तासिं । तवसो य पहाणंगं पच्छित्तं, जं च नाणस्स ॥२॥ सारो चरणं, तस्स वि नेव्वाणं, चरण-सोहणत्थं च । पच्छित्तं, तेण तयं नेयं मोक्खत्थिणाऽवस्सं ॥ ३ ॥ तं दसविहमालोयण १ -पडिकमणोभय २-३ -विवेग ४ -वोस्सग्गे ५। तव ६ -छेय ७-मूल ८-अणवठ्ठया ९ य पारश्चिए १० चेव ॥४॥ १. करणिज्जा जे जोगा तेसुवउत्तस्स निरइयारस्स । छउमत्थस्स विसोही जइणो आलोयणा भणिया ॥५॥ आहाराइ-ग्गहणे तह बहिया निग्गमेसुऽणेगेसु । उच्चार-विहारावणि चेहय-जइ-वन्दणाईसु॥६॥ जं चऽन्नं करणिज्जं जइणो हत्थ-सय-बाहिरायरियं । अवियडियम्मि असुद्धो, आलोएन्तो तयं सुद्धो ॥७॥ कारण-विणिग्गयस्स य स-गणाओ पर-गणागयस्स वि य । उवसंपया-विहारे आलोयण-निरइयारस्स ॥८॥ २. गुत्ती-समिह-पमाए गुरुणो आसायणा विणय-भंगे। इच्छाईणमकरणे लहुस मुसादिन्न-मुच्छासु ॥९॥ अविहीह कास-जंभिय-खुय-वायासंकिलिट्ठ-कम्मेसु ।। कन्दप्प-हास-विगहा कसाय-विसयाणुसंगेसु ॥ १०॥ खलियस्स य सव्वत्थ वि हिंसमणावजओ जयन्तस्स । सहसाणाभोगेण व मिच्छाकारो पडिक्कमणं ॥११॥ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिणभद्द-खमासमण-विरइयं [गाथा १२-२६ आभोगेण वि तणुएसु नेह-भय-सोग-बाउसाईसु। कन्दप्प-हास-विगहाईएसु नेयं पडिक्कमणं ॥१२॥ ३. संभम-भयाउरावइ-सहसाऽणाभोगऽणप्प-वसओ वा। ___सव्व-वयाईयारे तदुभयमासंकिए चेव ॥ १३ ॥ दुचिन्तिय-दुम्भासिय-दुच्चेट्टिय-एवमाइयं बहुसो। उवउत्तो वि न जाणइ जं देवसियाइ-अइयारं ॥ १४ ॥ सव्वेसु वि बीय-पए दंसण-नाण-चरणावराहेसु । ___आउत्तस्स तदुभयं सहसकाराइणा चेव ॥ १५ ॥ ४. पिण्डोवहि-सेन्जाई गहियं कडजोगिणोवउत्तेण । पच्छा नायमसुद्धं सुद्धो विहिणा विगिश्चन्तो॥१६॥ कालद्धाणाइच्छिय-अणुग्गयत्थमिय-गहियमसढो उ । __ कारण-गहि-उव्वरियं भत्ताइ-विगिश्चियं सुद्धो॥१७॥ . गमणागमण-विहारे सुयम्मि सावज-सुविणयाईसु । नावा-नह-सन्तारे पायच्छित्तं विउस्सग्गो ॥ १८॥ भत्ते पाणे सयणासणे य अरिहन्त-समण-सेन्नासु। उच्चारे पासवणे पणवीसं होन्ति ऊसासा ॥१९॥ हत्थ-सय-बाहिराओ गमणाऽऽगमणाइएसु पणवीसं । पाणिवहाई-सुविणे सयमट्ठसयं चउत्थम्मि ॥२०॥ देसिय-राइय-पक्खिय-चाउम्मास-वरिसेसु परिमाणं । सयमद्धं तिनि सया पंच-सयऽहुत्तरसहस्सं ॥ २१ ॥ उद्देस-समुद्देसे सत्तावीसं अणुण्णवणियाए। . __ अटेव य ऊसासा पट्ठवण-पडिक्कमणमाई ॥ २२ ॥ ६. (१) उद्देसऽज्झयण-सुयक्खन्धंगेसु कमसो पमाइस्स । कालाइक्कमणाइसु नाणायाराइयारेसु ॥ २३ ॥ निविगइय-पुरिमद्वेगभत्त-आयंबिलं चणागाढे । पुरिमाई खमणन्तं आगाढे; एवमत्थे वि ॥ २४ ॥ सामन्नं पुण सुत्ते मयमायामं चउत्थमत्थम्मि। अप्पत्ताऽपत्ताऽवत्त-वायणुद्देसणाइसु य ॥ २५ ॥ कालाविसजणाइसु मण्डलि-वसुहाऽपमजणाइसु य । निव्वीइयमकरणे अक्ख-निसेजा अभत्तहो ॥ २६ ॥ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २७-४१] itt जीयकप्प-सुत्तं आगाढाणागाढम्मि सव्व-भंगे य देस-भंगे य। जोगे छट्ट-चउत्थं चउत्थमायम्बिलं कमसो ॥ २७॥ (२) संकाइएसु देसे खमणं मिच्छोवबूहणाइसु य । पुरिमाई खमणन्तं भिक्खु-प्पभिईण व चउण्हं ॥२८॥ एवं चिय पत्तेयं उवबूहाईणमकरणे जइणं । ___आयामन्तं निव्वीइगाइ पासत्थ-सड्डेसु ॥ २९ ॥ परिवाराइ-निमित्तं ममत्त-परिपालणाइ वच्छल्ले । ____साहम्मिओ त्ति संजम-हेउं वा सव्वहिं सुद्धो ॥ ३०॥ (३) एगिन्दियाण घट्टणमगाढ-गाढ-परियावणुद्दवणे । निव्वीयं पुरिमटुं आसणमायामगं कमसो ॥ ३१॥ पुरिमाई खमणन्तं अणन्त-विगलिन्दियाण पत्तेयं ।। पश्चिन्दियम्मि एगासणाइ कल्लाणयमहेगं ॥ ३२॥ मोसाइसु मेहुण-वजिएसु व्वाइ-वत्थु-भिन्नेसु। हीणे मझुक्कोसे आसणमायाम-खमणाई ॥ ३३ ॥ लेवाडय-परिवासे अभत्तट्ठो सुक्क-सन्निहीए य । इयराए छट्ठ-भत्तं, अट्ठमगं सेस-निसिभत्ते ॥ ३४ ॥ १ उद्देसिय-चरिम-तिगे कम्मे पासण्ड-स-घर-मीसे य । बायर-पाहुडियाए सपञ्चवायाहडे लोभे ॥ ३५॥ . अइरं अणन्त-निक्खित्त-पिहिय-साहरिय-मीसयाईसु। __संजोग-स-इंगाले दुविह-निमित्ते य खमणं तु ॥ ३६॥ २ कम्मुद्देसिय-मीसे धायाइ-पगासणाइएसुं च । पुर-पच्छ-कम्म-कुच्छिय-संसत्तालित्त-कर-मत्ते ॥ ३७॥ अइरं परित्त-निक्खित्त-पिहिय-साहरिय-मीसयाईसु । अइमाण-धूम-कारण विवजए विहिय मायामं ॥ ३८॥ ३ अज्झोयर-कड-पूइय-मायाऽणन्ते परंपरगए य। मीसाणन्ताणन्तरगया इए चे गमासणयं ॥ ३९ ॥ ४ ओह-विभागुद्देसोवगरण-पूईय-ठविय-पागडिए । लोउत्तर-परियट्टिय-पमिच्च-परभावकीए य ॥ ४० ॥ सग्गामाहड-ददर-जहन्न-मालोहडोझरे पढमे। सुहुम-तिगिच्छा-सन्थव-तिग-मक्खिय-दायगो वहए ॥ ४१ ॥ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IV १९३२ जिणभद-खमासमण-विरइयं [गाथा ४२-५६ पत्तेय-परंपर-ठविय-पिहिय-मीसे अणन्तराईसु । पुरिमई संकाए जं संकइ तं समावजे ॥४२॥ इत्तर-ठविए सुहुमे ससणिद्ध-ससरक्ख-मक्खिए चेव । __ मीस-परंपर-ठवियाइएसु बीएसु याविगई ॥४३॥ सहसाऽणाभोगेणव जेसु पडिक्कमणमभिहियं तेसु । आभोगओत्ति बहुसो-अइप्पमाणे य निविगई ॥४४॥ धावण-डेवण-संघरिस-गमण-किड्डा-कुहावणाईसु। उकुहि-गीय-छेलिय-जीवरुयाईसु य चउत्थं ॥ ४५ ॥ तिविहोवहिणो विचुय-विस्तारियऽपेहियानिवेयणए । निव्वीय-पुरिममेगासणाइ, सव्वम्मि चायामं ॥४६॥ हारिय-धो-उग्गमियानिवेयणादिन्न-भोग-दाणेसु। आसण-आयाम-चउत्थगाइ, सव्वम्मि छहं तु ॥४७॥ मुहणन्तय-रयहरणे फिडिए निव्वीययं चउत्थं च । __ नासिय-हारविए वा जीएण चउत्थ-छहाई ॥४८॥ कालद्धाणाईए निविइयं खमणमेव परिभोगे। अविहि-विगिश्चणियाए भत्ताईणं तु पुरिमटुं ॥ ४९ ॥ पाणस्सासंवरणे भूमि-तिगापेहणे य निविगई। सव्वस्सासंवरणे अगहण-भंगे य पुरिम९ ॥ ५० ॥ एयं चिय सामन्नं तवपडिमाऽभिग्गहाइयाणं पि । निव्वीयगाइ पक्खिय-पुरिसाइ-विभागओ नेयं ॥ ५१ ॥ फिडिए सयमुस्सारिय-भग्गे वेगाइ वन्दणुस्सग्गे। निव्वीइय-पुरिमेगासणाइ, सव्वेसु चायाम ॥ ५२ ॥ अकएसु य पुरिमासण-आयामं, सव्वसो चउत्थं तु । पुव्वमपेहिय-थण्डिल-निसि-वोसिरणे दिया सुवणे ॥५३॥ कोहे बहुदेवसिए आसव-ककोलगाइएसुं च ।। लसुणाइसु पुरिमटुं, तन्नाई-बन्ध-मुयणे य ॥ ५४॥ अझुसिर-तणेसु निव्वीइयं तु, सेस-पणएसु पुरिमहूं । __ अप्पडिलेहिय-पणए आसणयं, तस-वहे जं च ॥५५॥ ठवणमणापुच्छाए निव्विसओ विरिय-गृहणाए य । जीएणेकासणयं, सेसय-मायासु खमणं तु ॥५६॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माथा ५७-७१] जीयकप्प-सुतं दप्पेणं पश्चिन्दिय-चोरमणे संकिलिट्ठ-कम्मे य । दीहद्धाणासेवी गिलाण-कप्पावसाणे य ॥ ५७॥ सव्योवहि-कप्पम्मि य पुरिमत्ता पेहणे य चरिमाए। चाउम्मासे वरिसे य सोहणं पञ्च-कल्लाणं ॥ ५८॥ छेयाइमसद्दहओ मिउणो परियाय-गव्वियस्स वि य । छेयाईए वि तवो जीएण गणाहिवइणो य ॥ ५९॥ जं जं न भणियमिहइं तस्सावत्तीऍ दाण-संखेवं । भिन्नाइया य वोच्छं छम्मासन्ताय जीएणं ॥ ६०॥ भिन्नो अविसिट्ठो चिय मासो चउरो य छच्च लहु-गुरुया। निवियगाई अहमभत्तन्तं दाणमेएसि ॥ ६१ ॥ इय सव्वावत्तीओ तवसो नाउँ जह-कम समए । जीएण देज निव्वीइगाइ-दाणं जहाभिहियं ॥ ६२॥ एयं पुण सव्वं चिय पायं सामन्नओ विणिद्दिडं। दाणं विभागओ पुण दव्वाइ-विसेसियं जाण ॥ ६३ ॥ दव्वं १ खेत्तं २ कालं ३ भावं ४ पुरिस ५-पडिसेवणाओ ६ य । ___ नाउमियं चिय देजा तम्मत्तं हीणमहियं वा ॥ ६४॥ (१) आहाराई दव्वं बलियं सुलहं च नाउमहियं पि। देजा हि; दुब्बलं दुल्लहं च नाऊण हीणं पि ॥६५॥ (२) लुक्खं सीयल-साहारणं च खेत्तमहियं पि सीयम्मि । लुक्खम्मि हीणतरयं. (३) एवं काले वि तिविहम्मि ॥६६॥ गिम्ह-सिसिर-वासासुं देजष्टम-दसम-बारसन्ताई। नाउं विहिणा नवविह-सुयववहारोवएसेणं ॥ ६७ ॥ (४) हट-गिलाणा भावम्मि-देज हट्ठस्स, न उ गिलाणस्स। जावइयं वा विसहइ तं देज, सहेज वा कालं ॥ ६८॥ (५) पुरिसा गीयाऽगीया सहाऽसहा तह सढाऽसढा केई । परिणामाऽपरिणामा अइपरिणामा य वत्थूणं ॥ ६९॥ तह घिइ-संघयणोभय-संपन्ना तदुभएण हीणा य। आय-परोभय-नोभय-तरगा तह अन्नतरगा य ॥७॥ कप्पट्ठियादओ वि य चउरो जे सेयरा समक्खाया। सावेक्खेयर-भेयादओ वि जे ताण पुरिसाणं ॥ ७१ ॥ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिणभद्द - खमासमण - विरइयं जो जह-सन्तो बहुतर- गुणो व तस्साहियं पि देजाहि । ature हीणतरगं, झोसेज व सव्व-हीणस्स ॥ ७२ ॥ एत्थ पुण बहुतरा भिक्खुणो त्ति अकयकरणाणभिगया य । जन्तेण जीयममभत्तन्तं निब्बियाईयं ॥ ७३ ॥ (६) आउट्टियाइ दप्प-पमाय कप्पेहि वा निसेवेज्जा । दव्वं खेत्तं कालं भावं वा सेवओ पुरिसो ॥ ७४ ॥ जं जीय- दाणमुत्तं एवं पायं पमायसहियस्स । एतो चि ठाणन्तरमेगं वहेज्ज दप्पवओ ॥ ७५ ॥ आउट्टियाइ ठाणन्तरं च, सहाणमेव वा देजा । कप्पेण पडिक्कमणं तदुभयमहवा विणिद्दिहं ॥ ७६ ॥ आलोय - कालमिव संकेस - विसोहि भावओ नाउं । ही वा अहियं वा तम्मत्तं वा वि देजाहि ॥ ७७ ॥ इति दव्वाइ- बहु-गुणे गुरु- सेवाए य बहुतरं देजा । हीणतरे हीणतरं, हीणतरे जाव झोस त्ति ॥ ७८ ॥ झोसिज सुबहुं पि हु जीएणऽन्नं तवारिहं वहओ । antaraरस्स य दिजइ साणुग्गहतरं वा ॥ ७९ ॥ ७. तव-गव्विओ तवस्स य असमत्थो तवमसद्दहन्तो य । तवसाय जो न दम्मइ अइपरिणाम-पसंगी य ॥ ८० ॥ सुबहुत्तर-गुण-भंसी छेयावत्तिसु पसज्जमाणो य । पासत्थाई जो वि य जईण पडितपिओ बहुसो ॥ ८१ ॥ कोसं तव भूमिं समईओ सावसेस - चरणो य । छेयं पणगाईयं पावइ जा घरइ परियाओ ॥ ८२ ॥ ८. आउट्टियाइ पञ्चिन्दिय-घाए, मेहुणे य दप्पेणं । सेसेसुक्कोसाभिक्ख-सेवणाईसु तीसुं पि ॥ ८३ ॥ तव-गव्वियाइए य मूलत्तर-दोस - वइयर गए । दंसण- चरितवन्ते चियत्त - किचे य सेहे य ॥ ८४ ॥ अच्चन्तोन्नेसु य परलिंग- दुगे य मूलकम्मे य । भिक्खुम्मिय विहि तवे ऽणवट्ट- पारश्चियं पत्ते ॥ ८५ ॥ छेएण उ परियाए Sणवट्ट- पारश्चियावसाणे य । मूलं मूलात्तिसु बहुसो य पसज्जओ भणियं ॥ ८६ ॥ VI [ गाथा ७२-८६ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ८७ - १०१ ] जीयकप्प-सुतं ९. उक्कोसं बहुसो वा पट्ट-चित्तो वि तेणियं कुणइ । पहरइ जो य स पक्खे निरवेक्खो घोर - परिणामो ॥ ८७ ॥ अहिओ सव्वे व बहुसो पारश्चियावराहेसु । अणवट्टप्पा वत्तिसु पसजमाणो अणेगासु ॥ ८८ ॥ कीरइ अणवटुप्पो, सो लिंग १- क्खेत्त २-कालओ ३- तवओ४ । (१) लिंगेण दव्व-भावे भणिओ पव्वावणाऽणरिहो ॥ ८९ ॥ अप्पडिविरओ-सन्नो न भाव-लिंगारिहोऽणवटुप्पो । (२) जो जत्थ जेण दूसइ पडिसिद्धो तत्थ सो खेत्ते ॥ ९० ॥ (३) जत्तियमित्तं कालं. (४) तवसा उ जहन्नएण छम्मासा । संवच्छरमुकोसं आसायइ जो जिणाईणं ॥ ९१ ॥ वासं बारस वासा पडिसेवी, कारणेण सव्वो वि । थोव धोक्तरं वा वहेज्ज, मुश्चेज वा सव्वं ॥ ९२ ॥ वन्दह न य वन्दिज्जइ, परिहार-तवं सुदुच्चरं चरइ | संवासो से कप्पर, नालवणाईणि सेसाणि ॥ ९३ ॥ १०. तित्थयर-पवयण- सुयं आयरियं गणहरं महिड्डियं । आसायन्तो बहुसो आभिणिवेसेण पारची ॥ ९४ ॥ जो स-लिंगे दुट्ठो कसाय विसए हिं राय - वहगो य । रायग्गमहिसि -पडि सेवओ य बहुसो पगासो य ॥ ९५ ॥ द्धि-महादोसो अन्नोऽन्नासेवणापसत्तो य । चरिमाणावत्ति बहुसो य पसज्जए जो उ ॥ ९६ ॥ सो कीरs पारची लिंगाओ १-खेत्त २-कालओ ३- तवओ य ४ । (१) संपागड-पडि सेवी लिंगाओ थीणगिद्धी य ॥ ९७ ॥ (२) वसहि-निवेसण - वाडग- साहि-निओग-पुर-देस - रज्जाओ । खेत्ताओ पारची कुल-गण-संघालयाओ वा ॥ ९८ ॥ जत्थुपपन्नो दोसो उपज्जिस्सइ य जत्थ नाऊणं । ततो तत्तो कीरइ खेत्ताओ खेत्त-पारची ॥ ९९ ॥ (३) जत्तिय - मेत्तं कालं. (४) तवसा पारश्चियस्स उ स एव । कालो दु-विगप्पस व अणवट्टप्पस्स जोऽभिहिओ ॥ १०० ॥ गागी खेत- बहिं कुह तवं सु-विउलं महासत्तो । अवलोयणमायरिओ पइ-दिणमेगो कुणइ तस्स ॥ १०१ ॥ VII Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VIII जिणभइ-खमासमण-विरइयं [गाथा १०२-१०३ अणवठ्ठप्पो तवसा तव-पारश्ची य दो वि वोच्छिन्ना। चोदस-पुव्वधरम्मी, धरन्ति सेसा उ जा तित्थं ॥१०२॥ इय एस जीयकप्पो समासओ सुविहियाणुकम्पाए। कहिओ, देयोऽयं पुण पत्ते सुपरिच्छिय-गुणम्मि* ॥ १०३ ॥ ॥ सिरि-जिणभद्द-खमासमण-विरइयं जीयव्यवहार-कप्प-सुत्तं समत्तं ॥ *प्रत्यन्तरे सूत्रपाठे १०६ गाथा लिखिता उपलभ्यते । तत्र वत्तणुवत्तपवत्तो बहुसो आसेविओ महाणेण । एसो उ जीयकप्पो पञ्चमओ होइ नायव्यो । -इयं गाथा प्रथमगाथाऽनन्तरम्, अप्पा मूलगुणेसुं विराहणा अप्प उत्तरगुणेसु । अप्पा पासत्थाइसु दाणग्गहसंपओगाहा ॥ -इयं गाथा अष्टमगाथाऽनन्तरम् , सोलस उग्गमदोसा सोलस उप्पायणा य दोसाओ। दस एसणाए दोसा संजोयणमाइ पंचे व ॥ -इयं गाथा चतुस्त्रिंशत्तमगाथाऽनन्तरं च लिखिता सन्दृश्यते । एतद् गाथात्रितयं ग्रन्थान्तरगतं न तु प्रकृतसूत्रकारकृतं चूादिव्याख्याकृद्भिस्तथैव सूचितत्वात् । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो त्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स सिद्धसेणसूरिकया जी य क प्प-चु ण्णी 15 सिद्धत्थ-सिद्ध-सासण सिद्धत्थ-सुयं सुयं च सिद्धत्थस्स। वीर-वरं वर-वरयं वर-वरएहि महियं नमह जीव-हियं ॥१॥ एक्कारस वि गणहरे दुद्धर-गुण-धारए धराहिव-सारे। जम्बु-प्पभवाईए पणमह सिरसा समत्त-सुत्तत्थ-धरे ॥२॥ दस-नव-पुव्वी अइसेसिणो य अवसेस-नाणिणो य जत्तेणं'। सव्वे वि सव्व-कालं तिगरण-सुद्धेण नमह जइ-गुण-प्पवरे ॥३॥ एत्तो नेव्वाणगं नेव्वाणं गमयतीति निव्वाणंगे। 10 पगयं पसत्थ-वयणं पहाण-वयणं च पवयणं नमह सया ॥४॥ नमह य अणुओग-धरं जुग-प्पहाणं पहाण नाणीण मयं । सव्व-सुइ-सस्थ-कुसलं दसण-नाणोवओग-मंग्गम्मि ठियं ॥ ५॥ जस्स मुह-निज्झरामय-मय-वस-गन्धाहिवासिया इव भमरा । नाण-मयरन्द-तिसिया रत्ति' दिया य मुणिवरा सेवन्ति सया ॥ ६॥ स-समय पर-समयागम-लिवि-गणिय-च्छन्द-सद्द-निम्माओ। दससु वि दिसासु जस्स य अ णु ओ गो भमइ अणुवमो जस-पडहो ॥ ७॥ नाणाणं नाणीण य हेऊण य पमाण-गणहराण य पुच्छा। अविसेसओ विसेसा विसेसियाऽऽव स्स य म्मि अणुवम मइणा ॥ ८॥ जेण य छे य सु य त्था आवत्तीदाण-विरयणा जत्तेणं। 20 पुरिस-विसेसेण फुडा निजूढा जी य दा ण क प्प म्मि विही ॥९॥ पर-समयागम-निउणं सुसमिय-सु-समण-समाहि-मग्गेण गयं । जिण भ ६ ख मा स म णं खमासमणाणं" निहाणमिव एकं ॥१०॥ तं नमिउं मय-महणं माणरिहं लोभ-वज्जियं जिय-रोसं। तेण" य जीय-विरइय-गाहाणं विवरणं भणिहामि जहत्थं ॥ ११॥ को वि सीसो विणीओ आवस्सय-दसकालिय-उत्तरज्झयणा-ऽऽयार-निसीह-सूयगड-दसाकप्प-ववहार माइयं अंग-पविढं बाहिरं च सुत्तओ अत्थओ य अहिजिऊण गुरुमुवगम्म अणुजाणावेऊण बारसावत्त कय-किइकम्मो पायवडिओ ठिओ कर-यल-जुयलं मत्थए ठवेडं विनवेइ-'भगवं! कप्प ववहार-कप्पियाकप्पिय चुल्लकप्प-महाकप्पसुय-निसीहाइएसु छेद-सुत्तेसु अइ-वित्थरेण पच्छित्तं भणियं । पइ दिवसं च तेण असमत्थो विसोहिं काउं। मइ-वामोहो य मे भवइ अन्नन्न"-गन्थेसु । नाणाइयारेसु आवत्ती का, कम्मि वा कं दाणं दिजइत्ति । 1 B वरदं। 2 B जत्तेण। 3 B पव०। 4 B निव्वा०। 5 B सदा। 6 B बहु-मयं । 7 Bरति च। 8 B. ओगे। 9 B हेऊणं य। 10 B विसेसे य। 11 B ०समणनिः । 12 B तेणे। 13 B भवति। 14 B अन्नोन्न। 15 B. न्थे सु य। 16 Aणातियारे । 25 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धसेनसूरिकया [गाथा १. एवं वियाणिऊण, जहा अपरिमूढो अप्पणो परस्स य अइयार-विसोहिं करेमि, तहा पसायं करेह' त्ति । तओ गुरुणा बहु-स्सुय-चिर-पव्वइय-कप्पियाइएहिं गुणेहिं संजुत्तं अप्पत्तापत्त-वत्त-तिन्तिणिय-चल-चित्तादि-दोस-विरहियं च नाऊण 'जी य व व हा र स्स एस जोगो'त्ति गुरुणा भण्णए' 'सुण भव्व सत्ता! असुह-कम्म-मल-मइलियस्स परम-विसोहणं जी य व व हारे' ति। 5 बहु-विग्याणि सेयाणि; इमं च सत्थं परम-सेयं । तेण कय-मंगलोवयारेहिं सत्थमारमेयव्वं । तं च आर परभमाणो गरू मंगलत्थं भणइ-'कयपवयण' इच्चाई। पगय-वयणं ति वा, पहाण-वयणं ति वा, पसत्थ-वयणं ति वा-पवयणं । पवुच्चन्ति तेण जीवादयो पयत्था इति पवयणं । तहिं वा अहिगरण-भूए। पवदतीति पवयणं-चउन्विहो संघो। पइट्ठ-वयण ति वा-तदुवओगाण पण्णत्ताओ संघो त्ति जं भणियं होइ। जेण तं सुयं, तम्मि पइट्ठियं, अणण्णं-तदुवओगाओ त्ति। 10 तं च सामाइयाइ-बिन्दुसार-पवजसाणं अंगाणंगपविटुं सव्वं सुय-नाणं पवयणं ति । पणमणं पणामो, पूया इति एगट्टियं । कओ पवयण-प्पणामो जेण सोहं कय-पवयण-प्पमाणो। वोच्छंभणामि । पावं छिन्दन्तीति पायच्छित्तं । चित्तं वा जीवो भण्णइ । पाएण वा वि चित्तं सोहइ अइयार-मल-मइलियं, तेण पायच्छित्तं। पायए चकारस्स छकारो लक्खणिओ। तस्स पायच्छित्तस्स दाणं । तस्स संखेवं संगह। जीय-ववहारकयं । जीयस्सेत्ति वत्तणुवत्त-पवत्तो बहुसो आसेविओ 15 महाजणेण' जीय-ववहारो भण्णइ । तेण जीय-ववहा वा । जीय-ववहारगयं वा, अणुपविटुं ति भणियं होइ । जीव पाण-धारणे । जम्हा जीविंसु जीवन्ति जीविस्सन्ति तम्हा जीवेत्ति वत्तव्वं सिया। सव्व-कालमुवओग-लक्खणत्तणओ जीवो। तस्स जीवस्स विसे सेण सोहणं । किं कओ विसेसो?। अन्ने वि मरुयादीया पायच्छित्तं देन्ति थूल-बुद्धिणो जीव-घा यम्मि कत्थइ सामन्नण; ण पुण संघट्टण-परितावणोद्दवण-भेएण सव्वेसिमेगिन्दियाईणं तस पजवसाणाणं दाउं जाणन्ति । उवएसो वा तेसिं समए एरिसो नत्थि । इह पूण सासणे सव्व मथि त्ति काउं विसेसेण सोहणं भण्णइ । जहा य पलास-खारोदगाइ वत्थ मलस्स सोहणं, तहा कम्म-मल-मइलियस्स जीवस्स जीय-ववहार-निहिटुं पायच्छित्तं । परमं-पहाणयं, पगिट्टः मिति वा । न अण्णत्थ एरिसं ति जं भणियं होइ। ___ एत्थ सीसो भणइ-'अण्णे वि किमत्थि ववहारा, जेण विसेसिज्जइ-जीयववहार-गयं ति?। विसेसणं च सह संभवे वभिचारे वा कजइ।' गुरू भणइ-'आमं, अण्णेवि चत्तारि ववहारा अत्थि; तंजहा [१] आगम-[२] सुय-[३] आणा-[४] धारणा; पुव्वाणु-पुवीए जीयवव हारो एएसिं पञ्चमो।' सीसो भणइ-'आगम-ववहाराईणं जीयववहार-पजवसाणाणं को पद विसेसो?।' गुरू भणइ। [१] आगम-चवहारिणो छजणा; तं-जहा केवल-मण-ओहिणाणीचोद्दस-दस-नव-पुन्वी एए 30 [२] सुय-ववहारो पुण अवसेस-पुव्वी एक्कारसंगिणो आकप्प-ववहारा अवसेस-सुए य अहिगय-सुत्तत्था सुय-ववहारिणो त्ति। __ [३] आणा-ववहारो-गीयायरिया आसेविय-सत्थत्था खीणजंघा-बला दो वि जणा पगिट्ठदेसन्तर-निवासिणो अन्नोन्न-समीवमसमत्था गन्तुं जया, तया मइ धारणा-कुसलं अगीयत्थसीसं गूढत्थेहिं अइयार-पयासेवणेहिं पेसेइ त्ति । जहासे पढमस्स य कजस्स पढमेण पएण सेवियं जं तु । पढमे छक्के अब्भन्तरं तु पढम भवे ठाणं ॥ पढमस्स य कजस्स पढमेण पएण सेवियं होजा । पढमे छक्के अब्भन्तरं तु सेसेसु वि पपसु॥ 1A भन्नए। 2 B सज्ञकपुस्तकेऽत्र समग्रा गाथा लिखिताऽस्ति । एवमग्रेऽपि समग्र-ग्रन्थे ज्ञेयम् । 3A एगट्ट। 4 B५ वच्छि.। 5A पाइए। 6A सर्वत्र 'जीत' इत्येवं उपलभ्यते। 7 B महाणेण। 8Aपेसित्ति। 9 B होज्जा। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १.] जीयकप्प-चुण्णी 15 पढमस्स य कजस्स पढमेण पएण सेवियं होजा । बिइए छक्के अब्भन्तरं तु पढमं भवे ठाणं॥ पढमस्स य कजस्स पढमेण पएण सेवियं होजा । बिइए छक्के अब्भन्तरं तु सेसेसु वि पएसु॥ पढमस्स य कजस्स पढमेण पएण सेवियं होजा। तइए छक्के अब्भन्तरं तु पढमं भवे ठाणं ॥ पढमस्स य कजस्स पढमेण पएण सेवियं होजा । तइए छक्के अब्भन्तरं तु सेसेसु वि पएसु॥ एवं पढमममुञ्चन्तेण बिइय-तइयमाइ जा दसमं । पुढविक्काइयाईसु पुणो वि उच्चारणियाई ॥ 5 बिइयस्स य कजस्स पढमेण पएण सेवियं होजा । पढमे छक्के अब्भन्तरं तु पढमंभवे ठाणं॥ एवं बिइयस्स वि। एयाए चेव परिवाडीए सव्वाओ गाहाओ भाणियव्वाओ। पढमं ठाणं दप्पो दप्पो च्चिय तस्स वी भवे पढमं । पढमं छक्क व्वयाइं पाणॉइवाओतहिं पढमं। ' एवं तु मुसावाओ अदत्त-मेहुण-परिग्गहो चेव । विइ-छक्के पुढवाई तइ-छक्के होन्ति कप्पाइं ॥ एवं दप्प-पयम्मी दप्पेणं चारियाई अट्ठरस । एवमकप्पाईसु वि एक्केके होन्ति अट्टरस॥ 10 बिइयं कजं कप्पो पढमपयं तत्थ दसणणिमित्तं । पढमे छकिवयाइं तत्थ उ पढमं तु पाणवहो॥ दसणममुयन्तेणं पुव्वकमेणेव चारणिजाणि । अट्ठारस ठाणाई एवं नाणाइ एकेके ॥ चउवीसवारसया एवं एए भवंति कप्पम्मि। दस होन्ती दप्पम्मी सव्वसमासे य मुण संखं॥ दुविहा पडिसेवणा-दप्पिया, कप्पिया य । दप्पिया दसविहा । तं-जहा ___ दप्प अकप्प निरालम्ब चियत्ते अप्पसत्थ वीसत्थे। ___ अपरिच्छिय'-ऽकडजोगी निरणुतावीय णिस्संको॥ तत्थ दप्पो-धावणडेवणाई । अकप्पो जं अविहीए' सेवइ । निरालम्बो-आलम्बणरहिओ सेवइ। चियत्ते त्ति-संजमाहिकारियाणि छड्डेऊण सेवइ, स त्यक्तकृत्यः। अप्पसत्थेत्ति" अप्रशस्तेन भावेन सेवइ । वीसत्थो-इहलोग-परलोगस्स न भायइ । अपरिच्छियत्ति-कजाकजाई अपरिक्खि सेवइ । अकडजोगी-जोगं अकाऊण सेवइ । निरणुतावी-जो अकिञ्चं 20 काऊण नाणुतप्पइ; जहा मए दुडु कयं। णिस्संको-जो निस्संकितो सेवइ । एसा दप्पिया ॥ कप्पिया चउवीसविहा; तं-जहादसणनाणचरित्ते तवसंजमसमिइगुत्तिहेउं वा । साहम्मियवच्छलत्तणेण कुलओ गणस्सेव ॥ संघस्सायरियस्स य असहुस्स गिलाणबालवुड्डस्स। उदयग्गिचोरसावयभय कन्तारावई वसणे ॥ 25 एएहिं कारणेहिं जो पडिसेवेइ सा कप्पिया पडिसेवणा। 'किं पुण पडिसेवियव्वं ।' 'इमाई अट्ठारस पयाई ।' तं-जहा वयछक-कायछक्कं अक्कप्पो गिहिभायणं । पलियंकनिसेजा य" सिणाणं सोभवजणं ॥ सव्वसमासे य मुण"सु संखं १८० दप्पिया, कप्पिया ४३२॥ सोऊण तस्स पडिसेवणं तुआलोयणं कम्म विहिं च।आगमपुरिसजायं परियायवलं च खेत्तंच॥ 30 अवधारेउं सीसो गंतूण य सो तओ गुरुसगासे । तेसि निवेएइ तहा जहाणुपुब्वी तयं सव्वं ॥ सो ववहारविहिन्न अणुमजित्तासुओवएसेणं । सीसस्स देइ आणं तस्स इमं देइ पच्छित्तं ॥ पढमस्स य कजस्स दसविहमालोयणं निसामेत्ता। नक्खत्ते में पीला सुक्के मासे तवं कुणह ॥ पढमस्स य कजस्स दसविहमालोयणं" निसामेत्ता।नक्खत्ते मे पीला चाउम्मासे तवं कुणह॥ 1B पढम। 2 B निमित्तं। 3 B पढमेक। 4A मसुयः। 5A एकेके। 6 B हवः। 7 B ०पडिच्छि०। 8 A अकड। 9 B विहीए। 10 A चित्तयत्तः। 11 A सत्योति। 12 B .ऊणं। 13 A नीसंको। 14 A एस। 15 A रुय। 16 B •राडवीव० । 17 A जाविय। 18 B सुणसु । 19 A व्यणकम्म। 20 A व्याग ब० । 21 B •मजिय तं । 22 Aओसेण। 23 B कजस्सा। 24 A.ह आ.। 25 A मासं। 26Aमासं । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धसेनसूरिकया [गाथा १. पढमस्स य कजस्स दसविहमालोयणं निसामेत्ता । नक्खत्ते में पीला छम्मासतवं कुणह सुक्के॥ एवं ता उग्घाए' अणुघाए ताणि चेव कण्हम्मि।मास चउमास छ मासियाणि च्छेदं अओ वोच्छं ॥ छिन्दन्तु तयं भाणं गच्छन्तु तवस्स साहुणो मूलं। अव्वावडावगच्छे अधीश्या वावि विहरन्तु ॥ छन्भागंगुल पणए दसभाए ति भाग अट्ठपन्नरसे। वीसाए तिभागूणं छब्भागूणं तु पणवीसे ॥ 5 मास चउमास छक्के अंगुल चउरो तहेव छकं तु । एए छेयविभागा णायव्वाऽहक्कमेणं तु ॥ बिइयस्स यकजस्स ताहय चउवासय निसामेत्ता। आउत्त नमोकारा हवंतु एवं भणिजाहि ॥ एवं नाऊण तहिं जहोवएसेण देइ पच्छित्तं । आणाए एस भणिओ ववहारो धीरपुरिसेहिं ॥ एवं सो आयरिओ व्वखेत्तकालभावसंघयणधिइ बलाइयं च परिपुच्छिऊण सयं गमणं, सीसं वाऽगीयत्थं पेसेइ; अविजमाणे वा तस्सेव पेसवितस्स निगूढमेव अतिचारविसोहिं पेसेइ। 10 [४] धारणाववहारो संविग्गेण गीयत्थेणायरिएणं दव्वखेत्तकालभावपुरिस"पडिसेव णासु अवलोएऊण जम्मि जं अवराहे दिन्नं पच्छित्तं तं पासिऊण अन्नो वि तेसु चेव व्वाइएसु तारिसावराहे तं चेव पच्छित्तं देइ; एस धारणाववहारो । अहवा वेयावच्चगरस्स गच्छोवग्गहकारिणो फड्डगपइणो वा संविग्गस्स देसदरिसणसहायरस वा बहुसो पडितप्पियस्स अवसेस सुयाणुओगस्स उचियपायच्छित्तट्ठाणदाणधारणं धारणाववहारो भन्नइ । 15 [५] पंचमो जीयववहारो-सो पुण दव्वखेत्तकालभावपुरिसपडिसेवणाणुवत्तिं सरीर संघयणधीबलपरिहाणिवावेक्खिऊण तहा पायच्छित्तदाणं जीयं"; जो वा जम्मि गच्छे केणइ कारणेण सुयाइरित्तो पायच्छित्त-विसेसो पवत्तिओ अन्नेहिं य बहूहिं अणुवत्तिओ नय पडिसिद्धो। भणियं च वत्तणुवत्तपवत्तो बहुसो आसेविओ महाणेण । एसो उ जीयकप्पो पंचमओ होइ ववहारो॥ 20- जीयं ति वा करणिजं ति वा आयरणिज ति वा एगटुं । जीवेइ वा तिविहे वि काले तेण जीयं । सुत्ताओ पुण हीणं समं अइरित्तं वा जीयदाणमिति । पंचसु वि पुण ववहारेसु विजमाणेसु आगमेण ववहारं ववहरेजा, न सेसेहि। एवं सुएणं, आणाए, धारणाए, जाव जीयववहारेणं । पुग्विल्लेहिं ववहारं ववहरेजा न सेसेहिं ति । किं कारणं? आगमववहारी अइसइणो संकिलिस्समाणं विसुज्झमाणं अवट्ठियपरिणामं वा पञ्चक्खमुवलभन्ति, तावइयं च से दिन्ति 25 जावइएण विसुज्झइ; सुत्तभणियाओ अहियं ऊणं तम्मत्तं वान सुयमणुवत्तए। जे पुण सुयववहारी ते सुयमणुवत्तमाणा इंगिआगार-वत्त-णेत्त-वयण-विगाराइएहिं भावमुवलक्खिऊण तिक्खुत्तो अइयारं आलोयावेऊण तं-जहा-सुओवएसेण पलिउश्चियमपलिउञ्चियं वा आलोयणाकाले जं जहा आलोएज्जा तं तहा सुओवएसेण ववहरन्तीति। एस सुयववहारो।" सुयाभावे आणाए वव. हारं ववहरेजा। आणाववहारो वि सुयववहाराणुसरिसो केवलं "निगूढाइयारविसेसेण विसे30 सिओ। धारणाववहारो वि सुयववहाराणुसरिसो, केवलं सुओवएसेण उचियपयाणं वेयावच्च कराईणमणुग्गहत्थो विसेसिओ। सुयववहारेगदेसो धारणाववहारो त्ति। धारणाणन्तरं जीयववहारो। सव्वत्थ य जीयववहारोऽणुवत्तए । दवखेत्तकालभावपुरिसपडिसेवणाधिइसंघयणा 1 B तावुग्घा०। 2 Bछेयं । 3 B इता। 4 B यंगु०। 5 B •णगे। 6A राते। 7 A पणुवी। 8 B •णेजा। 9 .णितो। 10 A ०यणइ०। 11 A रिसं। 12 Aणाय । 13 B ०करस्स। 14 B उचित। 15 •B तहा तहा। 16 B पच्छित्त। 17 A जीतं । 18 B 'य'नास्ति । 19 B जीवति। 20 A जीतं। 21 A जीतः। 22 B सेस एहिं। 23 B देइ। 24 B विका०। 25 B लक्खे। 26 A सुत्तः। 27 A सुत्ता। 28 Aढाविया। 29 A विसेसण। 30 B .सितो । 31 Aणुचिय। 32A .कराणुगहत्थ । 33 B गएसो। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २-३.] जीयकप्प-चुण्णी वत्तिरूवं' परूवेऊण पंचविहववहारमझे जीयववहारेण पगयं । जेण सो सावेक्खो चिरं 'चाणुवत्तिस्सतीति । २. 'संवरविणिजराओ' इच्चाइ । एईसे गाहाए सम्बन्धो। सीसो भणइ-'सम्मदसणनाणचरणसंवरविणिजरतवपयत्था पहाणा, ते सव्वे वि मोत्तुं तवेगदेसं पायच्छित्तं वक्खागेउमुजया किमत्थं तुब्भे त्ति ?' । आयरिओ भणइ-पारंपरिएण चरणपयत्थस्स विसो- 5 हिकारणं पायच्छित्तं । चरणविसुद्धीए य कसिणकम्मपडलुब्वेल्लणाणन्तरं अव्वाबाहेकंतिपञ्चंतिय-परमसमसुहलक्खणो मोक्खो संपाविजइ त्ति काउं पायच्छित्तमेव भण्णइ ।' संवरणं संवरं ढक्कणं पिहाणं ति एगट्ठा। विसेसेण निजरणं विणिजरणं । विणिजरा सोहणमिति एगटुं। संवरणं नवस्स कम्मस्स अणायाणं' । णिज्ञराए पुचोवचियसुहासुहकम्मपोग्गलपरिसाडो। महवा विसेसियं भण्णइ-मिच्छादसणाविरइकसायपमायजोगनिरोहो संवरो । कहं ?।10 मिच्छत्तावरोहेणं सम्मत्तपडिवत्तीए मिच्छत्तनिमित्तासवनिमित्तकम्मणो संवरणं कयं भवइ । वं विरइपडिवत्तीए अविरइपञ्चयं कम्मं पञ्चक्खायं भवइ । तहा कसायविवजणेण तन्निमित्तयं कम्मं वजिय होइ।तहा इन्दिय-विगहा" निहा-मज-पमायासव-निरोहदारेण तप्पच्चयस्स कम्मणो रोहो कओ भवइ । धावण वग्गण-डेवण-लंघण-फोडणाइ-असुह-चेट्टा-निवित्तीए कायजोगासपलद्धपवेसस्स कम्मुणो निरोहोभवइ। तहा हिंस-फरसा-लिय-पिसुण-असब्भूय-डंभ-सढ छलाइ"-15 पायानिरोहेण तप्पञ्चयं कम्मं पञ्चक्खायं होइ । तहा ईसा-ऽमरिस-भय-सोग-मिच्छाभिसंधाणराग-दोसाकुसल-संकप्पाइनिरोहेण तन्निमित्तं कम्मं वजिय होइ। निजरापुण गुत्ति-समिइ-समगधम्म-भावणा-मूलगुण- उत्तरगुण-परीसहोवसग्गाहियासणरयस्स भवइ। गुत्ती तिविहा मणाइ। समिद पंचविहा इरियाइ । समणधम्मो दसविहो खमाइ । भावणा दुवालसविहा अणिच्चाइ । मूलगुणा पंचविहा पाणाइवायाइ निवित्ती"। उत्तरगुणा पिंडविसुद्धिमाइया" । परीसहा बावीसं 20 छुहाइया । उवसग्गा सोलस । हासा पदोसा वीमंसा पुढोवेमाया दिव्वा एए । हासा पदोसा वीमंसा कुसीलपडिसेवणा एए" माणुसा। भया पदोसा आहारहेऊ अवच्चलेण सारक्खणया एए तेरिच्छा। घट्टणया थंभणया लेसणया पवडणया एए आयसंचेयणिया। सो य संवरो दुविहो-देसे सव्वे य । निजरा वि दुविहा देसे सब्वे य । जोगनिरोहकाले सेलेसि-पडिवन्नस्स दुचरिमचरिमसमए सव्वसंवरो सव्वनिजरा य । सेसकाले देससंवरो देसनिजरा य । एवं 25 'संवरविणिजराओ' उभयमवि 'मोक्खस्स पहो' मग्गो हेऊ मोक्खकारणं मोक्खमग्गोत्ति । 'तासिं' पुण संवरविणिजराणं 'तवो पहो' हेऊ कारणं ति । तस्स य 'तवस्स पहाणमंगं पच्छित्तं', जेण पच्छित्ते दुवालसविहो वि तवो अणुवत्तइ । तवस्स कारणं पहाणं पच्छित्तं । तवो कारणं संवरविणिजराणं । संवरविणिजराओ मोक्खस्स कारणमिति । 'जं च नाणस्से त्ति उत्तरगाहाए सह संबज्झए । 30 ३. 'सारो चरणमिच्चाइ' गाहा । सामाइयाइयस्स बिन्दुसारपजवसाणस्स नाणस्स 'सारो चरणं'। चरणस्स पुण णिव्वाणं सारो। निव्वाणस्ल अणंतरकारणं चरणं, कारणकारणं नाणं । चरणस्स कारणं नाणमणंतरं । नाणाओ चरणं; चरणाओ निव्वाणं ति । नाणविसुद्धीए चरण 1A पडिसेवणावत्ति। 2A वाणु । 3A वत्तइस्सत्ति। 4 BOज्जुया। 5A रितो । 6 B पिहणं। 7 A दाणं। 8 B कम्ममलपरिसाडो। 9 A .कंमणो। 10 B हवइ। 11 A विकहा। 12 B छलादि। 13 B संधारण । 14 Boकुल। 15 A इयराइ। 16 A •त्तीओ। 17 B पिंडसुद्धिमादीया। 18 Bछुहातीता। 19 A एते। 20 A हेडं। 21 B क्खहे। 22 A नास्ति। 23 Boज्झइ। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwmwww सिद्धसेनसूरिकया [ गाथा ४-५. विसुद्धी, चरणविसुद्धीए निव्वाणफलावत्ती भवइ' । चरणविसुद्धी पुण पच्छित्ताहीणा। अओ निव्वाणचरणऽस्थिणा पच्छित्तं 'नेयं' जाणियव्वं अवस्सं भवइ । ४. 'तं दस-विह'मिच्चाइ। तमिति अणन्तरगाहानिद्दिष्टुं पच्छित्तं सव्वनामसद्देण सम्बज्झइ। 'तं' पच्छित्तं 'दसविहं' दसमेयं दसविकप्पं । तं-जहा-आलोयणारिहं, पडिक्कमणारिहं, 5 तदुभय-विवेगोसग्गारिहं, तवारिहं, छेयारिहं, मूलारिहं, अणवट्टप्पारिहं, पारंचियारिहं चेति । तत्थ य आलोयणारिहं-आ मजायाए वट्टइ । का सा मजाया? जह बालो जंपंतो कजमकजं च उजुओ भणइ । तं तह आलोएज्जा माया-मय-विप्पमुक्को उ॥ एसा मजाया। आलोयणं पगासीकरणं समुदायत्थो। गुरुपञ्चक्खीकरणं मजायाए । जंपावं आलोइयमेत्तेणं चेव सुज्झइ, एयं आलोयणारिहं । १। पडिकमणारिहं-जंमिच्छादुक्कडमेत्तेण 10 चेव सुज्झइ न आलोइजद; जहा सहसा अणुवउत्तेणं खेलसिंघाणाइयं परिवियं नय हिंसाइयं दोसमावन्नो तत्थ मिच्छादुक्कडं भणइ, एयं पडिक्कमणारिहं ।२। तदुभयारिहं-जं पडिसेविय गुरुणो आलोइजइ, गुरुसंदिट्ठोय पडिक्कमइ त्ति पच्छा मिच्छा' दुक्कडं ति भणइ, एयं तदुभयारिहं । ३। विवेगारिहं-विगिंचमाणो विहीए तमइयारं सोहेइ जत्थ, एयं विवेगारिहं।४। विउसग्गारिहं-जंकायचेट्टानिरोहोवओगमेत्तेण चेव सुज्झइ, जहा दुस्सुमणाइयं, एयं विउस15 ग्गारिहं । ५। तवारिहं-जम्मि पडिसेविए निव्वीयाइओ छम्मासपजवसाणो तवो दिजइ, एयं तवारिहं।६।छेयारिहं-जम्मिय पडिसेविए संदूसियपुवपरियायदेसावछेयणं' कीरइ,नाणाविहवाहिसं दूसियंगोवंगछेयणमिव सेससरीरावयवपरिपालणत्थं, तहेहावि सेसपरियायरक्खणत्थं, एयं छेयारिहं।।मलारिहं-जेण पडिसेविषण पणो महव्वयारोवणं निरवसेसपरियायावणयणा णन्तरं कीरइ, एयं मूलारिहं । ८। अणवट्टप्पारिहं-जम्मि पडिसेविए उवट्ठावणा अजोगो, कंचि 20 कालं न वएसु ठाविजइ जाव पइ विसिट्टतवो न चिण्णो, पच्छा य चिण्णतवो तद्दोसोवरओ वएसुठाविजइ एयं अणवट्टप्पारिहं।९।पारंचियारिहं-अञ्च गइ-पूयणेसु, पारं अञ्चइ तवाईणं जम्मि पडिसेविए लिंगखेत्तकालविसिटाणं, तं पारंचियारिहं । १० । एस संखेवओ पिण्डत्थो दसण्ह वि पयाणंभणिओ।सटाणे सट्टाणे वित्थरेण विभासियव्वो। एएहिं चेव पएहि विवरिपहि जीयववहारो समप्पइ । संपयं जहकम-निद्दिट्टाणं दसण्ह वि पयाणं विवरणं भण्णइ कमेण चेव । 25 ५. तत्थ पढमं पयं 'आलोयण'त्ति । तस्स" सरूव निरूवणथं गाहा 'करणिजा जे जोगा' इच्चाइ । 'करणिजा' नाम अवस्स-कायव्वा । 'जे' इति अणिहिट्टणिद्देसो । 'जोगा' इति किरियाओ सुओवइट्ठाओ संजमहेउगाओ कम्मनिजरणत्थं । तेसु' अणन्तरनिद्दिढेसु 'उवउत्तस्स' पवत्तस्स । अहवा जोगा इति मण-वइ-कायजोगा एएहिंतो किरिया अणण्णा भवती ति तस्सहचरियत्ताओ। 30 जोगो विरियं थामो उच्छाह परक्कमो तहा चेट्ठा। सत्ती सामत्थं ति" य जोगस्स हवन्ति पजाया॥ कायजोगो कहं कायव्वो?। कुम्मो इव "अल्लीणपल्लीणगुत्ते सुप्पणिहियपाणिपाए । अहवा, उद्घ१ पायं रीएजा, तिरिच्छे वा कट्ठ पायं रीएजा, साहट्ट पायं रीएजा । एवं कायजोगो करणिजो। वहजोगो वि एवं करणिजोजा यऽसच्चा ण वत्तधा सच्चामोसा य जा मुसा। जा य बुद्धेहिं नाइण्णा न तं भासेज पन्नवं ॥ 1B वति। 2 B नास्ति। 3 Bहोई। 4 A मिच्छामिदुः। 5 B .सिमणा । 6 B नास्ति । 7 B छेदणं। 8 B 'सं'नास्ति। 9 B पूयणासु। 10 B विवरं। 11 A तत्थ । 12 A सरूवं। 13 A अणता। 14 A भवन्ती। 15 B चरित्ताओ। 16 B चि। 17 Brव ली। 18 A. गत्तो। 19 A वितिरि। 20 Aनास्ति। 21 B. णीयो। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ६-७.] जीयकप्प-चुण्णी - मणजोगो वि एवं करणिजो-अकुसलमणनिरोहो कुसलमणउदीरणा य । निरइयारस्सेव संखेवेण मुहपोत्तियाइ-पडिलेहणपमजणाई' जा जा संजमसामायारीगया किरिया सा सव्वा करणिजजोगसद्दवञ्चा होइ। अहोरत्तब्भन्तराणुट्टेया। 'निरइयारस्स' अदुट्ठभावस्स । 'छउमस्थस्से'त्ति परोक्खनाणिणो। सुओवएसाणुसारेण सेसकिरियाकलावाणुटाणपरायणस्स । 'विसोही' कम्मबन्धनिवित्ती निसल्लया वा। 'जइणो' जयमाणस्स अप्पमत्तस्स । 'आलोयणा 5 भणिया' जिणिन्दगणहरेहिं । सीसो भणइ-'निरइयारो नियमा जई चेव होइ तो किमत्थं जइग्गहणं? ।' भण्णइ-'हेउ-हेउमभावेणं वक्खाणं कायव्वं । निरइयारलक्खणाओ चेव हेउओ सो जयमाणो जइ त्ति लब्भइ, तेण दोण्हवि गहणं । अह वा जइ त्ति सामन्नाभिहाणं । तं निरइयारत्तणेण विसेसिजइ निरइयारो जइ त्ति । पुणो वि सीसो-'ते' य जया उवउत्तो निरइयारो य' करेइ। करणिजा य ते। तो तत्थ का विसोही आलोइए अणालोइए वा ?' गुरू 10 भणइ-'तत्थ जाचेट्ठानिमित्ता सुहुमा आसवकिरिया, सुहुमपमायनिमित्ता वा अणुवलक्खिया ताओ" सुज्झन्ति आलोयणा मेत्तेण' । सो पुण गुरु-संदिट्ठो असंदिट्ठो वा पुत्वं वा आलोएजा, कजसमत्तीए वा आलोएजा । अहवा पुवि पि पच्छा वि" आलोएजा। .. ६. 'आहाराइ गहणे'च्चाइ । अणन्तरगाहाए करणिजजोगनिद्देसमेत्तं भणियं, संपयं पुण नामग्गाहं करणिजा जोगा भण्णंति । के ते करणिजा जोगा। इमे-आहारो आईए जेसिं 15 गहणाणं ताणि 'आहाराइ-गहणाणि'। एगवयणेण"णिद्देसोकओ। आइग्गहणेण सेजासंथारवत्थपायपुञ्छणपडिग्गहगाइ ओहिय-ओवग्गहिओय सेसो"उवही घेप्पइ। 'तह बहियाणिग्गमेसु णेगेसु'गिलाणआयरियबालदुब्बलसेहखवग असहुपाओग्गो सहगहणनिमित्तं णिग्गमणे। गहणं तु गुरुमापुच्छिऊण-गुरुणाणुनाओ, सुओवरसेण उवउत्तो, विहीए गिहिऊण; तओ जहाविही गहियमालोपन्तो सुद्धो । सीसो भणइ-'जइ गहणे अविसुद्धी, सुद्धी य आलोइए; एवं गहणमेव 20 करेउ'। गरू भणइ-'जइ गहणं न करेइ तओ आयरिओवज्झायाइ-कुलगणसंघसाहम्मि. यदसणनाणचरित्ततवसंजमाईणं ववच्छेओ-भंगो हवइ । तेणावस्सं गहणं विहीए कायन्वं'। अहवा एयं सव्वं आहाराइ-गहणेण गहियं । इमो पुणो बहियाणिग्गमोऽणेगो भण्णइ । गुरुमूलाओ सेजाओवा कुलगणसंघचेइयदुविहमेय तहव्वविणासनिवारणाई । अहवा पीढफलगसेजासंथारपाडिहारियगहियप्पणत्थं वा निग्गमं करेजा । अहवा एयाई निग्गमका-25 इं। 'उच्चारविहारावणि' त्ति उच्चारभमि-विहारभमीओ सणा-सज्झायसन्नियाओ । चेइयवंदणणिमित्तं आसन्नं दूरं वा गच्छेजा । साहूणं पुण अपुवबहुस्सुय संविग्गाणं वन्दण संसयवोच्छेयत्थं वा गच्छेजा। आइसद्देणं सड्ढासन्नायगओसन्नविहारीणं वा सद्धावद्धावणत्थं साहम्मियाण वा संजमउच्छाहणिमित्तं गच्छेजा। ७. 'जं चन्नं करणिज'मिचाइ । 'जं चनं ति पुव्वगाहाभणियाओ वइरित्तं ति; तं सव्वं च 30 सद्देण समुच्चिजइ । तं च खेत्तपडिलेहणथंडिलसेहनिक्खमणायरियसंलेहणाई हत्थसयाओ परेणं जं आयरियं, तमायरित्ता ससिइगत्तिविसद्धिनिमित्तं अवस्सं आलोएयव्वं । जं पूण रणाई । 'उच्चारविहारा 1B .जणठिई। 2 A निवत्ती। 3A नास्ति। 4 A जइ। 5A .इयारत्तणाओ। 6 A जहा। 7 Aव। 8 B का अविसोही। 9 A नास्ति । 10 B णिमिः। 11 B तातो। 12 B व। 13 Aणेज। 14 A भन्नन्ति। 15 A जजो०। 16 B .यणे णि। 17 A जिद्दोसो। 18 B गहादि। 19 B .हियअवउग्गहि.। 20 B नास्ति । 21 A सेत्ता। 22 B खमग। 23 A वाओगो। 24 A भेद। 25 BOणादी। 26 A पीढग। 27 A •प्पिणण। 28 A मणका। 29 A सज्झासः। 30A .सुय। 31 B वतिरिचए। 32 BOणादी। 33A .त्तिसुद्धि। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धसेन सूरिया [ गाथा ८- ९. हत्थसयन्भन्तरायरियं तत्थ किञ्चि आलोइजर, किञ्चि नालोइजइ । जहा पासवणखेल सिंघाणजल्ल' निविसणुट्टावियम्भणाकुञ्चण'पसारणोसासणीसासचेट्टाइ किञ्चि कजं नालोइजइ । पासवणं पुण पुव्वमापुच्छिऊण वोसिरइ । 'अवियडियम्मि' अणालोइयम्मि, असुद्धो साइयारो, आलोएन्तो पुण तं कजं आयरियस्स सुद्धो निरइयारो त्ति भणियं होइ । 5 ८. 'कारण विणिग्गय 'मिच्चाइ । 'कारणविणिग्गयस्स' त्ति । दुविहो निग्गमो गच्छाओं-कारण, अकारणेण य' । असिवओमरायदुडुगिलाणुत्तिमट्ठायरियपेसणाइ कारणिओ । चक्क थूभपडिमा - महिमा जम्म' निक्खमण नाण-निव्वाणभूमि-सन्नायग- वइग-संखडिपेहा निक्कारणिओ । कारणविणिग्गयस्स | 'च' सदो आलोयणाइपर्यं' समुच्चिणा । निरइयारस्स गुत्तिसमिइविसुद्धस्स कारणेण विणिग्गयस्स आलोयणमेत्ताओ चैव सुद्धी होइ । सा य आलोयणा - ओहओ 10 विभागओ य । ओहालोयणा अद्धमासन्भन्तरागयस्स हवइ । तं चागयमेत्तो चेव इरियावहियापक्किन्तो 'समुद्देसवेलाए आलोएइ । आलोइयमेत्ते चेव सुज्झइ निरइयारो। सा य ओहालोयणा इमा अप्पा मूलगुणेसुं विराहणा अप्प' उत्तरगुणेसु । अप्पा पासत्थाइसु दाणग्गहसंपओगोहा ॥ एवं विहालोयणेण सुद्धो होइ । अन्नम्मि वेलाए विभागेण अद्धमासपरेणागयस्स | विभागा15 लोयणा निरइयारस्स वि । एवं 'सगणाओ' कारणनिग्गयस्स आलोइए सुद्धी; 'परगणागयस्स वि य'ति । सगणो एगसंभोइया, परगणो अन्नसंभोइया । ते संविग्गा" वा असंविग्गा वा । संविग्गाओ आगयस्स निरइयारस्स वि अवस्समेव विभागालोयणा । आलोयणाए " य सुद्धो । 'उवसंपय' त्ति । सा य" उवसंपया" पंचविहा । तं जहा - सुभवसंपया, सुहदुक्खोवसंपया, खेत्तोव संपया, मग्गोवसंपया, विणओवसंपया य त्ति । पंचविहार वि तप्पढमयाए उवसंपजमाणेण 20 निरइयारेणावि आलोयणा विभागेण दायव्वा । सोय आलोयणाए चेव सुद्धो । 'विहारे' ति एगसंभोइया " फडुगपई " गीयत्थायरिया एगाह- पणग पक्ख चउम्मास" संवच्छरिएसु जत्थ वा मिलन्ति तत्थ निरइयारा वि विहारालोयणं देन्ति । अन्नोन्नस्स विहारे वि आलोयणाए सुज्झइ " । सव्वत्थ 'निरइयारस्से'त्ति एयं पयं सम्बज्झइ । एवमेयं " आलोयणारिहं भणियं ॥ ९. इयाणि पडिकमणारिहं भण्णइ । जेसु ठाणेसु खलियस्स मिच्छादुकडारोवणा होइ 25 तट्ठाणसरूव निरूवणत्थं" गाहा भण्णइ । 'गुत्तिसमिइपमाय' इच्चाइ । गुत्ति त्ति तिनि गुत्तिओ मण- वइ-काय सन्नाओ। समिईओ इरिया-भासा-एसणा- आयाणनिक्खेवण" उच्चारपासवणाइपरिवण - नामाओ पंच । एएसु अट्ठसु ठाणेसु पमाओ कओ होजा" । मणेण दुच्चिन्तियाई" । वई दुब्भासिया, कारण दुच्चेट्टियाई । इरियाए कहकहेन्तो" गच्छेजा, भासाए ढड्ढरगिहत्थभासाई, एसणाए भिक्खा" - गहणकाले अणुवउत्तो, " न पमजइ आयाण-निक्खेवेसु, अप्पडि 30 लेहिय-थंडिले उच्चाराइ परिट्ठवेजा" । 'गुरुणो" आसायण' ति । गिणाति" सत्थमिति गुरू तस्स आसाणा कया। का ? अहिक्खे वो" परिभवो वा जच्चाइगुणहीणस्स । आयो" नाणाइतियं तस्स साडणा अवणयणं विणासो आसायणा भण्णा । आयरिया हिक्खेव हारेणाहिकखे : 5 B नास्ति । 6A ज 10 B ॰णेसुं । 11 A 16 A 15 B ० इगा । 20 A •स्सरू० । 21 B कहतो । 26 A 25 30 Bाइ स० । 31 B 3 A कयं । 2 B ० गुंचण । 1 A निवस० । 8 ० कंतो जइसमु० । म्मणणिक्ख० । 7 व्यणापर्यं । ० विग्गा अ० । 12 B आलोएइ य । 13 B नास्ति । • पई य; B •वती । 17 A ० मास A णत्था । ० क्खग० । । 18 B विसु 22 A निक्खमण । 27 A उवउत्तो । 32 A आओ । 23 B होई। 28 A रिहा । अवि० । 4 A गच्छायो । 9A अप्पा | 14 B उवंसं । । 19 B •मेतं । 24 A व्याए । 29 B • रुआसा० । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १०-१२.] जीयकप्प-चुण्णी धन्तो आयं अप्पणो साडेइ' तुसिणीय-हुंकार-जाइ-क-म्माइहिं । अहवा तिविहा आसायणामणेण पओसाइ, वायाए अन्तरभासाइ, कारण जमलिय-पुरोगमण-संघट्टणाइ । 'विणयभंगे" त्ति । विणओ अब्भुट्ठाणासणदाणालिपग्गहवन्दणाईओ । तस्स य भंगे। 'इच्छाईणमकरणे' त्ति। इच्छा मिच्छा तहक्कारो आवस्सिया य निसीहिया आपुच्छणाय पडिपुच्छा छन्दणा य निमन्तणा उवसंपयाओ य गिज्झन्ति । एयासिमकरणे। लहुसगं वा मुसावायं वएजा। जहापयला ओल्ले मरुए पश्चक्खाणे य गमणपरियाए।समुदेससंखडीओ खुड्ग परिहारिय मुहीओ॥ अवसगमणे दिसासुं' एगकुले चेव एक-दवे वा । एए सच्चे वि पया लहुसमुसाभासणे होन्ति ॥ लहुसाऽदिणं पुण सुहुमं जत्थ जत्थ पणगावित्ती । तं-जहा-तण-डगल-छार-मल्लग-लेवइत्तिरि- ग्गहण" चिट्ठणासु"लेव-इत्तिरि उग्गहणट्ठाणेसु सुत्ताएसेण मासलहुं। तहावि इह लहुसगादिण्णं चेव भण्णइ । लड्डसमुच्छा पुण ईसीसि ममत्तं जत्थ सुहुमं, जहा–कागाइ-साणगोण 10 कप्पट्टग" सारक्खण-ममत्ताईसु दवे लहुसमुच्छा। खेत्ते ओवास -संथार-कुल-वसहि-गाम-नगररजाईसु। काले पुण मासकप्पोवरि निवासाइ । भावेण राग-दोसाइ । एत्थ जे मासलहुयट्ठाणा ते सवे घेप्पन्ति"। १०. 'अविहीइ-कास-जंभिय' इच्चाइ । अविहीए हत्थमदाऊण कासइ मुहपोत्तियं वा। एवं जंभाइय-छीईएसु वि । 'वाय' त्ति पयं कम्म-सहेण सम्बज्झइ । तं दुविहं-उहूं उड्डोयाई, अहो 15 कुच्छिय-सहो। उड्डोए हत्थो दायत्रो मुहपोत्तिया वा"। कुच्छिय-सद्द-निग्गमे पुण" पुयावकडणलम्बणेण । एस विही, एयवइरित्तो अविही । 'असंकिलिट्ठकम्म' पुण" छेयण-मेयण-संघसणपीलण-अभिघाय-सिंचण-कायखाराइ-असुसिर-सुसिराणन्तर-परंपरभेयभिन्नं । 'कन्दप्पो' वाइओ काइओ वा । 'हासं' पसिद्धमेव । 'विगहा इत्थि-भत्त-चोर-जणवयाइया । 'कसाया' कोहाई। 'विसयाणुसंगो' सह-फरिस-रस-रुव-गन्धासेवणमिति। 20 ११. 'खलियस्सय' इच्चाइ। 'खलियस्स' अइयारावनस्स। सोय अइयारो सहसकारकओ" अणाभोगकओ य। 'च' सहो पडिक्कमणारोवणं समुच्चिणइ। 'सवत्थ वित्ति सवपएसु।दसणनाणचरित्ततवसमिइगुत्तिन्दियाइसु खलियस्स । 'हिंसमणावजओ त्ति अकरेन्तस्स जयणाजुत्तस्स । सहसक्काराणाभोगलक्खणं चेयंपुश्वं अपासिऊणं छुढे पाए कुलिंगजं पासे । न य तरइ नियत्तेउं जोगं सहसाकरणमेयं ॥ 25 अन्नयर-पमाएणं असंपउत्तस्स णोवजुत्तस्स । इरियाइसु भूयत्थेसु वट्टओ हो अणाभोगो॥ एवं सहसक्काराणाभोगेहिं हिंसमणावजमाणो जयणोवउत्तो अइयारमावन्नो वि मिच्छादुक्कडपरिणओ सुद्धो। १२. 'आभोगेण वि'चाइ । 'आभोगेणे' त्ति परिफुडबुद्धीए वि । 'तणुएसु' थोवेसु, 'नेहाइसु' त्ति सम्बन्धो। नेहो कप्पट्ठग-सन्नि-सन्नायगाइसु । भयं इहलोग-परलोग-आयाण-अकम्हा-30 आजीव-असिलोग-मरण-सन्नियं । सोगो सच्चित्ताचित्तमीसदवाण संजोगेण विओगेण य कओ होजा। 'बाउसत्तं' सरीरसुस्सूसापरायणत्तं हत्थपायाइधोवणदारेण । 'आई' सहेण कुसील 1B साडेति। 2A जामः। 3 B भंगो। 4 B वा। 5 A •न्तणोवसं०। 6A सेखडी खुट्टएय। 7 A सासु। 8 A एगदव्वे य। 9 B ०वत्ती। 10 A ०डगलग। 11 A उग्गडचिः। 12 Bचिट्ठाणाले.। 13 B इसिसि। 14 B कप्पटर० । 15A वासं। 16A भवे। 17 B धिप्पं०। 18 B मुहवोत्ति। 19 B वायन्ति । 20 B उड्याई। 21 B गोए हत्थो मुहपोत्तियं वा दिज्जइ। 22 नास्ति । 23 B पुयतावकडणं । 24 Bएतव्वतिरित्तो । 25 A छेयणपीलणभेयणघंसण। 26 B विकहा। 27 B सहस्स०। 28 B. भोगओ। 29 A हिंसप्पमाणा। 30 A उत्तस्स। 31 Aणए। 32 Boसावकरणा० । २जी. क.चु. Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धसेनसूरिकया [गाथा १३-१७ पासत्थो-सन्न-संसत्ता घेप्पन्ति । 'कन्दप्पहासविगहा' पुववक्खाणिया । 'आइ' सद्देण कसायविसयाणुसंगा गहिया। सवेसु वि एएसु तणुएसु 'णेय' जाणियचं । 'पडिक्कमणं' पायच्छित्तं ति भणियं होइ । एयं पडिक्कमणारिहं भणियं ॥२॥ १३. इयाणिं तदुभयारिहं । 'संभमभय'-इश्चाइ । 'संभमो' हत्थी-उदग-अगणिमाइओं। 5 'भयं' दस्सु-मिलक्खु-चोहिय-मालवाइ-सगासाओ। 'आउरो' दिगिंछा-पिवासाईहिं । 'आवई' चउचिहा-दवखेत्तकालभावावई। दवावई दवं दुल्लहं। खेत्तावई वोच्छिन्नमडम्बाई । कालावई ओमाई | भावावई गुरुगिलाणाई। 'सहसाणाभोगा' पवत्ता । एएसु हिंसाइदोसमावजओ वि जयन्तस्स 'अणप्पवसओ' सवेहिं कारणेहिं, 'सव्ववयाइयारं' करेजा। पलायमाणो पुढविजलजलणपवणाइवणस्सइदुरूहणं वा करेजा। बि-तिय-चउ-पश्चिन्दियं वा विराहेजा । 10 मुसावायादिन्नादाणमेहुणपरिग्गहराइभोयणअद्धाणकप्पलेवाडाइयं वा आवजेजा। एवं उत्तर गुणेसु वि। एवमाइ अइयारावनस्सावि । 'तदुभयं' आलोयणा गुरूणं । पच्छा गुरुसंदिट्ठो मिच्छादुक्कडं ति भणमाणो सुद्धो।'आसंकिए चेव' त्ति कयमकयं वा जत्थ परिच्छेयं काउं न तरइ तमासंकियं । तत्थ य सवपएसु वि तदुभयपायच्छित्तकारी सुज्झइ । १४. 'दुञ्चिन्तिय' इच्चाइ। 'दु'सहो कुच्छाभिहाणे । संजमविराहणाजायं कुच्छियं चिन्तियं 15 दुश्चिन्तियं । एवं 'दुब्भासियं दुच्चिट्ठियं'। 'आई' गहणेण दुप्पडिलेहिय-दुपमजियगहणं । 'बहुसो' अणेगसो 'उवउत्तो वि न याणइ' त्ति सम्बज्झइ । उवओगरुवपरिणओ' वि साहू न संभरइ पुष्वकालकयमइयारहाणं । आलोयणाकाले 'देवसियाइ अइयारं, आइग्गहणेण राइय-पक्खिय-चाउम्मासिय-संवच्छरियाइयारा घेप्पन्ति । १५. 'सधेसु य' इच्चाइ । 'सव'ग्गहणेणं सधाववायट्ठाणा सूइया । पढम उस्सग्गपर्य' 20 बिइयं अववायपयं । अवराहेसु अइयारेसु 'दंसणणाणचरणावराहेसु' । 'आउत्तस्से'त्ति कारणे जयणाए गीयत्थो आसेवओ आउत्तो भण्णइ । तस्सेवमसेसाववाय-कालाणुट्टाणपरस्स आउत्तस्स 'तदुभय' पायच्छित्तं' होइ । तहिं चेवाववायकाले 'सहसक्कारेण' जे कयं, तं आइसहसंगहियाणाभोगेण य तदुभयमिति । एयं च तदुभयारिहं ॥३॥ १६. इयाणि विवेगारिहं भण्णइ। 'पिंडोवहिसेजा'इच्चाइ । 'पिंडो' संघाओ असण-पाण-खाहम-साइम-मेयभिन्नो । 'उवही' ओहिय-उवग्गहिय-मेओ। सेजा' उवस्सओ।आइसण डगलगछार-मल्लग-ओसहाणि घेप्पन्ति । 'कडजोगी' गीयत्थो भण्णइ । पिंडेसणा-वत्थ-पाएसणा-छेयसुयाईणि सुत्तत्थओ अहीयाणि जेण सो गीयत्थो । तेणोवउत्तेण गहियं सुओवएसाणुसारोवओगपरिणामपरिणएणं ति भणियं होइ । पच्छा नायमसुद्ध' । केण दोसेण असुद्ध" नायं भण्णइ । उग्गमउप्पायणेसणाहिं संकियमसंकियं वा दोसवत्तेण 'सुद्धो' 'निरइयारो। विहाणेणं' विहिणा 30 सुओवइटेण 'विगिंचमाणो' परिटुवेन्तो सुद्धो हवइ । १७. 'कालद्धाणाइच्छिय' इञ्चाइ । 'कालाइच्छियं' पढमपोरिसीगहियं चउत्थपोरिसिं जाव जं धरिजइ । अद्धजोयणाइरेगाओ आणीयं नीयं वा। असढयाए सढयाए य। विगहा-किड्डा-इन्दियमाईहिं सढो, गिलाण-सागारिय-थंडिल्ल-भयाइक्कमणेण य" असढो । विहीए विगिञ्चन्तो सुद्धो। अणुग्गएसूरे अत्थमिए था जं गहियमसणाइ असढेण गिरिराहुमेहमहियारयावरिए 1A एवं। 2 B असणि। 3 A. मंडवा। 4 B. मादी। 5 B.हित्ति। 6 B ०वा. डाइ। 7 B ०णतो। 8 B. सियाइयारं। 9 A उवसः। 10 B. वाद। 11 B पच्छित्तं । 12 A एवं च। 13 B• पाएसणा सेज्जाछेय० । 14 A सुयाइयं । 15Aण सुद्धं । 16 B पोरुसी। 17 B नास्ति । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १८-२१. ] जीयकप्प-चुण्णी सवियरि उग्गयबुद्धीए अणथमियबुद्धीए वा गहियं होजा; पच्छा य अणुग्गए' अत्थमिए वा' नायं तओं विहीए विगिञ्चन्तो सुद्धो । 'कारणे' वा गहियं गिलाणायरियवाल पाहुणयदुल्लहसहस्सदाणाइ-कारणे नाणाविहे जगहियं विहिभोयणे य कए जइ तं उच्वरियं तओ विहीए अणावायमसंलोगाइयाए विगिश्चन्तो । 'भत्ताइ' भत्तग्गहणेण असणं, आइग्गहणेण पाण-खाइम-साइमाणि वि घेप्पन्ति । सो य एवं करेन्तो सुद्धो हवइ त्ति विवेगारिह भणियं ॥४॥ १८. इयाणि काउस्सग्गारिहं भण्णइ-गमणागमण'-इच्चाइ । उवस्सयाओ गुरुमूलाओ वा 'गमणं, आगमणं' बाहिराओ आयरियसमीवं । 'विहारो' सज्झायनिमित्तं जं अन्नत्थगमणं । पत्थ सबहिं चेव इरियावहिया काउस्सग्गो पायच्छित्तं कीरइ । 'सुयम्मि' उद्देससमुद्देसाणुन्नापट्टवणपडिक्कमणसुयफ्खधंगपरियट्टणाइएसु सुए काउस्सग्गो कीरइ । 'सावजसुमिणे" पाणाइवायाइ । आइसद्देण अणवज्जसुमिणे वि। कम्हति । 'च'सहेण दुन्निमित्त-दुस्सउण-पडिहणण-10 निमित्तं अट्ठस्सासुस्सग्गकरणं । 'नावा' चउचिहा-समुहनावा, उजाणी, ओयाणी, तिरिन्छगामिणी । आइमा समुहे । पच्छिल्ला तिन्नि नईए । उजाणी पडिसोत्तगामिणी । ओयाणी पुण अणुसोयगामिणी । तिरिच्छगामिणी णदि छिन्दन्ती गच्छइ । 'णईसंतारो"1 चउविहो। सो पुण पाएहि संघट्ट-लेव-उवरिलेवेहिं तिविहो होइ, बाहा-उडुवाई हिं य। सम्वत्थ 'पायच्छित्तं' जयणोवउत्तस्स विहीए 'काउस्सग्गो' पायच्छित्तं होइ। 15 १९. 'भत्ते पाणे' इच्चाइ । 'भत्तपाणाई' पसिद्धं चेव । 'सयणं' जत्थ सुप्पइ । 'आसणं' जत्थ निविसिजइ । 'अरहन्तसेजा' चेइयघरं । 'समणसेजा' पडिस्सओ। सन्वेसु एएसु भत्ताइसमणसेजापजषसाणेसु हत्थसयाओ परेण गमणे आगमणे वा कए पायच्छित्तं" काउस्सग्गो। सो पणुवीसुस्सासो"कायचो। उच्चारिजइ त्ति 'उच्चारों'। पस्सवतीति 'पस्सवणं । दोसु वि परिदृविएसु हत्थसयभन्तरे परेण वा हत्थमेत्ते वि काउस्सग्गो पणुवीसुस्सासो कजइ। 20 २०. 'हत्थ सय' इच्चाइ । अणन्तरगाहा जुयलेण काउस्सग्गं पच्छित्तमुत्तं; तं पुण काउस्सम्गं किं परिमाणं करेन्ति" । अओ ऊसास-परिमाण-निरूवणत्थाओ तिन्नि गाहाओभण्णन्ति। गाहाए पढमद्धं पढियसिद्धं । 'पाणवहाइसुमिणए' त्ति करणकारावणाणुमईहिं सुमिणे पाणाइवाओ कहो ओजा । तत्थ ऊसाससयपरिमाणं तुल्लं । 'चउत्थमिति मेहुण-सुमिणयदसणे अट्ठसयऊसासपरिमाणं काउस्सगं" करेजा। 25 _____२१. 'देसियराइय' इच्चाइ । जहासंखेण ऊसासपरिमाणकहणमेयं । दिवसावसाण-पडिक्कमणे पच्छिमकाउस्सग्गतिए पढमे दो उज्जोया चिन्तिजन्ति । पच्छिमेसु दोसु एकेको । एवमेए चत्तारि उजोया। एसो य उज्जोयदण्डगो पणुवीसूसासपरिमाणेण छिजइ । तओ पणुवीसा घउहिं उज्जोएहिं गुणिया ऊसाससयं भवति । रयणिपहाय-पडिक्कमणे पुण पञ्चासं ऊसासा सयस्स अद्धेण होन्ति । तत्थ दोहिं उज्जोएहिं पणुषीसा गुणिजइ । पक्खपडिकमणे वारस 30 उजाया। तेहि पणुवीसा गुणिया होन्ति ऊसासाण तिन्नि य सयाओ। चाउम्मास-पांडेक्कमणे बीसाए उज्जोएहिं पणुवीसा गुणिजइ, पंचसया होन्ति । वारिलिय पडिक्कमणे चत्तालीसाए उज्जोएहिं पणुवीसा गुणिया सहस्समुस्सासाणं होइ। अन्ने अट्ठ ऊसासा नमोकारे कजन्ति । तओ अट्टत्तरं सहस्सं होइ । सो य नमोकारो संवच्छरिए बहुओ कालो निविग्घेणं गओ ति चिन्तिजइ मंगलत्थं पजन्ते। 1B. ग्गओ। 2 A.मिओ। 3 B सतो। 4 B 'बाल'नास्ति । 5 B च । 6 B 7-8 A .मिणो। 9 B नदीए। 10 A नदी। 11 A नदि सं०। 12 B जइणो०। 13 B एतेसु। 14 A पयच्छित्तं । 15A पुण० । 16 A पस। 17 B करेउ त्ति । 18 A सुमिणोत्ति। 19 Aऊसासयप। 20 A मिहण। 21 B उस्स। 35 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ सिद्धसेनसूरिकया [गाथा २२-२७. २२. 'उद्देस' इञ्चाइ । सुत्ते उद्देस-समुद्देस-अणुन्नासु सत्तावीसं ऊसासा उस्लग्गो कीरइ । सुयक्खन्धङ्गपरियट्टणुत्तरकाले य सत्तावीसुस्सासपरिमाणुस्सग्गकरणं । पट्ठवणपडिक्कमणे अट्टसासगपरिमाणुस्सग्गकरणं । आइसहेण दुनिमित्तावसउणपडिघायनिमित्तं अट्टसासमु. स्सगं करेइ । एयं काउस्सग्गारिहं भणियं ॥५॥ 5 २३. 'उद्देसज्झयणे' इच्चाइ । उस्सग्गाभिहाणाणन्तरं तवारिहं भण्णइ । तत्थ नाणायाराइयारो दुविहो-ओहओ, विभागओ य । तत्थ विभागेण उद्देसग-अज्झयण-सुयक्खन्ध-अङ्गाणं कमसो य परिवाडीए कमेण, पमाइस्स कालाइक्कमणाइसु त्ति सम्बज्झइ । पमाइगहणं, कालविणय-बहुमाण-उवहाण-अनिण्हवण-विवजया अइयारो होइ । वञ्जणमेय-अत्थमेय-तदुभयमेया वा कया अइयारो होइ नाणस्स । एएसिं अट्ठण्हपयाणमन्नयरट्ठाणट्ठिओ नाणाइयारे वट्टइ । 10 अकाले सज्झायकरणं असज्झाइए वा करणं; एस कालाइयारो। विणयं न पउआइ, जच्चाइएहिं वा मयावलेवलित्तो विणयभंग करेइ, हीलइ वा; एवमाइ विणयाइआरो। सुए गुरुम्मि य बहुमाणभत्तीओ न करेइ । भत्ती उवयारमेत्तं । बहुमाणो ओरसो सिणेहसम्बन्धो आयरियाणं उवरि सो घा न कओ। उवहाणं तवचरणं आयंबिलाइयं न करेइ । निण्हवणं अवलवणं । जस्स सगासे अहीयं तदुहेसेण भणइ 'नाहं तस्स सगासे अहिजिओ'। जुगप्पहाणं वा सूरिं समुद्दिसइ; 16 सयमेव वाहिजियं भणइ । एसा निण्हवणा । वञ्जयइ जेण अत्थो तं वक्षणं । सुत्तस्स सन्ना । तं च सुत्तं मत्तऽक्खरबिन्दूहिं ऊणमइरित्तं वा करेइ, सक्कयं वा करेइ, अनामिहाणेण वा भणइ । एस वक्षणमेओ । एवमत्थमेय तदुभयभेया वि नेया। २४. 'निविगइय'-इच्चाइ। उद्देसगाइयारे निधिगइयं । अज्झयणाइयारे पुरिमहुं । सुयक्ख'न्धाइयारे एगासणयं । अंगाइयारे आयंबिलं । अणागाढे एयं । आगाढे पुण एएसु चेव ठाणेसु 20 पुरिमट्ठाइ-अन्भत्तट्ट-पजवसाणं । अत्थसुणणे वि पुरिमड्ढाइ-खमण-पजन्तमेएसु चेव ठाणेसु । एयं विभागपच्छित्तं भणियं । इयाणि ओहेण भन्नइ। - २५. 'सामन्नं पुण' इच्चाइ । सबम्मि चेव सुत्ते ओहेण अविसेसिए आयामं । अत्थे य अविसेसिए अब्भत्तहो। कमेण अहिजन्तो न ताव पावइ तं सुत्तं अत्थं वा परियाओ वा न पूरइ सो अपत्तो (१); अवरो अपत्तो अजोगो। तितिणिचवलचित्त गाणंगणियाइ-णेगदोस 25 संजुत्तो (२); अन्नोवि अपत्तो वयसा सुएण वा (३) एएसिं सवेसिं चेव जो वायणं देइ उद्देस समुद्देसणुन्ना वा करेइ तस्स वि खमणं । 'च' सहेण जइ पत्तं न वाएइ सुएण, पत्तं वा जोगं न वाएइ, वत्तं वा वयसुएहिं । एएसिं च उद्देसणादि जो न करेइ वा तस्स अब्भत्तट्ठो। २६. 'कालाविसजण'-इच्चाह । कालाविसजणं कालस्स अपडिक्कमणं । 'आई'सद्देण अणुओगस्स अविसजणं । 'मंडलि-वसुहा' मंडलि-भूमी सा तिविहा सुत्ते अत्थे भोयणे 30 एएसिं तिण्हवि अप्पमजणे निधीयं । सुत्ते अत्थे वा निसेजं न करेइ । अक्खे वा न रपति त खमणं, 'च' सहा वंदण-काउसग्गे ण करेति तहावि खमणं चेव। २७. 'आगाढाणागाढम्मि' इच्चाइ । जोगो दुविहो-आगाढो अणागाढो य । आगाढे सच्च भंगो देसभंगो य । अणागाढे वि सवभंगो देसभंगो य। सच्चभंगो नाम आयंबिलं न करेइ विगईओ सेवइ । देसभंगो नाम विगई भुजेऊण पच्छा काउस्सग्गं करेइ। सयमेव वा काउ 35 स्सग्गं काऊण भुञ्जइ, विगई वा एगटुं गेण्हइ । अभणिओ' वा 'संदिसह काउस्सग्गं करेमिति 1B वीईयं। 2 A यखं। 3 A. एक्कासः। 4 Bहाणे। 5A ओहेणं । 6F तितिणियचलचि०। 7 A अव्वत्तो । 8A अणिओ०। 9 A तिहा। 10B गिइ। 11A अभिणि। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ammananmmmmmmmmmmmmmmanna गाथा २८-३०.] जीयकप्प-चुण्णी भणइ । आगाढसवभंगे छटुं, देसभंगे चउत्थं । अणागाढसवभंगे चउत्थं, देसभंगे आयंबिलं । एस नाणाइयारो भणिओ। इयाणि दसणाइयारो भन्नइ २८. 'संकाइयासु देसे' इञ्चाइ । संका आइ जैसि पयाणं ताई इमाई संकाइयाई । तेसु संकाइएसु अट्ठसु पएसु । काणि पुण ताणि? इमाणि भन्नन्ति । [१] संका, [२] कंखा, [३] 6 वितिगिञ्छा', [४] मूढदिट्ठी, [५] अणुववूहा, [६] अथिरीकरणं, [७] अवच्छलं, [८] अप्पभावणया । संसयकारणं संका-देसे य' सच्चे य। तत्थ देसम्मि जह-तुल्ले जीवत्ते किह भविया अभविया, अन्ने एवमाइ संकादेसे। सवे-पागय भासबद्धत्ता मा होजाऽकुसलपरिकप्पियं । दिट्ठन्तो पेजकप्पट्ठो। एत्तो कंखा दुविहा-देसे, सच्चे य बोधवा। देसे कुतित्थियमयं कंखइ । एत्थवि अहिंसा मोक्खो य दिट्टो त्ति । सच्चे पुण कंखइ सव्वे कुतित्थिमए' | 10 दिदंतो रायामचा आसावहिया पसत्थमपसत्था । वितिा छा देसे सच्चे य। जहा भइमो एरिसो परिकेसो अम्हाण केसलोयाइ कीरए होजा न वा मोक्खो। विदुगुम्छा वा-विज्ञाने विदः" साधवः। ते दुगुञ्छइ मण्डलि-मोय-जल्लाइएहिं । मूढदिट्ठी परतित्थियपूयाओ" अइसयमयाणि वा सोऊण मइवामोहो होजा । उववूहा दुविहा-पसत्था अप्पसत्था य । पसत्था साहूसु नाणदसणतवसंजमखमणवेयावच्चाइसु अब्भुजयस्स उच्छाहवडणं उववूहणं । अप्पसत्था 15 मिच्छत्ताइसु । थिरीकरणं पसत्थमप्पसत्थं च । विसीयमाणस्स चरित्ताइसु थिरीकरणं पसत्थं । असंजमे थिरीकरणं अप्पसत्थं । वच्छल्लमवि एवमेव दुविहं-आयरिय-गिलाण-पाहुण-असहु बाल-बुहाईणं" आहारोवहिमाइणा समाहिकरणं पसत्थं । ओसन्नाइ"-गिहत्थाणं अप्पसत्थं। पभावणा वि एवमेव । तित्थयर-पवयण-निवाण-मग्गपभावणा पसत्था। मिच्छत्तअण्णाणाईणं अप्पसत्था। एवं अट्टावि वित्थरओ परवेऊण । तत्थ संका देसे सच्चे य । एवं कंखा 20 वि। एवं वितिगिञ्छा दुगुञ्छा वि। एवं मइ[वा]मोहो वि । अप्पसत्थुववूहा देसे सव्वे य। एवं पच्छलं पि देसे सो य । अप्पसत्थप्पभावणा वि देसे सच्चे य। तत्थ चउसु वि संकाइएसु देसे खमणं । मिच्छोववूहणाइसु य देसे" खमणं । च सहेण थिरीकरण-घच्छल्ल-प्पभावणे मिच्छताईणं देसे खमणं । एवं ओहओ। विभागओ पुण संकाइसु अट्ठसु वि देसे भिक्खुस्स पुरिमहूं। वसभस्स एक्कासणगं । उवज्झायस्स आयंबिलं । आयरियस्स अब्भत्तट्ठो । 25 ____२९. 'एवंचिय' इच्चाइ । एवं चेवाणन्तरुद्दिष्टुं पुरिसविभागेण पच्छित्तं पिहं पिहं । जइणं साहूण" उववूहणं न करेइ । आइसद्देण" थिरीकरणं वच्छल्लं पभावणं वा पवयणजइ"माइयाणंण करेइ । भिक्खुस्स पुरिमर्व्ह । वसभस्स एक्कासणयं । उवज्झायस्सायंबिलं । गुरुस्स अभत्तट्ठो। एयं पढमद्धवक्खाणं । पच्छद्धं पुण उवरिमगाहाए सम्बज्झइ । सा य एसा गाहा ३०. 'परिवाराई' इच्चाइ । 'परिवारनिमित्तंति सहायनिमित्तं ति जं भणियं होइ । 'आई'- 30 सद्देण आहारोवहि-निमित्तं वा। तप्पसाएण आहारोवहि-सेजाओ वा लभिस्सन्ति त्ति काउं पासत्थोसन्नकुसीलसंसत्ताहाछन्दणियाणं" उवरि ममत्तं करेइ । सावग-सन्नायगाणं वा सवेर्सि 1B विगिंछा। 2 A अण। 3 B अप०। 4 B 'य' नास्ति। 5 B. विए। 6 B पागइय। 7 B.तित्थः। 8 B विइगिच्छा। 9A हइमो। 10 Bण। 11B विदवः। 12 A पूयाअइ। 13 Aमिच्छाइसु। 14 Bवा। 15 BOणग ससु असह। 16 Boदीर्ण। 17A ण्ण। 18 A एमेव। 19 B.त्तऽना। 20 B विगिंछा। 21 Boहणा देसे। 22 A विभागाओ। 23 Bएगासः। 24 B एयं । 25A जइ साह। 26 B आदि। 27A जतिः। 28 B वसहस्स। 29 Bएगास। 30 B.ज्झति। 31 BOच्छंदनीइआणं । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धसेन सूरिकया [ गाथा ३१-३४. वा परिपालन- सम्भोग संवास सुत्तत्थदाणाणि । जइ करेइ वच्छलं तो भिक्खुणो निवीयं । वसभोवज्झायगुरूणं' पुरिमेगासणायामाइ जहासंखं । अह पुण इममालम्बणं करेइ । 'साहम्मिओत्ति एसो संजमं वा करेसइ' । 'वा' सद्देण कुलगणसंघगिलाणकजाइए पडितपिस्सइ त्ति' । एवं विहार बुद्धीए सवहिं सुद्धो । एवं दंसणायारपच्छित्तं भणियं ॥ 5 इयाणि चरित्तायारपच्छित्तं भन्नइ - १४ ३१. 'एगिंदियाण' इच्चाइ । एगिन्दिया पुढवि आउ-तेउ वाउ-पत्तेयवणस्सई । एएसिं पंचve वि पि पि संघट्टणे निधीइयं । आउकायस्स संघट्टणे' घड- गोलंकय-वार गाइ-ठियस्स, पायहत्थाइचालियस्स ईसिं परियावो, पुण गाढतरचालियस्स उद्दवणं । पिहु परितावणहणणपाणाईसु । एएसिं च परितावणा दुविहा अणागाढा आगाढा य । तत्थ अणागाढाए पुरिमडुं । 10 आगाढा एक्कासयं । उद्दवणे पुण आयामं पंचसु वि । 1 ३२. 'पुरिमाई' इचाइ । अणन्तवणस्सइ-बिय-तिय-चउरिन्दियाण संघट्टण-अणागाढ आगाढ परिताव उद्दवणेसु पुरिमाइ-खमणन्तं" जहासंखं । पञ्चिन्दियसंघट्टणे एक्कासणयं । अणागाढ- परितावणे आयामं । आगाढपरितावणे" खमणं । उद्दवणे एककल्लाणगं । पमायसहियस्स । ३३. 'मोसाइसु' इच्चाइ । मुसावाय अदत्त-परिग्गहेसु मेहुणवजिएसु । दवाइवत्थु भन्नेसु 15 त्ति । मुसावाओ चउठिहो- दवखेत्तकालभावेहिं । दवओ जहण्णमज्झिमुकोसो । एवं खेत्तकालभावेसु वितिविहो । एवं" जहा मुसावाओ चउधिहो पुणो य एक्केको तिविहो । तहाsदत्तपरिग्गहा वि । एत्थ य दवाइमेयभिने चउविहे वि" मुसावाए जो जहन्नभेओ तहिं सवत्थ एक्कासयं, मज्झिमे सबहिं आयामं, उक्कोसे वि चउष्विहे खमणं । एवं अदत्त-परिग्गद्देसु वि पच्छित्तं दायां । 20 ३४. 'लेवाडय' इच्चाइ । लेवाडय-परिवासे" अब्भत्तट्टो । सुक्कसन्निहिएसु वि - सुंठिहरड - बहेडगासु अन्भत्तट्ठो । इयरा गिल्लसन्निही-गुलकक्कयघयतेल्लाई तीए छ । सेस निसिभत्ते अट्टमं । ओहसुत्ताओ" जमश्नं तं सेसं । किं चोहसुत्तं ? पढमभंगो । सेसा तिन्नि भंगा सेसनिसिभत्तसद्देण भवन्ति । एवमेयं मूलगुणाइयारे मेहुणवज्जिए पच्छित्तं भणियं । मेहुणाइयारस्स पुण मूलट्ठाणे भणिहिई । 25 इयाणि उत्तरगुणाइयारपच्छित्तं भन्नइ । ते य उत्तरगुणा पिंडविसोहीयाईया । तत्थ पिंसोही तिसु ठाणेसु हवइ । उग्गमे उपायणाए एसणाए य । तहा संजोयणपमाणइंगाल धूमकारण विभागेण य विसुद्धी भवइ" । एत्थ य उग्गमो सोलसभेओ । ते य इमे सोलस मेया आहाकम्माई " । एत्थ सोलससु दोसेसु जत्थ जत्थ सरिसं पच्छित्तं तं तं दोसं गाहाए संपिंडिय कहयइ । तहा उपपायणाए वि सोलस । तत्थ जे सरिसपच्छित्ता ते समुच्चिणइ । एवं एसणा30 दोसेसु वि दससु सरिसद्वाणाएं उवसंहरइ । एगट्ठी किया। एए सव्वे वि पिंडनिजुत्तिणुसारेण भाणिया । इह पुण च्छित्तमेव केवलं विहिज्जइ । आहाकम्मे खवणं । उद्देसियं दुविहं- ओहे विभागे य । परिमियभिक्खदाणरूवं ओहो सामन्नमेगपगारं अविसेसियं तत्थ पुरिमङ्कं । विभागे तिन्नि भेया उद्देसो, कडं, कम्मं । एए" तिन्नि वि" पत्तेयं 1 B निव्वीयं । 2 A वसभोझाय । 3 B करिस्सर । 4 A • तप्पस्सइ । 5 A • व्विईयं 6 A आउक्काय संघट्टणं । 7 A ओदवणे । 8 B परियावण । 9B खवणं । 10 B परियावे 11 B एवं जरा । 12 A 'वि' नास्ति । 13 A •वासेइ । 14 B ओहमुत्ता० । 15 B 16 B कम्माती । 17 A एएसिं । A • हवि । 18 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३४.] जियकप्प-चुण्णी चउहि भेएहिं भिजन्ति'। तं जहा--उद्देसुद्देसियं, उहेससमुद्देसियं, उहेसाएसियं, उहेससमाएसियं । एएसु विमेएसु पुरिमटुं। कडुइसं, कडसमुहेसं, कडाएसं, कडसमाएसं । एएसु वि चउसु विमेएसु एक्कासणयं । तहा कमुद्देस, कम्मसमुद्देसं, कम्माएसं, कम्मसमाएसं । तित्थ पढमे आयंबिलं । सेसेसु तिसु मेएसु अब्भत्तट्ठो। पूइयं दुविहं-सुहुमं बायरं च । सुहुमं धूमाइ । बायरं उघगरणे भत्तपाणे य । तत्थ उव- 6 गरणपूइए पुरिमहं । भत्तपाणपूइए एक्कासणयं । मीसजायं तिविह-जातियमीसजायं एत्थ आयंबिलं । पासंडमीसजाए साहुमी सजाए य खमणं। ठवणा दुविहा-इत्तिरिया तत्थ निधीइयं । चिरठवियाए पुरिमटुं । पाहुडिया वि दुविहा-सुहुमाए निवीइयं । वायराए खमणं। 10 पाओकरणं दुविहं-पागडकरणे पुरिमटुं । पगासकरणे आयामं । कीयं दुविहं-दवे भावे य । दवे दुविहं-आयकीयं, परकीयं च । एत्थ दोसु वि आ यामं । भावे वि आयकीयं परकीयं च । भावायकीए आयामं। भावपरकीए पुरिमहूं। पामिच्चं दुविहं-लोइयं एत्थ आयाम, लोगुत्तरिए पुण पुरिमह्र ।। परियट्टियं दुविहं-लोइए आयाम, लोगुत्तरिए पुण पुरिमहं। 15 आहडं दुविहं-सग्गामओ', परग्गामओ य । सग्गामाहडे पुरिमटुं । परग्गामाहडे सपश्च वाए चउत्थं । परग्गामाहडे निप्पञ्चवाए आयामं। उब्भिण्णं दुविहं-दहरउब्भिन्ने पुरिमटुं, पिहिओभिन्नकवाडे आयाम । मालोहडं दुविहं-जहन्ने पुरिमहूं, उक्कोसे आयाम।। अच्छे तिविहं-पहअच्छेजं. सामिअच्छेजं. तेण अच्छेजतिस वि आया। 20 अणिसटुं तिविहं-साहारणाणिसटुं, चोल्लगाणिसटुं, जड्डाणिसटुं । तिसु वि आयामं ।। अज्झोयरो तिविहो-जावंतिय-पासंडियमीसो, साहुमीसो। एत्थ जावंतिए पुरि महूं, इयरेसु दोसु वि एक्कासणयं । एवं उग्गमदोसेसु पायच्छित्तं भणियं । इयाणि उप्पायणाए' पायच्छित्तं भन्नइ-धाई पंचविहा, सव्वत्थ आयामं । दुई दुविहासग्गाम-परग्गामा, दोसु वि आयामं । निमित्तं तिविहं-तीए आयामं, वहमाणे अणागए य 25 खमणं । आजीवे जाइकुलाइमिन्ने, सवत्थ आयामं । वणीमए वि सम्वत्थ आयामं । तिगिच्छा दुविहा-सुहुमाए पुरिमहूं, बायराए" आयामं । कोहे माणे आयाम, मायाए एक्कासणं, लोमे खमणं । संथवो दुविहो-पुब्वि संथवो, पच्छासंथवो वा। वयण-संथवे पुरिमहूं, 'सम्बन्धि-संथवे आयामं । विजाए आयामं । मन्ते आयामं । चुण्णे आयामं । जोगे आयामं । मूलकम्मे मूलं। 30 - इयाणि एसणादोसेसु पच्छित्तं भण्णइ-ते य इमे दस संकियमाईया । तत्थ संकिए चउभंगो-संकियगाही संकियभोई" । चरिमो णिस्संकिओ दोसविसुद्धो, बीओ वि विसुद्धो चेव । पढमतइए" संकियभोई। जं दोसं संकइ तस्स चेव पच्छित्तमावजइ । सच्चित्तमक्खियं तिविहं-पुढवि-आउ-वणस्सइ । तत्थ पुढविससरक्खमक्खियहत्थेणं निविगइयं । मीसकद्दमेणं पुरिमहूं । निम्मीसकद्दमे आयामं । मट्टिया-ओस-हरियाल-हिंगुलुय-मणोसिला-अंजण-लोण- 35 1 1A भिज्जइ। 2 B पढमए। 3 B 'च' नास्ति। 4 B माओ। 5 B अच्छिजं। 6 A साधारण अणिसटुं। 7A .यणेए। 8 Bधाती। 9 A वडमा। 10 B घणीमगे। 11 A. पाय। 12 B एगासणगं। 13 B -मादीया। 14 B भोती। 15 A नीसं०। 16 A बि. इमो विसुः। 17 A.ततिए। 18 B निम्वीययं ।। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धसेनसूरिफया [गाथा ३४. गेरूयं वन्निय-सेडिय-सोरट्रिय-मक्खिए करमत्ते सत्वत्थ पुरिमटुं। एयं पुढविमक्खियं । इयार्षि आउमक्खियं भन्नइ-ससिणिद्धे निविगइयं । उदउल्ले पुरिमर्दु । पुरकम्म-पच्छकम्मे आयाम एयं आउमक्खियं भणियं । इयाणि वणस्सइमक्खियं भन्नइ-सोय वणस्सई दुविहो-परित्तो, अण न्तो य । परित्ते तिम्नि मेया-पिटुं, रोहं', कुक्कुसा । उकुटुं चिंचाइ । एएहिं मक्खिपहिं तिहिं टि पुरिम8। अणन्ते वि एएहिं चेव तिन्नि मेया। एत्थ एक्कासणयं । एयं सञ्चित्तमक्खियं भणियं इयाणि अचित्तमक्खियं भन्नइ-तं दुविहं-गरहिय-मजायमक्खिए आयामं । अगरहिय-संसत्त मक्खिए आयाम । एवं मक्खियं भणियं । इयाणिं णिक्खित्तं भन्नइ-पत्थ चउभंगो सचिरे सचित्तं निक्खित्तं । एत्थ तइए पच्छित्तं । तं च सश्चित्तं छक्काया-पुढवी-आऊ-तेऊ-वाऊ परित्तवणस्सइकाऊ-तसाणं च । सञ्चित्ताणमणन्तर निक्खित्ते आयामं । एएसिं चेव सच्चित्ताप 10 परंपरनिक्खित्ते पुरिमटुं। एएसिं चेव मीसाणमणन्तर निक्खित्ते पुरिमटुं। एएसि चेव मीसाप परंपरनिक्खित्ते निधीयं । अणन्तवणस्सइ-सञ्चित्ताणन्तरे खमणं । एयस्स चेव परंपरेण' एक्का सणयं । अणन्तवणस्सइ-मीसाणन्तरणिक्खित्ते एक्कासणयं । एयस्स चेव परंपरनिक्खिरं निधीयं । पिहिए चउभंगो। तत्थ तइए पच्छित्तं । अचित्तेण गुरुणा पिहियस्स, सचित्ते पुढवी-आऊ-तेऊ-वाऊ-परित्सवण-तस-सचित्तेहिं अणन्तरपिहिए आयामं । एएहिं चेर 15 परंपरपिहिए पुरिमहूं। एएहिं चेव मीसेहिं अणन्तर-पिहिए पुरिमहूं। एएहिं चेव परंप निधीयं । अणन्तवण-सचित्ताणन्तरपिहिए खमणं । तेण चेव परंपरपिहिए एक्कासणयं । अणन्तर णस्सइ-मीसाणन्तरपिहिए एक्कासणयं । एएण चेव परंपरपिहिए निवीयं । गुरु-अचित्तपिहिप खमणं । इयाणिं साहरियं भन्नइ । एत्थ वि चउभंगो।तत्थ पुढवि-आऊ तेऊ-वाऊ-परित्तवणस्सा तससचित्ताणन्तरसाहरणे आयामं। एएहिं परंपरसाहरणे पुरिमई। एएहिं चेव मीसाण अणन्तर 20 साहरणे पुरिमहं । एएहिं चेव मीसाणं परंपरसाहरणे निविइयं"।अणन्तवणस्सइसचित्ताणन्तर साहरणे खमणं । एएहिं चेव अणन्तवणस्सइपरंपरसाहरणे एक्कासणयं । अणम्तवणस्सइमीसाण न्तरसाहरणे एक्कासणयं । एयस्स चेव मीसपरंपरसाहरणे निविइयं । बीयसाहरिए निश्चिगइयं अचित्ते अचित्तं साहरिए पुरिमहूं । अहगुरुसाहरिए तो खमणं । इयाणि दायारो त्ति भन्नइबाले वुड्ढे मत्ते उम्मत्ते चेव णेजरिए अन्धे एएसु दिन्तेसु गहणे आयामं । पगलन्तकुटे खमणं 26 पाउयारूढे वि खमणं । हत्थे"दुइए नियलबद्धे य हत्थच्छिन्ने य पायच्छिन्ने यनपुंसके गुधिर्ण पालवच्छाए भुखम्तीए विरोलन्तीए भजन्तीए कंडन्तीए पीसन्तीए पयासु सवासु आयामं। पिंज न्तीए रुवन्तीए कत्तन्तीए पमहमाणीए पुरिमहूं। छक्कायवग्गहत्था समणट्ठा णिक्खिवित्तु ते चेव' गाहन्ती घट्टन्ती संघट्टन्ती आरभन्ती । एयासु सट्टाणे नी० पु० ए० आ० अभ० कल्लाणगं एयं सट्टाणं। संसत्तेण दवेण लित्तहत्था य लित्तमत्ता य आयामं, सेसेसु पुरिमहूं । ओयत्तन्तीए 80 साहारणं च देन्तीए चोरियगं देन्तीए पाहुडियं ठवेन्तीए सपश्चवायाए परं च उद्दिस्स आयामं इयाणि उम्मीसं भन्नइ-परित्तवणस्सइ-सचित्तउम्मीसे आयामं । एएण चेव परित्ते मीसेण उम्मीसे निविश्यं । अणन्तसचित्तउम्मीसे खमणं । एएण चेव अणन्तमीसे निविइयं बीउम्मीसे निधिइयं । अह पुढवाईहिंतो जहा णिक्खित्ते । इयाणि अपरिणयं भन्नइ-तं दुविह दधे भावे य । दवे अपरिणयं-पुढवि-आउ-तेउ-चाउ-परित्तवणस्सइ-अपरिणए आयामं । अर 1B नास्ति। 2A अणंतेहिं। 3 Bएगासणगं। 4 A इदं वाक्यं पतितम्। 5A ततिर 6 A भीसाणंतर। 7A परंपरे। 8 B एगासणगं। 9 A ततिए। 10 A अणंतरे। ] B निव्वीयं । 12 A एतद्वाक्यं नास्ति । 13 B दायगेत्ति। 14 B हत्थं। 15 A 16 B रुंचतीए। 17 A च्वेव। 18 A हिंती । 19 A नास्ति। 20 A संघट्टमारभंतीए। A ओयतंतीए। 22 डियगं। 23 A पिउ०। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwimwanswammam wwwwwwimaratiwwwwwwwwwww गथा ३५-४६.] जीयकप्प-चुण्णी तिषणस्सइ-अपरिणए खमणं । एत्थ य चउभंगो-दवे अपरिणयं, भावे वि अपरिणयं । भावापरिणयं दोण्हं पि' भुञ्जमाणाणं, पत्थ विपुरिमहं। इयाणि लित्तं भन्नइ-संसत्तेण हत्येण वा मत्तेण वा आयामं । इयाणिं छड्डियं भन्ना-पुढवि-आउ-सेउ-वाउ-परित्तवणेसु आयामं । अणतिवणेसु खमणं । एए एसणा दोसा। संजोयणा दुविहा-याहिं भायणे, अन्तो वयणे । दोण्ह वि खमणं । परिमाणाइरित्ते 5 आयामं । सइंगाले खमणं । धूमे आयामं। अकारणे भुजइ आयामं । कारणे अभुञ्जमाणस्स आयामं । घासेसणा दोसा एए। एयम्मि पच्छित्तपत्थारे३५. 'उहेसियचरिमतिए' इच्चाइ गाहा। एयाओ दोषि गाहाओ जेसु जेसु ठाणेसु ... ३६. 'अइरं अणन्त' इन्चाइ गाहा। अब्भत्तटुं तेसु तेसु ओयारिजन्ति। ३७. 'कम्मुद्देसियं' इन्चाइ गाहा। एयाओ दोवि जेसु जेसु ठाणेसु आयाम तेसु तेसु ३८. 'अइरं परित्त०' इश्चाइ गाहा। ओयारिजन्ति । ३९. 'अज्झोयर' गाहा । एगासणयट्ठाणेसु ओयारिजइ । ४०. 'ओह विभागा' इच्चाइ गाहा। एयाओ तिणि गाहाओ जेसु जेसु ठाणेसु पुरिमढे ४१. 'सग्गामाहड' इञ्चाइ गाहा। 15 ४२. 'पत्तेय'मिच्चाइ गाहा।। ४३. 'इत्तरठविय' इञ्चाइ गाहा । एसा निविईयं जेसु जेसु ठाणेसु तेसु तेसु ओयारिजइ । ४४. 'सहसाणाभोगे' इच्चाइ । सहसाणाभोगा पुषुत्ता । तेसु सहसाणाभोगेसु वट्टमागस्स जेसु जेसु कारणेसु पडिक्कमणं भणियं तेसु तेसु चेव कारणेसु आभोएणं जाणमाणो जं करेइ, अइयहुसो पुणो पुणो अइप्पमाणेण वा करेइ, सव्वत्थ निधिगइयं ।। | ४५. 'धावणडेवण' इञ्चाइ । धावणं गहमेदो। डेवणं उल्लंडणं । संघरिसेण गमणं-20 को सिग्धगइ त्ति, जमलिओ वा गच्छइ । किड्डा अट्ठावय-चउरंग-जूयाइ । कुहावणं इन्दजालवखेडाइ । आइसद्देण समास-पहेलिया-कुहेडगा घेप्पंति । उक्कुट्ठी' पुकारिय-कलकलो। गीयं गीयमेव । छेलियं सेंटियं । जीवलयं-मयूर-तित्तिर-सुग-सारसादिलवियं सधेसेतेसु अब्भत्तट्ठो । आइसहेण अजीवरुये वि-अरहट्ट-गड्डिया-पाउया-सहेसु वि। ४६. 'तिविहोवहिणो विधुय' इञ्चाइ । तिविहोवहिणो-जहन्नो मज्झिमो उक्कोसो। मुहपो-25 त्तिय-पायकेसरिया गोच्छगो पत्तठवणं च एस चउविहो जहन्नो। मज्झिमो छधिहो-पडलारयत्ताणं पत्ताबंधो चोलपट्टो मत्तओ रयहरणं च। उक्कोसो चउधिहो-पडिग्गहो, तिन्नि पच्छाया । रए ओहियस्स थेरकप्पे चोइसमेया भणिया। इयाणि उवग्गहिओ थेरकप्पो"तिविहो भन्नइजहन्नो मज्झिमो उक्कोसो। पीढगं निसिजं डंडगा पमजणी घट्ठगा डगलगा पिप्पलग-सूई तहरणी दंत-कण्ण-सोहणग-दुर्ग; एसो जहन्नो। वासताणाइओ मज्झिमगो। वासताणा पंच 30 इमे-वालो सुत्तो सुंगो" कुडसीसग छत्तए चेव ॥ तेहिं य दोनिओ ओहोवहिम्मि वाले य सोत्तिए चेव । सेसतियवासताणे पणयं तह चिलिमिलीण इमं ॥ 1A तु। 2 A हत्थे मत्ते वा। 3 A 'भुजई' नास्ति । 4 B गतिः । 5 B उड्डणं । A कुटा। 7 A उकुट्ठिय। 8 B सिंटियं। 9 B पच्छागा । 10 B कप्पो। 11 B प्पे। 12 A बाले सुत्ते सूई। 13 Bओहोविहि । ३जीक.चु. Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aamaaaaaamam सिद्धसेनसूरिकया [गाथा ४७-५० वालमई सुत्तमई पागमई तहय इंटकडगमई । संथारगदुगमझुसिरं मुसिरं पिय डंडपणगंव खंड विडंडग-लहि-विलट्ठी तह नालिया य पंचमिया । अवलेहणि मत्त-तिगं पासवणुचारखेले य चम्मतियऽत्थुर पाउरतलिग अहवाविचम्मतिविहमिमं। कत्तीतलियावन्भा पट्टगदुगंचेव होइइम संथासत्तरपट्टो अहका सभाहपट्टपल्हत्थी । मझो अजाणं पुण अपरित्तो पारगो होह ॥ 5 अक्खा संथारो वा दुविहो एगंगिओ य इयरो वा । बिहयपय पोत्थपणगं फलगं तह होइ उक्कोसो ___एस अजाणं साहूणं चोग्गहिओ भणिओ। इयाणि अजाणं ओहिओ भन्नइ । जो श्चिय थेरकप्पियाण ओहोवही चोइसविहो सो चेव अजाणं पि । नवरंअजाणं एस च्चिय चोलट्ठाणम्मि कमढगं नवरं । अन्नो य देहलग्गो इमोवही होइ तासिं पि ओग्गहणन्तगपट्टो अट्टोरुगचलणिया य बोधया। अब्भिन्तरबाहि-नियंसणीय तह कंचुए चेव 10 उक्कच्छिय-वेकच्छिय संघाडी चेव खंधकरणी य । ओहोवहिम्मि एए अजाणं पनधीसाओ ___ एस्थ अजाणं जहन्नो जो चेव साहूणं ओहिओ चउधिहो। उकोसो अट्टविहो-चउरो चेव पुषुदिट्टा जे साहूणं । अन्ने य इमे चउरो-अन्भिन्तरबाहि-नियंसणीय संघाडी खंधकरण एसो उक्कोसओ उ अजाणं । तेरसविहो उ मज्झो इणमो उ समासओ होइ॥ पत्ता बंधाईया चउरो ते चेव पुष्वनिहिट्ठा । मत्तो य कमढगं वा तह ओग्गहणन्तगं चेव ॥ 15 पट्टो अट्टोलविय चलणिय तह कंचुगे य उकच्छी। वेकच्छी तेरसमा अजाणं होइ णायचा ॥ - जहन्नोवहिम्मि 'विञ्चुए' पडिए पुण लछे निविईयं । मज्झिमे पुरिमटुं । उक्कोसए एक्कासणयं 'विस्सरिया पेहिए'त्ति-पडिलेहिउँ विस्सरिउ त्ति भणियं होइ । जहन्ने अप्पडिलेहिए निधिईयं मज्झिमे पुरिमटुं । उक्कोसे एक्कासणयं । 'विस्सारियानिवेयणे'त्ति निवेइउं' विस्सरियं हि आयरियाईणं तिविहो वि। तो एवं चेव पच्छित्तं । अह पुण सधोवही विश्व 20 पुणरवि लखो। पडिलेहिउँ वा विस्सरिओ। निवेइ वा विस्सरिओ सधो चेव, तो आयाम ४७. 'हारिय धो'इच्चाह । हारिए जहन्नोवहिम्मि एमासणयं । मज्झिमे आयामं । उक्को चउत्थं धोए वि एवं चेव पच्छित्तं तिविहं। उम्गमेउं न निवेइए। जाणन्तो वि जहान पर परिग्गहिउं आयरियस्स अणिवेइओ उवही । तस्सानिवेइयस्स तिविहं एयं चेव पच्छित्तं अदिनं वा आयरियाईहिं जहन्नाइ-मेयं उवहिं परिभुञ्जइ एयं चेव तिविहं पच्छित्तं 25 दिन्नं वा उवहिं जहन्नाइ-मेयं आयरियाईहिं अणणुन्नाओ अन्नेसि देइ । एत्थ वि एवं चे पच्छित्तं तिविहं । अह पुण सचोवहिं हारेजा। सधोवहिं वा उदुबद्धे धोवेजा । सधोवहिं । उग्गमेउन निवेएइ। सवोवाहिं वा अदिन्नं परिभुञ्जइ । सोवहिमणापुच्छाए अणणुनाउ वा अन्नेसिं देह । एवं सघहारवणाइएसुपएसु जीएण छटुं। ४८. 'मुहणन्तय' इच्चाइ । मुहणन्तए फिडिए ओग्गहाओ निधिईयं । रयहरणे अब्भत्तट्ठो 30 एवं ताव अणटे। अह पुण नासियं हारवियं वा पमाएण मुहणन्तयं तो से चउत्थं । रयहरणे छई ४९. 'कालद्धाणाईए' इञ्चाइ । विगहाइपमारणं कालाईयं करिन्ति भत्ताइ निविदर अह पुण परिभुञ्जन्ते चउत्थं । एवं अद्धाणाइक्कमे वि अपरिभुञ्जन्तस्स निविईयं; परिभुअन्तर अब्भत्तट्ठो । पारिट्ठावणियं सचमेवाविहीए विगिञ्चिन्तस्स भत्ताइ पुरिमटुं । ५०. 'पाणस्सासंवरणे' इच्चाइ । पाणाहारासंवरणे । भूमितिगं ति-उच्चार-पासवा 35 कालभूमि। एगतर-अपडिलेहणाए वि निविईयं । चउविहाहारासंवरणे, अहवा नमोका पोरिसियाइयं पञ्चक्खाणं ण गेण्हइ; गहियं वा पञ्चक्खाणं भाइ सम्वत्थ पुरिमहूं।। 1B पुस्तके 'मई' स्थाने सर्वत्र 'मती' पाठः। 2 Aचिय। 3 Bओतरि०। 4 A पिइय 5 B चेवो। 6 B चोलगट्ठाणंमि। 7 A निवेएउ। 8 A तिविहे। 9 A निवेउं । 10. वणाइस। 11 Aपमाएण। 12 A 'वि' नास्ति । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ था ५१-५६. ] जीयकप्प-चुण्णी ५१. 'एयं चिय' इञ्चाइ । एयं चिय युरिमहूं । सामन्नं अविसेसियं ति भणिय होइ । तवो बारसविहो । पडिमाओ बारस-मासिया, दोमासिया, तिमासिया, चाउमासिया, पञ्चमासिया, छम्मासिया, सत्तमासिया, पढम-सत्तराइन्दिया, दोश्च-सत्तराइन्दिया, तइय-सत्तराइन्दिया, अहोराइया, एगराइया । अभिग्गहा दवनेत्तकालभावमेयभिन्ना । एएसि अगेण्हणे भंगे वा पुरिमखु । गाहा पच्छखस्स विभासा' इमा। पक्खिए अष्भत्तट्टमायंबिलं वा। जं वा दिवस- 5 पश्चक्खाणं । ताओ जहासत्तीए तवं न करेइ अइरित्तं, तो खुड्डगस्स निधीईयं, थेरगस्स पुरिमलु, भिक्खुस्स एक्कासणयं, उघज्झायस्सायंबिलं, आयरियस्स अब्भत्तट्ठो। चाउम्मासे खुडगाइ-आयरियावसाणाणं पंचण्ह वि जहासंखं पुरिमड्डेगासणायामचउत्थछट्ठाई दिजन्ति । संवच्छरिए एक्कासणायामचउत्थछट्ठट्टमाइं दिजन्ति जहासंखं पंचण्ह वि।। ५२. 'फिडिए' इश्चाइ । फिडिओ निहापमाएणं एगस्सुस्सगस्स निधिईयं । दोसु10 पुरिमखु । तिहि वि एगासणयं । काउस्सग्गाणं चेव फिडिओ पच्छाधुन्तओ करेइ ताहे आयामं । सयं वा उस्सारेइ एगाइ काउस्सग्गे तो निधीइयपुरिमड्डेगासणाई जहासंखं । सधे चेव सयमुस्सारेड आयामं । भग्गे वा एगाइसुस्सग्गे अपुण्णे चेव अन्तराले तहा वि निधिईयपुरिमलेगासणाई । सन्वेसु भग्गेसु आयामं । एवं वन्दणपसु वि एस चेव गमो।। ५३. 'अकएसुं' इञ्चाइ । अहवा उस्सग्गमेव न करेइ । एगाइ ताहे पुरिमेगासणायामाई 115 सवावस्सयं न करेइ चउत्थं । जहा काउस्सग्गे एवं वन्दणाइएसुं पि गाहा पच्छशेण सह चउत्थं सम्बज्झइ । दिया अपडिलेहिए थंडिले राओं वोसिरह, दिया वा सुवह चउत्थं। ५४. 'कोहे बहु' इच्चाइ । सगिमुप्पन्नं कोहं पक्खाओ उरि चाउम्मासाओ वा उवरि धरे तो चउत्थं । आसवो वियर्ड तमाइयंते चउत्थं । कक्कोलग-लवंग-पूगफल-जाइफल-तं. बोलाइसु सम्वत्थ चउत्थं । पुष्वगाहाओ अणुवट्टाविजइ । लसुणे अचित्ते पुरिमहूं । आइसहेण 20 पलंडू घेप्पइ । तण्णगमयूरतित्तिराइ-बंधमुयणे पुरिम8।। ५५. 'अझुसिर' इवाइ । अझुसिरतणं कुसाइ तेसिं अकारणपरिभोगे निधिईयं,' सेसपणएसु पुरिमटुं । सेसा पंच पणगा-तणपणगं, दूसपणगं', पोत्थयपणगं, चम्मपणगं । एत्य य दूसपणगं दुधिहं तेण पंचपणगा। तत्थ सालीवीहीकोहवरालगआरतणं चेति तणपणगं। दूसपणगं दुविहं-दुप्पडिलेहिय-दूसपणगं अप्पडिलेहिय-दूसपणगं च । कोयवि पावारग° पूरी दाढियाली 25 विराली, पयं दुप्पडिलैहिय-दूसपणगं । तुली आलिंगणी अंगोवहाणं" गंडोवहाणं मसूरगो य एयं अप्पडिलेहिय-दूसपणगं । गंडीपोत्थओ", कच्छवीपोत्थओ, मुट्ठीपोत्थओ, छिवाडी", संपुडगं, एयं पोत्थयपणगं । गो-माहिस-अय-एला-मिय-चम्मपणगं। पत्थ य तणपणए दुप्पडिलहिय-दूसपणए चम्मपणए य पुरिमटुं । अप्पडिलेहिय-दूसपणए एक्कासणयं । पोत्ययपगगग्गहणे आयामं । बेइन्दियाइ-तसवहे जं च आषजइ तं च दिजह । बिइय-चुनिकारमरण पो-80 स्थयपणगे वि पुरिमहूं। ५६. 'ठवणमणापुच्छाए' इबाइ । वाणसडअहाभइसन्निमाईणि ठवणकुलाणि । ताणि आय. रियमणापुच्छिय भत्ताह पविसिऊण गेण्हह जइ तो से पक्कासणयं । तेसु य कुलेसु पगो चेष संघाडगो णिधिसइ सेसा न पविसन्ति । विरियं परकमो तं निगृहन्तस्स एक्कासणयं । जीयषषहारे एयं । सुयववहाराइसु अन्नहा । एक्कासणयं च माया"निप्फन्नं । सेसमायाओ अन्न-35 - 1A पुस्तके 'ति भणियं' पतितं। 2 A विहासा। 3A कमसो। 4 B. गासणं आया । 5 B 'राओ' नास्ति । 6 A तमापियते। 7 B पुस्तके 'अज्झुसिरतणेसु निव्वीयं' एतावन्मात्रपाठः। 8 B पोत्थय पणगं, दूसपणगं। 9 B अरण्णतिणं। 10 B कोयव पावार- 11 A मडंगोवहाणं। 12 A मंडोवहाणी। 13 Bवा। 14 A पोत्थगो। 15 B छेवाडी। 16Aमायः। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० सिद्धसेनसूरिकया [गाथा ५७-६२ मायाओ, ता य इमा-जहा-भड्गं भोच्चा विवनं विरसमाहरे आयरियसगासे। जसत्थी जहा'एस महा तवस्सी विरसाहारो रसपरिञ्चागं करेइत्ति । एवमाइयासु मायासु खमणं । ५७. 'दप्पेणं'इच्चाइ । दप्पो वग्गण-धावण-डेवणाइओ'। दप्पे वट्टमाणेण पञ्चिन्दिओ पहिओ होजा । संकिलिट्टकम्म-अंगादाण-परिमहण-सुकपोग्गल-निग्घायणाइ,दीहवाण-पडिवनोय । 5 आहाकम्म-चाणकप्पाइयं वा बहु अइयारं करेजा। दीहगिलाणकप्पस्स वा अवसाणे आहाकम्मसन्निहिसेवणं वा कयं होजा । एएसु कारणेसु पंचकल्लाणगं पच्छित्तं । ५८. 'सवोवहि'इच्चाइ। पाउसे जयणाए वि सम्वोवहि कप्पे कए पुरिमत्ताए वा चरिमाए पमाएणं । अप्पडिलेहिए चाउम्मासवरिसेसु य विसोहीए पउत्ताए निरइयारस्स वि पंचकल्ला णगं दिजइ । किं कारणं । जम्हा सुहुमाइयारे कए वि न याणइ न वा संभरइ । जहा पाउसडर 10 त्तवेरत्तपाभाओगकालाग्गहणे सुत्तत्थपोरिसि-अकरणे अप्पडिलेहियमाई । एएण कारणेण सवेसु वि दिजा त्ति। . ५९. 'छेया'इच्चाइ ।जो छेयं न सहहइ, किं वा छिजर न छिजइत्ति एवं भणइ। मिउणो त्ति-- जो छिजमाणे वि परियाए न संतप्पर जहा 'मे परियाओ छिन्नोति । अहवा अन्नेसिं ओमराइणिओं जाओ त्ति परियायगविओ जो दीहपरियाओं सो परियाए छिन्ने तह 15 अब्भहियपरियाओ न ओमराइणिओ होइ। नवा बीहेइ परियायछेयस्स। एएसिं जहुद्दिवाणं छेय मावन्नाण वि तवो दिजइ । आइसहेण मूलाणवट्ठपारंचियपयावन्नाण वि । जीयववहारमएणगणाहिवइणो य। गणाहिवई आयरिओ तस्स छेयाइमावनस्सावि तवारिहं दिजइ । मा पुण सेहदुसुंठाईण अपरिणामगाणं हीलणिज्जो भविस्सह त्ति । चसद्देण कुलगणसंघाहिवा घेप्पन्ति ।। ६०. 'जं जमिचाइ । इह जीयववहारे जं जं पच्छित्तं न भणियं अवराहमुहिसिऊण 20 तस्सावि आवत्तिविसेसेण दाणसंखेवं भणामि । आवत्ती पायच्छित्तठाणसंपत्ती। सा य निसीहकप्पवघहाराभिहिया । सुत्तओ अस्थओ य । आणा अणवत्थमिच्छत्तविराहणा सविस्थरा। तवसो य-सोय तवो पणगादी छम्मासपजवसाणो अणेगावत्तिदाणविरयणा लक्षणो तेसु सव्येसु गंथेसु । इह पुण जीयववहारे संखेवेणं आवत्तीदाणं निरूविज। ६१. 'भिन्नो अविसिट्ट'इन्चाइ । भिन्न इति ससमयसन्ना; पंचवीसं दिवसा भिन्नसदेण 26 घेप्पन्ति। सोय अविसिट्रोएको चेव। अविसिद्धगहणाओय सधपणगाई मेया घेप्पन्ति। पणगं लहुगं, गुरुगं च; दसगं-लहुगं, गुरुगं च;" पन्नरसगं-लहुगं, गुरुगं च; वीसगं-लहुगं, गुरुगं च पंचवीसगं-लहुगं, गुरुगं च । एस भिन्नमासो बहुमेओ वि एको चेव घेप्पर । एसो य सुयववहारो जेसु जेसु अपराहेसु भणिओ तेसु चेव अवराहेसु" जीएण सवत्थ निविगई। भिन्नो अविसिट्टो चिय एवं वक्खाणियं । इयाणि मासो त्ति । सो य लहुमासो गुरुमासो य । एत्थ य 30 लामासे परिमई। गुरुमासे पक्कासणयं । चउरोय उच्च मासा सम्बज्झन्ति । सत्थ लाचउमासे आयामं । चउगुरुमासे चउत्थं । छलहुमासे छठें। छगुरुमासे अट्ठमं । एवं सुत्तनिहिट्ठावत्तिं जहावराहं जाणिऊण जीएण निविदयाइ-अट्ठमभत्तन्तं तवं देजा। ६२. 'इयसधावत्तीओ' इच्चाइ । इय एवं एएण पगारेण। सधावत्तीओ सवतवट्ठाणाई। जहक्कम पायच्छित्ताणुलोमेण । समए सिद्धते । जीएण देजा। निविण्याइयं दाणं जह जह 35 भणियं तहा तहा देज त्ति भणियं होई । 1A मायातो। 2 Aणादीओ। 3A निग्याइयणाह। 4 A पडिपंनो। 5 B.राइणितो। 6 B परियागो। 7 A विच्छिन्ने। 8 ०णएण। 9 B .हारादि अभिहिया। 10 B 'सव्वेसु नास्ति। 11 A पुस्तके द्वितीयं वाक्यं नोपलभ्यते। 12 अत्र B पुस्तके 'जेसु अवराहेसु भणि अवराहेसु एतादृशः खण्डितः पाठः। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ६३-६७. ] जीयकप्प - चुण्णी ६३. 'एयं पुण सव' मिच्चाइ । एयं ति जहुद्दिहूं । पुण सद्दो विसेसणे । सवं पायच्छित्तदाणं । पाएण बाहुलेण । सामन्नमविसेसियं । विसेसेण निहि विणिद्दि । देयं विभागेण । दवाइ – आइस देण- खेत्तकालभावपुरिसपडिसेवणाओ य । अविक्खिऊण विसेसियं । ऊणाइरित्तं तस्स मंवा (?) देज त्ति । 5 ६४. 'दवं खेत्त' मिच्चाइ । पढमं गाहद्धं कण्ठं । नाउम्मि तं चिय- जाणिऊण दवाइ विभागमि तं चैव परिमाणपरिच्छिन्नं देजा। अहवा, नाउमियं चिय - इदमिति पच्चक्खीभावे । इदमेव जीयववहारभणियं देजा । तम्मत्तं' भणियसमं । दवखेत्तकालभावपुरिसपडि सेवगादी ही हीणं देजा । अहिएसु' अहियं देजा । साहारणेसु साहारणं देजा । ६५. ' आहाराई दघ ' मिचाइ । आहारो आई जेसिं दुष्वाणं ताई दवाई आहाराईणि । जम्मि देसे ताई बलियाई । जहा अणूवपसे सालिकूरो बलिओ । सहावेणं चेव सुलहो' य । एयं 10 नाऊण जं जीयभणियं दाणं तस्सम्भहियमवि देजा । जत्थ पुण चणक- निष्फाव-कंजियाइ लुक्खाहारो; दुल्लहो वा; तत्थ जीयदाणं हीणमवि देजा । ६६. 'लुक्ख' मिचाइ । लुक्खं नाम नेहरहियं । खेतं वाय' - पित्तलं वा । सीयलं पुण सिणिद्ध भन्न अणूवखेत्तं वा । निद्धलुक्खं साहारणं भन्नइ । इह य जीयदाणे णिखेत्ते अहियं देजा' । साहारणे जहा भणियं समं देजा । लुक्खखेत्ते हीणं देजा । एवं काले वि तिविहे' 15 तिविहं देजा। ६७. 'गिम्हसि सि र 'इवाइ । गिम्हो लुक्खो कालो । साहारणो हेमन्तो । वासारतो निद्धो । गिम्हे तिविहो तो - जहन्नो मज्झो उक्कोसो । जहन्नो चउत्थं, मज्झिमो छहूं, उक्कोसो अट्टमं । हेमन्ते तिविहो - जहन्नमज्झिमुकोसो छट्ठट्टमदसम मेओ । वासारते वि जहन्नमज्झिमुकोसो अट्ठमद्समघारसमेयभिन्नो। एस नवविहो ववहारो । एयं सुहु जाणिऊण सुयववहारेण वा 20 नवविहविगप्पेण सुड्डु जाणिऊण तिविह-काले तिविह-विगप्पियं तवं देजा । सो य इमोमहागुरुआ । एत्थ य मूलिया नवमेया नवभेयपत्थारे दट्टधा । विभजमाणा सत्तावीसं । आवत्ति- दाण- तवसा कालेण य निओएयवा । एस नवविहो ववहारो वनिओ त्ति । सो य नवविहो ववहारो इमो - गुरुओ गुरुतराओ' अहागुरु चेव होइ ववहारो । लहुओ लहुयतराओ' अहालहू होइ " ववहारो ॥ लहुसो लहुसतराओ अह लहुसो चैव होइ ववहारो । एएसिं पच्छित्तं वोच्छामि अणाणुपुवीए - ( सुत्ताणुसारेण ) ॥ गुरुगो य होइ मासो गुरुयतराओ" य होइ चउमासो । अह गुरुगो छम्मासो" गुरुपक्खे होइ पडिवत्ती ॥ तीसा पनवीसा वीसा " विय होइ लहुयपक्खम्मि | पनरस" दस पंचे व य लड्डुसय" पक्खम्मि पडिवत्ती ॥ गुरुगं च अट्टमं खलु गुरुयतरागं" च होइ दसमं तु । अह गुरुगं वारसमं गुरुपक्खे होह पडिवत्ती ॥ २१ 1 B 0 मित्तं । 2 A अहिए । 3A अण्णव । 4 B सुलभो । 5 B वातं । निद्धं । 7 A तिहे । 8 B गुरुततरा० । 9B लहुग• । 10 B लहू चेव होइ । गुरुयो । 12 A •म्मासं । 13 A द्वितीय 'वीसा' पतितम् । 14 B पण्णरस । लहुसप० । 16 B गुरुतरा• । 6 B 11 B 15 B 25 30 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा ६७. WAAAMANANAMMA सिद्धसेनसूरिकया छटचउत्थायंबिल लहुपक्खे होइ' पडिवत्ती। एगासण-पुरिमई निधीय लहुससुद्धो वा॥ ओहेण एस भणिओं, एत्तो वोच्छं पुणो विभागण तिगनवसत्तावीसा एक्कासीतीय भेएहिं ॥ नपविह ववहारेसो संखेवेणं तिहा मुणेयधो। उक्कोसो मझो वा जहन्नगो चेव तिविहो सो॥ उक्कोसो गुरुपक्खो लहुपक्खो मज्झिमो मुणेययो। . लहुसगपक्खो जहन्नो तिविगप्पो एस णायधो॥ गुरुपक्खो उक्कोसो मझ जहन्नो य एस लहुगे वि। ___एमेवय लहुसेवी एवेसो नवविहो होइ ॥ गुरुपक्खे छम्मासो पणमासो चेव होइ उक्कोसो। मझो चउ त्ति मासो दुमासगुरुमासग' जहन्नो॥ लहुमासभिन्नमासा वीसा विय तिविहमेव लहुपक्खे । पन्नरस दलगं पणगं लहुसुक्कोसाइ तिविहेसो॥ आवत्ति तवो एसो नवमेओ वनिओ समासेणं। अहुणाउ सत्तवीसो दाणतवो तस्सिमो होइ ॥ गुरु लहु लहुसगपक्खे एकेके नवविहो मुणेयधो।। उकोसुक्कोसो वा उक्कोसो मज्झिम जहन्नो ॥ मझुकोसो मज्झिम मज्झो तह होइ मज्झिम जहन्नो। इयणेया जहन्ने वी उक्कोसो मज्झिम मज्झिम जहन्नो। गुरुपक्खे नघ पए नव चेव य होन्ति लहुय पक्खे वि। नव चेव लहुसपक्खे सत्तावीसं हवन्तेए ॥ बारसमदसमअट्ठम छप्पणमासेसु तिविह दाणेयं । चउत्तिमासे दस अट्ठ"छट्ठ उक्कोसगा" तिधिहा ॥ एमेषकोसाई18 दुमासगुरुमासिए तिहा दाणं। - अट्ठम छ? चउत्थं नवविहमेयं तु गुरुपक्खे ॥ इसमं अट्ठम छटुं लहुमासुक्कोसगाइ तिह दाणं । अट्ठम छ? चउत्थं उक्कोसादेत तिह भिन्नं ॥ छट्ट चउत्थायामं उक्कोसादेय दाणवीसाए। - लहुपक्नम्मि नवविहो एसो वीओ" भवे नवगो॥ अट्टम छट्ट चउत्थं एसुक्कोसाइ दाणपन्नरसा। छ? चउत्थायामं दससू तिविहे य दाणभवे ॥ खमणायामेकासण तिविठुक्कोसाइ दाणपणगेयं । लहुसेस तइयनवगो" सत्तावीसेस वासासु॥ 1 Bहोति। 2 A निव्वीईयं । 3 B भणितो। 4 B एकासी इय। 5A मज्झिम । 6A एवं। 7A मासिग। 8 B मासो। 9 A पुस्तके 'वीस लहुक्कोसमज्झिमजहन्ना' एतादृशो द्वितीयः पादः। 10 A दसग। 11 A अठ्ठम । 12 B ०स गादिति। 13 B •सादी। 14 A एय । 15 A मिन्ने। 16 A एय। 17 B बितिओ। 18 B .सादि। 19 B .रसे। 20 B •साइयाण । 21 A ततिय। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ६८-७१.] जियकप्प-चुण्णी सिसिरे दसमाईणं' चारणमेएण सत्तवीसेण । ____ठायइ पुरिमड्डम्मी अड्डोक्न्तीय तह चेव ॥ अट्ठममाई गिम्हे चारणमेएण सत्तवीसेण । तह चेव य ढोकन्ती ठावइ निचीयए नवरं ॥ एपहिदाणेहिं आवत्तीओ सया सया नियमा। बोधवा सधाओ असहुस्सेकेकहासणया ॥ जाव ठियं एकेक तं पीहासेज असहुणो ताव । दाउं सट्ठाण तवं परटाणं देज एमेव ॥ एवं ठाणे ठाणे हेटाउत्तो कमेण हासंतो। नेया जावठियं नियमा निवीइयं' एकं ॥ _10 एस नवविहो ववहारो। ६८. 'हट्ठगिलाणा'इञ्चाइ । भावं पडुच्चसममहियमूणं वा देजा। हट्ठस्स नीरोगस्स बलियसरीरस्स समहियं वा देजा । गिलाणस्स ऊणं, नवा वि देजा। जावइयं वा वि सक्केइ तावइयं वा वि से देजा। कालं वा सहेजा; जाव पउणीहोइ । हट्ठो सन्तो करेस्सइ त्ति। ६९. 'पुरिसा गीयागीया' इच्चाइ । पुरिसं पडुच्च सममहियं ऊणं वा देजा। पुरिसा केइ 15 गीयत्या. केह अगीयत्था। घिदसंघयणसंपन्नत्ताओ केइ सहा, तविरहियत्ताओ के असहा। सढा मायाविणो, असढा उजुभूयप्पाणो । उस्सग्गे उस्सग्गं । अववाए अववायं । जहा भणियं सहहन्ता आयरन्ता य परिणामगा भन्नन्ति, अपरिणामगा पुण जे उस्सग्गमेव सद्दहन्ति आयरन्ति या अववायं पुण न सहहन्ति नायरन्ति य । अइपरिणामगा जे अववायमेवायरन्ति तम्मि चेय सञ्जन्ति, न उस्लग्गे। 20 ७०. 'तह धिइ'इच्चाइ । तहेत्ति आणन्तरिए । घिइ-संघयणे चउभंगो। घिइए संघयणेण य पढमो संपन्नो । इह य पढमपच्छिमा भंगा दुवे संगहिया सुत्तण, मज्झमिल्ला दुवे भाणियचा। अहवा बितियचुनिकारा भिप्पाएण चत्तारि विसुत्तेणेव गहिया। कहं ?-धिइसंपन्ना, ण संघयणेण संघयणेण वा संपन्ना, ण धिईए २। उभयसंपन्ना ३। उभयहीणा य ४। अहवा इमे पंच विगप्पा । आयतरे णामेगे नो परतरए १ । परतरए नामेगे, नो आयतरए २। एगे आयतरए वि 25 परतरए वि३।एगेनो आयतरए नो परतरए ४। एए चत्तारि भंगा ठाणक्कमेण । तहा पंचमो अनतरतरगो नाम विगप्पो । आयतरगो नाम जो उपवासेहिं ढो। परतरगो नाम जो वेयापञ्चकरो गच्छोवग्गहकरो व त्ति । अन्नतरतरगो" नाम जो एकं सक्केइ काउं, तवं वेयावश्चं था। न पुण दो वि सक्केइ । ७१. 'कप्पट्टिय' इच्चाइ । कप्पट्ठिया आईए" जेसिं ते कप्पट्टियादओ। आइसहेण-30 परिणया", कडजोगी, तरमाण त्ति एए" चत्तारि घेप्पन्ति । "एएसिं चेव पडिवक्स्त्रभूया अण्णे वि चत्तारि जणा घेप्पन्ति । अकप्पट्टिया अपरिणया अकडजोगी अतरमाणगा । तत्थ कप्पट्ठिया जे आचेलुकुइसियाइ दसविहे कप्पे ठिया । कयरे ते?-इमे वक्खमाणा आचेलुक्कुद्देसिय सेजायररायपिंडकिइकम्मे । वाजेट्ठ पडिक्कमणे मासं पजोसवणकप्पे ॥ 35 1 B oमादीणं । 2 B ठायति। 3 B चेव अड्डो०। 4 A निव्वीईए। 5 A oहाणे । 6B हेटाहुन्तो। 7 A ०व्वीइयगं। 8 A तस्मिन्नेव । 9 B बिइयचुन्निगारा। 10 A. एते । 11 A पुस्तके 'अन्तरगो'अपपाठः। 12A अइया। 13Aणता । 14 एते। 15 ‘एपसिं' भारभ्य 'घेप्पंति' यावत् पाठः A पुस्तके पतितः। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ wwww www सिद्धसेनसूरिकया [गाथा ७२-७३ जे पुण मज्झिमजिणसन्तगा महाविदेहगा य ते अकप्पट्ठिया। कप्पट्ठिया दुविहा-सावेक्ला, निरवेक्खा य। सावेक्खा गच्छवासी, निरवेक्खा जिणकप्पियादयो। एवमकप्पट्रिया वि सावेक्खा निरवेक्खा य । परिणया गीयत्था, अपरिणया अगीयस्था। कडजोगिणो चउत्थ छट्टट्ठमाईहिं विविहतवोवहाणेहिं जोगवियसरीरा । अकडजोगिणो अपरिकम्मवियसरीरा। 5 तरमाणगा धिइसंघयण-संपन्ना । अतरमाणगा एएहिं विउत्ता। ७२. 'जो जह' इच्चाइ । एएसिं कप्पट्टियाइयाणं सावेक्ख-निरवेक्खमेयाणं जो जह सके। तवं काउं। बहुतरगुणो नाम घिइसंघयणसंपन्नो परिणयकडजोगी आयपरतरो वा होजा। तस्साहियं पि दिजा। कओहिंतो अहियं?-जीयववहारभणियाओ। जो पुण हीणो धिइसं घयणाई हिं तस्स थोवतरयं पि' जीयभणियाओ देजा । जो पुण सधहीणो तस्स सधं झो. 10 सेजा, न किंचि दिजा त्ति जं भणियं होइ । ७३. 'एत्थ पुण' इच्चाइ । एत्थ एयम्मि जीयववहारे बहुतरया भिक्खुणो त्ति। तेय अकयकरणा अजोगविया अणभिगया अगीयस्था। च सहेण अथिरा विय त्ति । जं तेण कारणेण जीयववहारे अट्ठमभत्तं अन्तो निधीइयमाईए । एयं मज्झं गहियं जन्तविहीए । एयस्लेव फुडी करणत्थं जन्तविहाणं भणामि । तिरियाए तेरसघरए काउं हेट्टाहुत्तो य जाव नव घराइं पुण्णाई 15 ताव ठावेयर्छ । पच्छा एएसिं णवण्हं हेट्ठा जाई दाहिणेण अन्तेठियाणि दोन्नि घरयाई ताई मोत्तूणं अहो एगं घरयं वड्डाविजइ । ताहे तिरियायया" एक्कारस घरया होन्ति । पुणो एएसि एक्कारसहं सबदाहिणा दुवे मोत्तूणं अहो एगं घरं वड्डाविजइ । ताहे ते आयता णव घराहोन्ति। एवं दुवे दुवे छडुन्तेणं घरयाई हेछिल्लदाहिणिल्लाई ता नेयचं, अहो एकेक घरयवड्डीए जाव एकमेव घरयं सवाऽहोजायं । एवमेयस्स घरजन्तयस्स सखुवरि तिरियायया सेढी। तीसे सेढीए उवरिं 20 सवाईए निरवेक्खं ठावेजा। निरवेक्खस्स या दाहिणेण बिइय-तइयघर मज्झनिग्गयरेहो वरिं आयरियं कयकरणं अकयकरणं च ठावेजा। चउत्थपंचमघरयमज्झविणिग्गयरेहोरि कयकरणं उवज्झायं अकयकरणं च ठावेजा" । छट्टसत्तमअट्टमनवमघरयमझविणिग्गयरेहो. वरिं गीयभिक्खं ठावेजा, थिरं अथिरं च । तत्थ जो सो थिरो सो कयकरणो अकयकरणो य । अथिरो वि कयकरणो अकयकरणो य । तओ" पुण दसमएक्कारसबारसतेरसघरयमझ. 25 विणिग्गयरेहोरि अगीयभिक्खं ठावेजा, थिरमथिरं च थिरं कयकरणं अकयकर रं कयकरणं अकयकरणं च ठावेजा । एवं ठावेऊण णिरवेक्खहेट्ठिमघरए सुन्नं ठावेयवं । जम्हा तहिं पारंचियं पयं होह । सो य निरवेक्खो सहावेण चेव पारंचिओ तम्हा तहिं सुन्नं ठावेयचं । एयस्स दाहिणेण कयकरणायरियहेट्ठा पारंचियं। एवं तहिं चेव अवराहे-जहिं कयकरणायरि यस्स पारंचियं अकयकरणस्सायरियस्स तम्मि चेवावराहे अणवट्ठप्पं । एत्थ चेवावराहे30 कयकरणोवज्झायस्स अणवर्ट(ट्रप्पं)। एत्थ चेवावराहे अकयकरणोवज्झायस्स मुलं । एत्थ चे वावराहे गीयभिक्खु-थिरकयकरणस्स मूलं । एत्थ चेवावराहे गीयभिक्खु थिरअकयकरणस्स छेओ। एत्थ चेवावराहे गीयभिक्खु-अथिरकयकरणस्स छेओ। एत्थ चेवावराहे गीयमिक्खु अथिर-अकयकरणस्स छग्गुरू । एत्थ चेवावराहे अगीयभिक्खु-थिरकयकरणस्स छग्गुरू । एत्थ चेवावराहे अगीयभिक्खु थिरअकयकरणस्स छल्लहू । एत्थ चेवावराहे अगीयभिक्खु अथिर 1A वा। 2A विहाणेहिं । 3 Bणगा दोहि विजुया। 4 A पन्ना। 5A आयतरगो। 6 B यातो । 7 A 'पि' नास्ति । 8 A सस्स । 9 A सोसेज्जा । 10 B फुडीकरणत्थं । 11 B .यायता। 12 B सव्वुप्परिं। 13 B ०यायता। 14 B सव्वातीए। 15 A 'य' नास्ति। 16 A ततिय। 17 'कय आरभ्य 'ठावेज्जा' यावत् पतिः पतिता A आदर्श । 18 B गीयंभिः । 19 B ततो । 20 A सभावेण । 21 B एवं। 22 अत्र द्वित्राः पतयः पतिताः A आदर्श । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया ७४-७७.] कयकरणस्स छल्लहू । एत्थ चेवावराहे अगीयभिक्खु-अथिर-अकयकरणस्स चउगुरू । एवं एयाए' पन्तिए पायच्छित्तट्राणरयणा एवं कायचा । सुन्नं । पारश्चियं । अणवटप्प। अणवटप्प। मूल।मूल । छेय।छेय । छग्गुरु । छग्गुरु । छल्लहु। छल्लहु।अन्ते चउ गुरू। एयाए हेट्ठा सुपणं । अणवटुप्पो । मूलं २ । छेदो २। छग्गुरू २ । छल्लहु २। चउ गुरू २ । अन्ते सवदाहिणे चउ लहु । एयाए हेट्ठा मूलं २। छेदो २। छग्गुरू २। छलहु २। चउ गुरू चउ लहु २। सत्वदाहिणे मासगुरू । 5 एयाए हेड़ा छेदो २। छग्गुरू२। छल्लहु२।चउगुरू२चउलहु२। मासगुरू२। सच्चदाहिए मासलहु । एयाए हेट्ठा छग्गुरू २ । छल्लहु २। चउगुरू २ । चउलहु २। मासगुरू २। मासलहु २। सचदाहिणे भिन्नमासो । एयाए हेट्टा छल्लहु २। चउगुरू २। चउलहु २। मासगुरू २। मासलहु२। भिन्नमासो २ । सच्चदाहिणे वीसा । एयाए हेट्ठा चउगुरू २। चउ लहु २। मासगुरू २। मासलहु २। भिन्नमासो २। वीसा २। सचदाहिणे पन्नरस । एयाए चेव हेट्टा चउलहु २। 10 मासगुरू २। मासलहु २। भिन्नमासो २। वीसा २। पन्नरस २। सन्वदाहिणे दस। एयाए हेट्ठा मासगुरू २। मासलहु २। भिन्नमासो २। वीसा २। पन्नरस २। दस २। सवदाहिणे पणगं । एयाए हेट्ठा मासलहु २। भिन्नमासो २। वीसा २। पन्नरस २। दस २। सवादाहिणे पंच । एयाए हेट्ठा भिन्नमासो २ । वीसा २। पण्णरस २। दस २। सव्वदाहिणे पणगं । एयाए हेटा वीसा २। पन्नरस २ । दस २। सवदाहिणे पणगं । एयाए हेट्ठा पन्नरस २। दस २ । सचदा 15 हिणे पणगं । एयाए हेट्ठा दस २। सबदाहिणे पणगं । एयाए हेट्ठा पंच । एयासिंच तिरिया ययाणं घरयाणं आईए जं पयं जहिं अवराहे ठावियं तहिं चेवावराहे ताए पन्तीए पुरिसावेक्खाए सधे पच्छित्तपया चारेयचा । एवं विरईए पुरिसविभागेण पणगादी छम्मासावसाणे निधीयाइ अट्ठमभत्तंतं पुत्र भणियमेव । । अहुणा पडिसेवणा भन्ना 20 - ७४. 'आउट्टिय' गाहा । आउट्टिया नाम जं उवेश्च पाणाइवायं करेइ । दप्पो नाम धावणदेवणवग्गणाइओ, कन्दप्पो वा दप्पो । पमाओ नाम जं राओ दिया वा अप्पडिलेहन्तो' अपमअवम्तो य पाणाइवायाइयमावजइ । कप्पपडिसेवणा नाम कारणे गीयत्थो कडजोगी उवउत्तो अयणाए पडिसेवेज्जा। एसा पडिसेवणा। पडिसेवओ पडिसेवियचंच दोन्नि वि पडिसेवणाए सूइयाई । तत्थ पडिसेवओ पुरिसो पडिसेवियत्वं पुण दवाई । दवमाहाराइ । खित्तं छिन्नमडं 25 प्रेयरं वा । कालो ओम-दुभिक्खाइ । भावे हट्ट-गिलाणाइ । एवं एयं पडिसेवियच्वं ।। . ७५. ['जं जीयदाण' गाहा ।] जं जीयववहारेण मए पच्छित्तं भणियं तमणन्तरं सवं एयं पउण्हपडिसेवणाण आउट्टियाइयाण कयराए पडिसेवणाए पडिसेविए दिजइ?। सन्देह सम्भवे इमं भन्नइ-तइयाए पमायपडिसेवणाए त्ति । दवाइए पडिसेविए सेसपडिसेवणासु पुण कहं भन्नइ । एत्तो च्चिय ठाणन्तरं वड्डेजा। एकं । एत्तो त्ति जहाभणिय-पमाय-ट्ठाण-पायच्छित्ताओ 30 एगट्ठाणबुड्डी कायद्या । पमाए निच्चीयाइ-अट्ठमभत्तन्तं, दप्पेण पुण पुरिमाइ-दसमन्तं होइ । ७६. 'आउट्टिया' इच्चाइ। आउटिं आसेवमाणस्स एकासणाई दुवालसन्तं दिजइ । अहवा सटाणं । पाणाइवाए मूलं । सट्टाणं जं जम्मि वा अवराहे सच्चबहुयं तस्स दिजइ तं चेव सद्राणं होइ । कप्पपडिसेवणाए पडिसेविए पडिक्कमणं, मिच्छादुक्कडमिति च भणियं होइ । अहवा तदुभयं आलोयणमिच्छादुक्कडं च । . 35 . ७७. 'आलोयण' इच्चाइ । आलोयणकाले वि जया गृहइ पलिउश्चइ वा तया सो संकिलिट्ठपरिणामो तस्स अहियं पुण्णं वा दिजइ । जो पुण आलोयणाकाले संवेगमुवगओ निन्दमगरहणाइणा विसुद्धपरिणामो तस्स ऊणमवि देजा। जो पुण मज्झपरिणामो तस्स तम्मतमेव देजा। 1ण्याए य पंतीए। 2 B.लेहितो। 3 Boमजितो। 4A आउटियाए सेव०। 5 B तदा । ४ जी० क. चु० Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धसेनसूरिकया [गाथा ७४-८५. Arunimamrammarrrrammarwanamarrina vuAMAN ७८. 'इति दवाई'इञ्चाइ । इति एवं दवखेत्तकालभावेसु चउसु वि बहुगुणेसु,' गुरुसेवा पहाणसेवा भण्णइ । एएसु बहुतरं देजा । 'हीणतरे हीणतरं' ति। दवखेत्तकालभावा जहा जहा हीणा तहा तहा हीणतरं पच्छित्तं देजा। सबहीणस्स झोसो वा कजइ । ७९. 'झोसिजई' इच्चाइ । झोसिजइत्ति मुच्चइ । सुबहुगमवि जाव अन्नं तवं वहइ ताव जइ 5 अन्नमावजइ तो तं झोसिजा। जहा छम्मासपट्टविए पञ्चहि दिवसेहिं गएहिं अन्नमावन्न गो होजा । पढमगं वहन्तस्स पच्छिम से झोसिजई । वेयावञ्चकरस्स वा थोवतरं दिजइ । जावइयं वहन्तो वेयावच्चं काउं सक्केइ तावइयं से दिजइ । एयं तवारिहं भणियं ॥ अहुणा छेयारिहं भन्नइ८०. 'तवगविय' इच्चाइ । तवगविओ छम्मासखमओ। अन्नो वा जो विगिट्ट-तवकरण'10 समत्थो-किं मम तवेण किजइ त्ति । तवअसमत्थो पुण गिलाणो असहू बालवुड्डों वा। तवं वा जो न सहहइ । पुणो पुणो वा तवेण दिजमाणेण वि ण दम्मइ । अइपरिणामगो अइपसंगी वा। पुणो पुणो सेवेइ', सुबहुं वा । एएसु जहुद्दिढेसु तवारिहावत्तीए वि छेओ चेव दिजा त्ति । पुचपरियायस्स देसच्छेओ कजइ।। ८१. 'सुबहुत्तर' इच्चाइ । सुबहुगा उत्तरगुणा पिण्डविसोहिमाईया। ते जो भंसेइ विणा15 सेइ, पुणो पुणो छेयावत्तीओ करेइ । जो य पासत्थो। आइसद्देण ओसण्ण कुसील-संसत्त-नीओ वा। जईण साहूण संविग्गाणं । पडितप्पड वेयावच्चं करेह । बहुसो य अणेगसो। उत्तरगाहाए अत्थपरिसमत्ती होही । ८२. 'उक्कोस मिच्चाइ । उक्कोसा तव भूमी । आइजिणिन्दतित्थे संवच्छरं । मज्झिमजिणाणं अट्टमासा । वीरवरस्स छम्मासा । एयं उक्कोसं तवभूमी समईओ। जो तस्स छेओ सावसेसंच 20 से चरणं तस्स छेओ पणगाईओ" । आइसदेण दुस-पन्नरस-वीसाई जाव छम्मासा। जावं वा धरइ परियाओ। छेयारिहं भणियं ॥ अहुणा मूलारिहं भन्नइ८३. 'आउट्टिया' इच्चाइ । आउट्टियाए पञ्चिन्दियं वहेजा । मेहुणं दप्पेण सेवेजा। सेसा मुसावाय-अदिन्नादाण-परिग्गहा ते उक्कोसेणं पडिसेवेइ । आउट्टियाए पुणो पुणो य त्ति । 25 एवं जहुदिहाणेसु मूलं। ८४. 'तवगविय' इच्चाइ । तवगविओ। आइसहेण तवअसमत्थो । तवं असद्दहन्तो तवेण य जो न दम्मइ । मूलगुणे बहुविहे बहुसो य दूसेइ भाइ वा । एवं उत्तरगुणे वि एस वइयरो। दंसणं वा वमइ । दंसणे वन्ते नियमा चरित्तं वन्तं। चरित्तम्मि दंसणे भयणा । दसणे वा चरित्ते वा वन्ते चियत्तकिच्चो । किच्चाई दसणाईणि । तप्परिञ्चाएण चियत्तकिच्चो। सेहेय त्ति 30 सेहो जो अभिणवो सिक्खं गाहिजइ । अणुवट्ठविओ। एएसिं जहुद्दिट्ठाणं मूलं । ८५. 'अच्चन्तोसन्न' मिच्चाइ । अच्चन्तोसन्नो नाम ओसन्न-पव्वाविओ। संविग्गेहिं वा पचावियमेत्तो चेव ओसन्नयाए विहरिओ जो, सो अञ्चन्तोसन्नो । परलिंगं दुर्ग-घरत्थलिंगं, अन्नतिथियलिंगं च । तं जो आउट्टियाए दप्पेण वा करेइ । मूलकम्म-इत्थीगम्भादाणसाडणं जो करेइ । भिक्खुम्मिय विहियतवे । विहिओ तवो जस्स सो विहियतवो । छेयमूले वि अइकमिउं। 35 अणवट्ठतवं वा पारश्चियतवं वा । अइयारसेवणाए पत्ते एएसिं जहुद्दिट्ठाणं मूलं सधेसि पि । 1B पुस्तके 'चउ...णेसु एतद्वाक्यं नास्ति। 2-3 'जहा' आरभ्य 'झोसिज्जई' यावत् पाठः A पुस्तके पतितः। 4 Bएवं। 5 B करणस्स०। 6A कज्जा। 7 A गिलाणअसहबालवुड़ा। 8-9'पुणो.' आरभ्य 'सेवेइ' पर्यन्तः पाठः A आदर्श पतितः। 10 Bहोइ। 11B पणगादीतो। 12 B उकोसगे। 13 B अणुविओ। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ८६-९१.] जीयकप्प - चुणी ८६. 'छेएण' इच्चाइ । छिजमाणे छिजमाणे जया परियाओ निरवसेसो छिन्नो, तदा से मूलं । अणवट्टप्पतवावसाणे पारञ्चियतवावसाणे' य मूलं दिजइ । मूलावत्तीओ वा- पुणो पुणो आवजमाणस्स मूलं । एवं जहुद्दिट्ठकारणेसु सवत्थमूलं । मूलारिहं भणियं ॥ अहुणा अणवट्टप्पारिहं' भन्नइ ८७. 'उक्कोस' मिच्चाइ । तदो (ओ) अणवटुप्पा पन्नत्ता; तं जहा - साहम्मियाणं तेणं करे- 5 माणो १ | अन्नधम्मियाणं तेणं करेमाणो २ । हत्थादाणं दलयमाणो ३ । उक्कोसं सचित्ताइयं । तेणे - पुणो पुणो तेइ । अईव पउट्ठचित्तो संकिलिट्ठचित्तो त्ति कोहलो होइ । पट्ठचित्तो तेणे । साय तेणिया दुविहा- साहम्मियतेणिया, परधम्मियतेणिया य । दवओ खेत्तओ कालओ भावओ य । सचित्त-अचित्त-मीसया दुवे | अन्नसंजओग्ग हियखेत्ते अणणुन्नविए अवस्थाणं खेत्ते । काले जहिं करेइ । भावओ रतदुट्ठो । अन्नधम्मिया दुविहा- लिंगपविट्ठा, गिहत्था 1 य। तिविहं तेणमेतेलि आहारो उवही सचित्तं वाऽवहरइ ति । हत्थादालो गहिओ, सो यति विहो - अत्थादाणो, हत्थालम्बो, हत्थातालो । तत्थ अत्थादाणो नेमित्तिओसन्नागारिया' भन्नगपडिभग्गवणिय पेसणरूयगसउणी । बीइओ उवणओ नउलगमेगो' घयगुलमंतो वसतणकट्ठाअन्न उणिगणिमित्तं । हत्थालम्बो असिवपुररोहउवसमणत्थमभिचारगाइ' करे | हत्थातालो जट्टिमुट्ठिलउडोपल पहाराई हिं मरणभय णिरवेक्खो अप्पणो परस्स य पहरद्द | सपक्खे 1! च सद्देण परपक्खे य । घोरपरिणामो निरणुक्कोसो त्ति । ८८. 'अभिसेओ' इच्चाइ । अभिसेओ उवज्झाओ । जेसु जेसु अवराहेसु पारश्चियमावज्जइ । बहुसो अगसो । आवन्नो वि अणवटुप्पो कीर । किं कारणं । जेण अणवटुप्प पारश्चियमावन्नसावि मूलमेव दिजइ भिक्खुणो । जेण तस्स परं मूलट्ठाणं भवति । तहा उवज्झायस्सावि परं अवटुप्पपर्य, अणवटुप्पावतीओ य । जया बहुसो आवज्जइ तया य अणवठ्ठष्पं दिजइ । 20 ८९. 'कीरइ' इच्चाइ । वसु लिंगेसु वा जम्हा न ठाविज्जइ तम्हा अणवटुप्पो । सो य अणटुप्पो चउष्हिो - लिंगओ, खेत्तओ, कालओ, तवओ । लिंगं दुविहं - दवे भावे य । दवलिंगं ओहरणाइ" । भावलिंगं महवयाइ । एत्थ चउभंगो । अणन्तरगाहा सम्बद्धा इमा गाहा ९०. ‘अप्पडिविरय' इच्चा । सपक्खपरपक्खपदुट्ठो तेणगाइदोसेहिं । अप्पडिविरओ सपक्ख-परपक्ख "पहरणुजुओ । निरवेक्खो अणुवसन्तवेरो जो । सो दवभावलिंगेहिं दोहिं वि 25 • अपो । हत्थालम्बो, अत्थादाणो", ओसण्णाइया य तद्दोसाणुवसन्ता न भावलिंगारिहा । दवलिंगमत्थि तेसिं, भावलिंगेणाऽणवट्टप्पा । खेत्तओ अणवटुप्पो जो जम्मि खेत्ते दोसमावन्नो सोम खेत्ते अणो । जहा अत्थादाणिओ" तम्मि चेव खेत्ते देसे वा न उवट्ठाविज्जइ । किं कारणं पुवभासा लोगो पुच्छेजा " । सो वा तं इडिगारवमसमत्थो धारेउं । तेण अन्नत्थ उट्ठाविज्जइ । उत्तिमट्ठपडिवन्नस्स वा तत्थेव भावलिंगं दिज्जइ । 30 ९१. 'जत्तिय' मिचाइ । कालतो" अणवटुप्पो जो जेन्तियं कालं अणुवरतदोसो" सो ततियं कालं tag । तव अणवट्टप्पो दुविहो - आसायणा-अणवटुप्पो, पडि सेवणा-अणवटुप्पो य। तत्थासायणामिमेसिं करेजा । तित्थयर-पवयण-सुय-आयरिय- गणहराणं महिड्डियाणं । जहा सब्वोवायकुसलेहिं अइकक्खडदेसणा कया । जाणन्ता य किं घरवाले वसन्ति, भोगे य भुञ्जन्ति । तहा इत्थीतित्थं । संघमहिक्खिवइ "पडिणीयताए वा वट्टह । अहवा भणइ अन्ने वा संघा अत्थि 35 1 पतितमेतद्वाक्यं A. आदर्शे । 2 A अणहृप्पारिहं । 3 B निमित्तिदोसण्णगायरिया । 4 B बीइदो । 5 A नउलमेगो । 6 A चारुगाइ । 7 B हवइ । 8 B लिंगे वा । 9 A भावओ । 10 B रयहर• । 11 B परिपक्ख | 12 B हत्थादा० । 13 B • दाणितो । 14 B पुच्छिना | 15 B कीलओ । 16 A अणवरयदोसो | 17 A 'पडिणी ० ' आरभ्य ० 'खिवइ' पर्यन्तः पाठो नोपलभ्यते A आदर्शे । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ 15 सिद्धसेनसूरिकया [गाथा ९२-९५. सियालसुणगाणं विगाणं ति । एवं सुयं अहिक्खिवइ-पाययं ति । थाणे थाणे वा काया, पुणो पुणो वा वयाणि, पमाय-अप्पमाया वा। मोक्खदेसणाए जोइस-जोणिपाहुड-गणितेण वा किं पओयणं । तहा आयरियं जच्चाई हिं अहिक्खिवइ । तहा गणहरं महिड्डियं । महिड्डियगहणेण मूलगणहरा गहिया । जो वा जम्मि जुगे पहाणो तमहिक्खिवइ । इड्डिरससायगरुया, सुहसाया, 5 परोवएसुजुया मंखा इव, गिहिवच्छलगा न जईणं ति एवमाईहिं आसाएन्तो अणवटुप्पं पावेइ । एस आसायणा-अणवठ्ठप्पो। पडिसेवणा-अणवटुप्पो इमेहिं कारणेहिं-साहम्मिय-अन्नधम्मिय-तेणियाए हत्थादालणादीहिं य आवजइ । तत्थ आसायणा-तवअणवटुप्पो जहन्नेण छम्मासा, उक्कोसेणं संवच्छरं । पडिसेवणा-अणवठ्ठप्पो जहन्नेणं बारसमासा उफ्कोसेणं बारस संवच्छराणि; इमाए गाहाए भिन्नइ - 10 ९२. 'वासं बारस' इच्चाइ । सो य जइ इमेहिं गुणेहिं जुत्तो तो अणवटुप्पतवं पडिवाइ। संघयणविरियआगमसुत्तत्थविहीए जो समग्गो उ । तवसी निग्गहजुत्तो पवयणसारे अहिगयत्थो॥ तिलतुसतिभागमेत्तो वि जस्स असुहो' ण विजई भावो । निजूहणारिहो सो सेसे निजूहणा णत्थि ॥ एय गुणसंपउत्तो पावइ अणवट्ठमुत्तमगुणोहो । एय गुण विप्पहूणे तारिसगम्मी भवे मूलं ॥ एयं ता उस्सग्गेणं । अववाएण पुण कुलगणसंघकजाई तेणाधीणाई सिंहणाइय कर्ज वा पसाहियन्ति; तो थोवं थोवतरं वा से देजा। संघोवा से सच मेव मुञ्चेजा"। तस्स पुण अणवट्टप्पतवं पडिवजमाणस्स को विही ? किं वा तवं करेइ त्ति । एत्थ गाहा।20 ९३. 'वन्दई' इन्चाइ । गणनिक्खेवमित्तिरियं काउं परगणं पडिवजइ । पसत्थदधखे त्त-काल-भावेसु।पसत्थदधे उच्छु-वणसंड-पउमसर-चेइयघराइसु खेत्ते; काले सुहदिवसे;भावओ सम्झागयं रविगयाइयं मोत्तुं आलोयणं पउआइ । काउस्सग्गो कीरइ निरुवसग्गनिमित्तं सेसाणं" भयजणणणिमित्तं च। गच्छेण सहवासो एगखेत्ते, एगउवस्सए, एगपासे, अपरिभोए अच्छइ । सेहमाइए वि वन्दइ । ते पुण तं ण वन्दन्ति । परिहारतवो गिम्ह-सिसिर-वासासु जह25 नमज्झिमुक्कोसो। गिम्हे चउत्थ-छट्टट्ठमाई । सिसिरे छट्टम-दसमाई । वासासु अट्टम-दसम-बारसन्ताई। पारणए अलेवकडं। संखेवओ अणवट्रप्पारिहं भणियं ॥ अहुणा पारश्चियारिहं भन्नइ९४. 'तित्थंगर' इच्चाइ । तित्थगराई जहा अणवठ्ठप्पे तहा इहं पि भाणियो। गणहरो तित्थगराणन्तरसीसो, सोमहिड्डियगहणेण गहिओ जो। जहिं जुगप्पहाणो । आयो लाभो संपत्ती 30 य एगट्ठा। तस्स साडणा आसायणा। जहा जहा अभिनिवेसेण हीलेई तहा तहा आयस्स साडणं करिन्तो पारश्चियं पावा।। ९५. 'जो य सलिंगे' इच्चाइ । तओ पारश्चिया पन्नत्ताः तं-जहा-दुढे पारचिए, मूढे पारचिए, अन्नमन्नं करेमाणे पारश्चिए। दुट्ठो दुविहो-कसायदुट्ठो, विसयदुट्ठो य । सपक्ख-परपक्खे चउमंगो। सपक्खो समण समणी। परपक्खो गिहत्था। तत्थ कसायदुट्टे उदाहरणं-सासवनाले 35 मुहणन्तए य सिहिरिणि उलुगच्छिओ ति! विसयदुट्टे वि चउभंगो। तत्थ दुविह-दुट्टो वि पढमबिईयभंगे वट्टमाणो लिंगओ पारश्ची । तईए अइसई देजा। अणइसई न देइ लिंगं । रायवहओ 1B वदेसु०। 2 A तु। 3 B एवमातीहिं आसादिंतो। 4 A भिन्नति। 5 A असुभो। 6 A. वाए पुण। 7 B तेणहीणाइ 8 A सिंगणा। 9 A दिनेजा। 10 A संघोवा सन्च। 11 A मुच्चेजा। 12 'सेसा...मित्तं च एतद्वाक्यं A आदर्श नास्ति । 13 A उयाह । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९ गाथा ९६-१०२.] जीयकप्प-चुण्णी जहा उदाइमारओ अन्नो वा । राइणो वा अग्गमहिसिं पडिसेवेइ । अग्गमहिसिग्गहणेण अन्नावि जा इटा। च सहेण जवराय-सेणावडमाईणं वा अग्गमाहिसीओ। बहसो पूणो पूणो यः लोगपगासो य जो स पारश्चियं पावइ । इयरासु महिलासु पुण किं न पारश्चिओ? भन्नइ-बहु अवाया रायग्गमहिसीए। कुल-गण-संघ-आयरिय-पत्थारनिविसयाईया दोसा जओ पहवन्ति त्ति'।इयरमहिलासु पुण वयभंगदोसो, एगस्स य अवाओ होजा तेणं मूलं। ९६. 'थीणद्धि'इन्चाइ । थीणद्धी दरिसणावरण-कम्मभेओ निहा-पणगस्स । अइसंकिलिट्ठपरिणामा थीणद्धी। पदुट्ठपुषामिलसिओवरि सुत्तो वावारए केसवबलद्धं च जायए । उदाहरणाई पोग्गलमोयगदन्ते फरुसगवडसालभंजणे चेव । ___पवमाई उदाहरणा । अन्नोन्नासेवणं-अन्नोनाहिट्ठाणासेवणन्ति भणियं होइ । तत्थ पार-10 श्चियं । बहुसो पुणो पुणो य तेसु पारश्चियावराहेसु पगरिसेण सज्जए पसजए जो। ___९७. 'सो कीर' [ इच्चाइ ] । सो य पारश्चिओ चउधिहो-लिंगओ, खेत्तओ, कालओ, तवओ' । तत्थ दव-भावलिंगे चउभंगो। थीणद्धिमहादोसो। अन्नोन्नासेवणा-पसत्तो । रायवहओ अग्गमहिसीपडिसेवणाइएसु अवराहेसु उभयलिंगेणावि पारची। ९८-९९. 'वसहि' इच्चाइ । 'जत्थुप्पन्नो' इच्चाइ । खेत्तपारञ्चिओ जो जम्मि खेत्ते दूसिओ 15 अच्छमाणो वा दोसं पावेजा । वसहीए एवं निवेसण-पाडग-साही-निओग-पुर-देस-रजाओ य जत्थ जत्थ दोसमावन्नो आवजिस्सइ वा ताओ ताओं खेत्तपारञ्चिओ कीरह। १००. 'जत्तियमेत्त' मिश्चाइ । जो जावईयं कालं अणुवसन्तदोसो, दूसइ वा जावईयं कालं सो कालपारश्चिओ।तवसा पारश्चिओ दुविहो-आसायणापारश्चिओ, पडिसेवणापारश्चिओय। आसायणापारश्चिओ तित्थगराइट्ठाणेसु । विभासा पुष्वभणिया। पडिसेवणापारश्चिओ तिविहो-20 दुट्टे पारश्चिए, पमत्ते पारश्चिए, अन्नमन्नं करेमाणे पारचिए । दुट्ठो दुविहो-कसायविसएहिं पुषभणिओ । पमत्तो पञ्चविहो-'कसाय-विगहा-वियड-इन्दिय-निह-प्पमाय' इति । एए भाणियवा वित्थरओ। अन्नमन्नं करेमाणो पुष्षमणिओ। आसायणापारश्चिओ जहन्नेण छम्मासा, उक्कोसेण संवच्छरं । पडिसेवणा-पारश्चिओ जहन्नेण बारसमासे उक्कोसेणं बारसवासा । संघयणाइया गुणा जहा अणवटुप्पे; तवो वि तह चेव। ___१०१. 'एगागी' इच्चाइ । जिणकप्पियपडिरूविओ खेत्तवाहिं ठाइ अद्धजोयणबाहिरओ। जओ विहरह आयरिओ तओ तओ सो वि विहरइ । खेत्तओ बाहिरओ ठियस्स आयरिओ पइदिवसं अवलोयणं करेइ । सुत्तत्थपोरिसीओ दोन्नि वि दाउं गच्छइ तस्स समीवं । अहवा अत्थपोरिसिं अदाउं गच्छइ । अहवा दोनिवि अदाऊण गच्छइ। अहवा दुब्बलो, असमत्थो तदरं गंतुं, कुलाइकजेहिं वा वावडो, ताहे गीयत्थं सीसमन्नं वा पेसेइ । भत्तपाणं चायरियस्स 30 आयरियपेसवियस्स वा जत्थ गओ अन्तराले वा से उवणेन्ति । पारञ्चिओ वि भत्तपाणाईयं पडिलेहणुपत्तणाई वा अगिलाणो सयमेव करेइ । अह गिलाणो तो आयरिओ अन्नो वा से भत्ताइ आहारइ उच्चत्तणाइयं पि से कुणइ । सुत्तत्थेसु आयरिओ अन्नोवा से पडिपुच्छगं देइ । एवमेयं संखेवपारश्चियारिहं भणियं। १०२. 'अणवटुप्प' इच्चाइ । तवअणवटुप्पोतवपारश्चिओय भद्दबाहुसामिम्मि चरिमचउद्दस-35 पुषधरे दो वि वोच्छिन्ना। लिंग-खेत्त-कालाणवठ्ठप्प-पारश्चिया ताव अणुसजिजन्ति जाव तित्थं। 1 Bजओ य हवन्ति। 2A भावओ। 3 B तातो तातो। 4 B बित्थरवेण। 25 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धसेनसूरिकया [गाथा १०३. १०३. 'इतिएस' इञ्चाइ । इतिकरणो परिसमत्तिवयणो। एस इति अणन्तरुट्ठिो जीयकप्पो जीयववहारो कप्पो।वण्णणा परुवण त्ति एगट्ठा। समासओ संखेवओ।सोहणं विहियं जेसिं नाणाइयं ते सुविहिया साहू । तेसिमणुकंपानिमित्तं । कहिओ अक्खाओ। देओ दायवो अयं पुण। कहिं ? पत्ते। किंविसिट्टे ? संविग्गवजभीरू, परिणामगकडजोगी, आयरियवन्नवादी, संगहसीलो, 5 अपरितन्तबहुसुयमेहावी; एवमाइगुणसंपन्ने पत्ते। पुण सहोऽवधारणे । पत्ते चेव दायचो, नापते । सुट्ट परिच्छिया गुणा जस्स । एए चेव संविग्गाई भणिया गुणा । आइमज्झावसाणेसु तावच्छेय-निघसेसु य जवसुवन्नमिव अविगारि जं, तं सुपरिच्छियगुणं; तम्मि सुपरिच्छियगुणे सुत्तत्थयओ देओयमिति । इति जेण जीयदाणं साहूणऽइयारपंकपरिसुद्धिकरं। 10 गाहाहिं फुडं रइयं महुरपयत्थाहिं पावणं परमहियं ॥ जिणभदखमासमणं निच्छियसुत्तत्थदायगामलचरणं । तमहं वंदे पयओ परमं परमोवगारकारिणमहग्धं ॥ ॥जीतकल्पचूर्णिः समाप्ता। सिद्धसेनकृतिरेषा ॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीचन्द्रसूरिसंरचिता जीतकल्पबृहचूर्णिविषमपदव्याख्या 000000000 नत्वा श्रीमन्महावीर स्वपरोपकृतिहेतवे । जीतकल्पबृहचूर्णेाख्या काचित् प्रकाश्यते ॥ अत्रादौ शास्त्रारम्भे विघ्नोपशमनायेष्टदेवता-गणधर-स्थविर-प्रवचनानां यथाक्रमं वर्णनाय रूपकचतुष्टयमाह १. 'सिद्धत्थे'त्यादि । सिद्धा निष्पन्ना अर्थाः प्रयोजनानि यस्य ज्ञानावाप्तौ सत्यां स सिद्धार्थः; समाप्तकर्तव्य इत्यर्थः। सिद्धं प्रसिद्ध शासनं संघो यस्य स तथा। सिद्धा अनादिप्रवाहतया नित्याः प्रसिद्धा अर्था जीवादयो यत्र श्रुते तत् सिद्धार्थ तच्छ्रुतं यस्य । ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः । सिद्धार्थस्य राज्ञः सुतं चापत्यम् । कम् ?-वीरेभ्योऽतिक्रान्तेभ्यो वरः श्रेष्ठः, उपसर्गादिसहनप्रत्यलत्वाद्वीरवरस्तम् । वराः श्रेष्ठा वरा ईप्सितार्थलाभरूपातान् ददाति यस्तम् । वरा देवादयो यतयश्च तेभ्यो वरकाः प्रधानाः शक्रादयो गणथराश्च तैर्महितं पूजितम् । नमत प्रणमत हे जनाः जीवेभ्यो हितो मोक्षमार्गप्रदर्शकत्वेन स तथा तम् ॥ २. एकादशापि गणधरान् दुर्धरगुणधारकान् ; धराधिपो मेरुस्तद्वत्सारा अचलत्वात् , तान्; चस्स गम्यमानस्वातू जम्बुप्रभवादींश्च समस्तसूत्रधरान् सूरीन् प्रणमत ॥ ३. दशपूर्वधरान् नवपूर्वधरांश्च; अतिशयिन अवधिमनःपर्यायज्ञानिनः; अवशेषज्ञानिनश्च मतिश्रुतज्ञानिनः; यत्नेन सर्वानपि यतिगुणप्रवरान् सर्वकालं त्रिकरणशुद्धेन भावेन नमत ॥ __४. इतः स्थविरनमस्कारादूर्ध्व प्रवचनं नमत । निर्वाणाङ्गमित्येतदेव व्याख्यानयति । निर्वाणस्याचं कारण जीवानां तद्गमकत्वात्-तत्प्रापकत्वादित्यर्थः। निर्वाणं मोक्षं गमयति प्रापयति जन्तून् निर्वाणगमिति प्राप्ते-अनुखारोऽलाक्षणिको निर्वाणमिति । प्रवचनमित्यस्यार्थमाह-प्रकर्षण गतं स्थितं जीवादिवस्तुवाचकतयेति प्रगतम्, आगामिफलजननसमर्थ यत्तत् । प्रशस्तं वर्णादिगुणोपेतं कष्टप्राप्यं च यत्तत् । प्रधानं-तथा च दधिर्वादयः प्रशस्ता उच्यन्ते न तु प्रधानानि, प्रधानः पटादिरपि भवति न तु प्रशस्त इति व्यवह्रियते, इत्यनयोर्विशेषः । ततः प्रशस्तानि संसारोत्तारीणि वचनानि यत्र तत्प्रशस्तवचनम् । प्रधानानि द्रव्याणि वचनानि यत्र तत्प्रधानवचनम् । इत्यर्थत्रयोपेतं प्रवचनं नमत ॥ ५. अधुना जीतकल्पसूत्रकर्तुर्जिनभद्रगणेवर्णनाय श्लोकषट्कमयं कुलकमाह-नमहेत्यादि-तं जिनभद्रक्षमाश्रमणं च नमतेति योगः। शेषाणि तद्विशेषणानि। युगप्रधानमिति–तत्कालीना आगमार्थवेदिनः पुरुषा युगमभिप्रेतं तेषु प्रधानस्तम् । प्रधानज्ञानिनां बहुमतम् । सर्वश्रुतिशास्त्राणि शन्दशास्त्रप्रभृतीनि तेषु कुशलं तद्वेदिनम् । दर्शनज्ञानयोर्योऽसावुपयोगमार्गस्तत्र स्थितं तत्परम् ॥ ६. जस्सेत्यादि-यस्य पादपद्मं भ्रमरा इव मुनिवरा यतयो रात्रौ च दिवा च सेवन्ते सदा नित्यं तं नमतेति योगः । अनन्यसाधारणविशेषणसामर्थ्यादनुक्तमपि विशेष्यं लभ्यते। कीदृशा भ्रमराः?-मकरन्दः किझल्कस्तत्र सृषितास्तत्पिपासवः। यतयः कीदृशाः?-ज्ञानमेवाझानकादिभेदभिन्नं मकरन्दस्तत्तृषितास्तद्गृहीतुमिच्छवः। पुनः कीदृशा भ्रमराः!-अमृतमयवशगन्धाभिवासिताः-अमृतं जलं तेन निर्वृत्तममृतमयं पद्मम् , तस्य वशोऽधीनो यो गन्धस्तेनाभिसामस्त्येन वासिता आहताः शब्दिता इति यावत् । वासूशब्दे-इत्यस्य ख(ए)रूपम् । यतयः कीदृशाः?-मुखमेव निर्झरोऽपां प्रसवस्थानम्, तत्रामृतमिव यन्मतं जिनागमस्तस्य वशोऽधीनो यो गन्धः परिमलः माहात्म्यरूपस्तेनाभिवासिताः-तदाकृष्टमानसा इत्यर्थः ॥ ७. समयशब्द आचारार्थोऽत्र, ततः खाचार-पराचारयोः प्रतिपादको य आगमः शास्त्रनिवहस्स च । लिपयश्चाष्टादशभेदाः। गणितं पाटीगणितादि । छन्दांसि च पिङ्गलादीनि । शब्दशास्त्रम् [व्याकरणं] । तैनिर्मितों जनितो यशापटहो दशस्वपिदिश्वनयोगविषयेऽनुपमो यस्य भ्राम्यति तं नमत ॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीचन्द्रसूरिसंरचिता [१-26. २-29 ८. तथा, येनानुपममतिनाऽऽवश्यके ज्ञानानां मत्यादीनां विशेषा विशेषिताः कथिता अविशेषतः सामस्त्येन । मानिनां च विशेषाः प्रमाणानां विशेषा विशेषितास्तथा गणधराणां च पृच्छा येन विशेषितास्तं नमत ॥ ९. येन छेदसूत्रस्था प्रायश्चित्तानामापत्तियां सविधिनियूढः । आचार्योपाध्यायादिकं पुरुषविशेषमाश्रित्य स्फुटः प्रकटः। केन कृत्वा दानस्य विरचना तया यत्नस्तेन । क जीतेन दानं तस्य कल्पस्तत्र। अन्ये तु येन छेदश्रुतार्थान् , कथंभूतान्-आपत्तिदानयोर्विरचनं यत्र; तस्मात् जीतदानकल्पविषययोविधिः पुरुषविशेषमाश्रित्य स्फुटो यत्नेन नियूंढ उद्धृतस्तं नमतेति, व्याचक्षते ॥ १०-११. भूयोपि परसमयवेदित्वं विशेषतस्तस्याह-परेत्यादि-सुसमिता ये सुश्रमणास्तेषां यः समाधिमार्गः प्रतिदिनाचरणीयमनुष्ठानं तेन क्षमाप्रधाना ये श्रमणास्तेषां निधानमिवैकम्, अनेनानेकसुशिष्यसंपत्समन्वितत्वं तस्याह । तं नत्वा । मदमथनम् । मानारिहंति मानारिहस्तम्। शेषं सुगमम् । स्कन्धकं छन्दः सर्वरूपकेषुः आर्यागीतिरित्यपरनामकम् । पृ० पं० (पृ० पृष्ठम् ; पं०=पंक्तिः ) १-26. कोवीत्यादि-आचारचूलात्वानिशीथस्याचारपदात् परत उपादानम् । -27. ववहारमाश्यन्ति-आदिग्रहणाद् भगवत्यादिपरिग्रहः । -31. [नाणाइयारेसु]-नानातिचारेषु का आपत्तिः। 'आवत्ती पायच्छित्तगणसम्पत्ति प्रायश्चित्तयो। ग्यता इत्यर्थः। कम्मिवत्ति-कस्यामापत्ती अपरिमूढः सन् । २-2. कप्पियाइएहिन्ति-पिण्डैषणा-वस्त्रैषणादिकल्पा येनार्थतः सूत्रतश्चाभ्यस्ताः स कल्पादिगुणोपेत उच्यते। [अपत्तापत्त]-अपात्रमयोग्यः; अप्राप्तः श्रुतेन वयसा च । येन नाधीतं श्रुतं सोऽप्राप्तश्रुतः। [अवत्त]-अव्यक्तो वयसा षोडशवर्षाणि यावत् , तदूर्व व्यक्तः पञ्चकूर्चश्च यः। [तिन्तिणिय]-- तिन्तिणिको झिगिझिगिणस (ख) भावः। [चलचित्त]-सम्यक्त्वादिषु योऽस्थिरः स चलचित्तः। तथा बायोग्य उक्तो यथा तिन्तिणिए चलचित्ते गाणंगणिए य दुब्बलचरित्ते । आयरिय पारिभासी वामावडे य पिसुणे य॥ ,-6. [कयपवयण]-प्रोच्यन्ते तेनेति प्रवचनम् । वक्तीति प्रवदतीति वा प्रवचनम् । प्रतिष्ठावचनं वा प्रवचनम् । प्रवचने योगानन्यत्वात् सङ्घस्य सर्वपक्षेष्वपि सङ्घ एव प्रवचनशब्दवाच्यः। यतः-प्रवचनं श्रुतमुच्यते। तच भावश्रुतमुपयोगरूपम् । श्रुतोपयोगश्च न निराश्रय इति प्रवचनाश्रयत्वास्सद्धःप्रवचनमभिधीयते। अत एवाह जेण तं सुयमित्यादि तद्-सङ्घोपयोगात् । ,-14. वत्तणुवत्तेत्यादि-वृत्तः पात्रबन्धप्रन्थिदानादिकः । एकदा नवो जातः। ततोऽनुवृत्तः एकपुरुषं यावत् । ततः प्रवृत्तः पुरुषप्रवाहेण । अत एव बहुश आसेवितो महाजनेन । भाष्यकृता उक्तम् वत्तो नाम एक्कस्सि अणुवत्तो जो पुणो बिइयवारे । तईयवारपवत्तो, परिग्गहीओ महाणेणंति ॥१॥ -18. सोहणन्ति-शोधकम् । मरुयाई-धिग्जातयः। कत्थइ त्ति-द्विजातिवधे। ,,-21. [पलास-खारोदगाइ]-पलासक्षारं च उदकं च । आदिग्रहणादरिष्टकादिप्रहः, तद् यथा वस्त्रमलं शोधयति । -25. विसेसणं च सइसंभवे-यथा विद्यावान् धनवान् गोमानयं वर इत्यादिषु प्रशस्तातिप्रचुराऽ. नन्यसाधारण विद्याधनगवादिवस्तुसद्भावेन यथाविशेष्यं विशिष्यते विद्यादिभिस्तदा तत्तत्र सम्भवि विशेषणं ज्ञेयम् । व्यभिचारे नीलोत्पलमित्यत्र नीलविशेषणं रक्तोत्पलादेरपि सम्भवाद द्रव्यव्यवच्छेदाय नीलपदम् । एवमिहापि शेषागमादिव्यवहारसम्भवात्तदवच्छेदाय जीतपदम् । ,-29. [केवल-मण-ओहिणाणीति]-केवल-मण-ओहिणाणीसत्र अवधिर्दिधा-भवप्रत्ययः क्षायोपशमिकश्च । तत्राद्यो देवनारकाणाम् । तत्रायं विशेषःउप्पज्जमत्तण उ खलु भवपचईओ हि जत्तिओ विसओ। सव्वं तं भोभासई न य धुवी नव य हाणी [हि] ॥१॥ गुणपच्चइओ ओही गब्भजति रिमणुयसंपमोत्तणं । कम्माण खओवसमे सदवरणिज्जाण उप्पजे ॥२॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3-30. -10] जीतकल्पचूर्णि - विषमपदव्याख्या ३३ संख्यातायुष्कगर्भज तिर्यङ्मनुष्यान् मुक्त्वा न शेषाणां क्षायोपशमिकावधिसम्भवो युगलधर्मिकाणाम् । अवधिर्मूतिमद्रव्यविषयः । अत्र यदा केवली प्राप्यते तदा तदग्रतो दीयते । तदभावे मनःपर्यायज्ञानिनः समीपे । तस्याप्य भावे अवधिज्ञानिन इत्यादि यथाक्रमं वाच्यम् । २ - 30. अवसेस - पुवीत्ति - अवशेष पूर्विणः - अष्ट - सप्तायेक तदर्द्धान्तं यावत् । २– 31. निशीथ कल्प-व्यवहार- दशाश्रुतस्कन्ध- पञ्चकल्प-प्रभृतिकं शेषं श्रुतं सर्वमपि श्रुतव्यवहारः । तदुक्तम्- 'आयारपकप्पाई सेसं सव्वं सुयं विणिद्दिन' मिति । चतुर्दशादिपूर्वाणां श्रुतत्वाविशेषेऽप्यतीन्द्रियार्थेषु विशिष्टज्ञानहेतुत्वेन सातिशयत्वात् केवलादिवदागमत्वेनैव तानि व्यपदिष्टानि । यत आगम्यन्ते परिच्छिद्यन्ते अतीन्द्रियाः पदार्था अनेनेत्यागम उच्यते । २ - 32. तथा आज्ञायत आदिश्यत इत्याज्ञा । तद्रूपव्यवहारस्तु केनापि शिष्येण निजातिचारालोचकेन आलोचनाचार्यः सन्निहितोऽप्राप्तः, दूरे त्वसौ तिष्ठति । ततः केनचित्कारणेन स्वयं तावत्तत्र गन्तुं न शक्नोति । अगीतार्थस्तु कश्चित्तत्र गन्ता विद्यते । तस्य हस्ते आगमभाषया गूढानि अपराधपदानि लिखित्वा यदा शिष्यं प्रस्थापयति; गुरुरपि तथैव गूढपदौ (दैः) प्रायश्चित्तं लिखित्वा प्रेषयति तदासौ आज्ञालक्षणस्तृतीयो व्यवहारः । तद यु (दु) क्तं 'देसन्तरद्वियाणं गूढपयालोयणा आणा ।' गूढपदानि च दर्शयिष्यति चूर्णिकृत् । जहा - पढमस्स य कज्जस्सेत्यादिना ॥ आसेवियसत्थत्थ त्ति-अभ्यस्तशास्त्रार्थौ । २–33. दूरदेशान्तरनिवासिनी । मइधारणा-कुसलं ति - सन्दिष्टवस्तुनयनसमर्थम् । २ – 34. गूढार्थैर्वाक्यैः । दर्पासेवनापदमेकम् अपरं च कल्पासेवनरूपम् । ततः कल्पासेवन द्वितीयपदापेक्षया दर्पासेवनलक्षणं प्रथमं पदम् । तत्रापि दर्पासेवने दशपदानि दर्पाकल्प निरालम्बनादीनि । तेषु मध्ये प्रथमपदेन दर्पलक्षणेन षङ्कानि च त्रीणि । ततः प्रथमषङ्कं व्रतषङ्कलक्षणम् । अभ्यन्तरतन्मध्यवर्ति तत्र पठितमित्यर्थः । तत्रापि चप्राणातिपातादीनि षट् स्थानानि । तेषु मध्ये प्रथमं स्थानं प्राणातिपातरूपम्, आपन्नमित्येवं गूढपदेन प्राणातिपातातिचारं निर्द्दिष्टवान् । प्रथमषङ्के द्वितीयादिस्थानेष्वतिदिशन्नाह २ - 35. पढमेत्यादि । सेसेसु वित्ति - द्वितीयादिषु मृषावादादिषु स्थानेषु इत्थं वाच्यम् । द्वितीयं षङ्कं कायषङ्कलक्षणम् । तत्र प्रथमं च स्थानं पृथिवीकायविषयम्, शेषाणि च पदानि अष्कायादीनि । तेषु तृतीयं षङ्कं अकल्पगृह भाजनादि-शोभावर्जनपर्यन्तलक्षणम् । तत्र पिण्ड- उपाश्रय-वस्त्र-पात्ररूपं चतुष्टयं यदनेषणीयं तदकल्प्यम् । करोटककंशपात्र्यादिकं च गृहभाजनम् । आसंदकमंचिकादिः पल्यङ्करूपम् । भिक्षां गतेन संयतेन गृहे नोपवेष्टव्यमित्येवं निषद्यावर्जनमुच्यते । स्नानवर्जनं पश्चमम् । शोभावर्जनं षष्ठमिति । स्वस्थाने न्यक्षेण व्याख्यास्यते गाथेयम् । तत्र प्रथमस्थानमकल्पलक्षणम् । २ - 36. सेसेसु वि परसु त्ति - शेषाणि पदानि गृहभाजनादीनि तेषु । इदानीमतिदेशमाह - प्रथमपदं दर्पलक्षणममुञ्चता तत्रैव यानि अकल्पनिरालम्बनादीनि द्वितीयतृतीयादीनि पदानि निःशङ्कपर्यन्तानि तेषु वाच्यम् । यथा पढमस्स य कज्ज़स्सा बिइएण पएण सेवियं जं च । शेषं पूर्ववत् । ततः तइएण पएण सेवियं जं चेत्यादि । यावद् दसमेण पएण सेवियं जं च त्ति । इत्येवं प्रथमषट्कमाश्रित्य चारणीयम् । भूयोऽपि द्वितीयकमाश्रित्य तृतीयषङ्कं चाश्रित्येत्थमेव चारणीयं यावद्दशमपदमिति । अत एवाह ३ – 5. पुढविकायाइसु त्ति । अपिशब्दोऽत्र दृश्यस्ततः पृथिवीकायादिष्वपीति दृश्यम् । द्वितीयं च कार्यं कल्पा सेवनरूपम् । तत्र चतुर्विंशति पदानि भवन्ति । तेषु मध्ये प्रथमं पदं दर्शनलक्षणं तदर्थमा से वितमित्यर्थः ॥ प्रथमादिपदव्याख्यामाह-पढमं ठाणमित्यादि - दर्प-कल्पासेवनेऽधिकृत्य प्रथमं स्थानं दर्पः, दर्पकल्पासेवनाश्रयणेन एतत्साध्यत्वादाकुट्टेरेतयोरेवान्तर्भावः । प्रमादस्य दर्प एवेति न तयोः पृथक् प्रायश्चित्तनिरूपणम् । ३ - १. परिग्गहो चेव त्ति - च शब्दाद्रात्रिभोजनग्रहः । इत्येवं प्रथमषङ्कविषयः । ३- 10.. एवमकप्पाईसु वित्ति-नवसु पदेषु । ५ जी० क० चु० Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ श्रीचन्द्रसूरिसंरचिता [३-11. ३-23 ३-11. द्वितीयं कार्य कल्पः, कल्पासेवनामाश्रित्य । ३-12. तत्र ज्ञानादीनि त्रयोविंशति पदानि तेषु मध्ये एकैकस्मिन् पदे; एवमष्टादशसु चतुर्विंशत्या गुणितेषु कल्पासेवनायामेतावन्तो भेदाः-४३२ । उभयासेवनयोर्भेदमीलने ६१२ गाथानां भवन्ति । ३-14. दुविहा पडिसेवणा-दप्पिया कप्पियेत्यादि-दप्पाईणि दसपयाणि वक्खाणेह३-17. तत्थ दप्पो-धावणडेवणाई-इत्यादि । अमीषामयमर्थः-धावण त्ति निःकारणेण खडयप्पयाणं धावणं । डेवणं गत्तवरंडाईफडणं । आदिशब्दात् मल्लवत् बाहुजुद्धकरणं, लगुडिभमाडणं ॥१॥ अकप्पो नाम पढवाडकायाणं अपरिणयाणं गहणं करेइ । अहवा उदउल्ल-ससणिद्ध-ससरक्खाइएहिं हत्थमत्तेहि गिण्हह । जंवा अगीयत्थेणं आहारोवहि उप्पाइयं तं परिभुजंतस्स अकप्पो। पञ्चकादिप्रायश्चित्तशुद्धियोग्यमपवादसेवन विधिं त्यक्त्वा गुरुतरदोषसेवनं वा अकप्पो ॥ २॥ निरालम्बो ज्ञानाद्यालम्बनं विना नाणाईणि अवलंबिउं अकप्पियं पडिसेवह सालम्बा; नाणाइ अवलम्बनं त्यक्त्वा अकारणेण पडिसेवइ जं सा निरालम्बा ॥ ३ ॥ ३-18. चियत्त त्ति-त्यक्तं कृत्यं करणीयं येन स त्यक्तकृत्यः, त्यक्तचारित्रः । अयमर्थः-जं अववायेण निसेवियं गिलाणाइकारणे असंथरे वा, पुणो ते चेव हट्ठसमत्थो वि होउ (उ) निसेवंतो चियत्तकिच्चो भवइ ॥४॥ अप्पसत्थे त्ति-बलवर्णाद्यर्थ प्रासुकभोज्यपि जं पडिसेवइ सा अप्रशस्तपडिसेवणा, किं पुण अविसुद्धं आहाकम्माइं ॥५॥ ३-19. वीसत्थे त्ति-अकिचं पाणाइवायाइ सेवंतो लोय-लोउत्तरविरुद्धं सपक्ख-परपक्खाउ अलजिरो वीसत्थो । सपक्खो सावगाइ; परपक्खो मिथ्यादृष्टयः ॥६॥ अपरिच्छिय त्ति-आयव्ययमपरीक्ष्य यः प्रवर्ततेऽपवादे । आयो लाभो, व्ययो लब्धस्य प्रणाशः; एसा अपरिच्छियपडिसेवणा ॥ ७ ॥ ३-20. अकडजोगि त्ति । जोगमकाऊण त्ति-ग्लानादी कार्ये गृहेषु वारत्रयपर्यटनमकृत्वा सेवते । यद्वा संथाराइसु तिन्नि वारा एसणीयं अनिसिउं जया तइयवाराए वि न लब्भइ तया च उत्थपरिवाडीए अणेसणीयं घेत्तव्वं । एवं तिगुणं व्यापारमक्ष(कृ)त्वैव जा वियवाराए चेव अणेसणीयं गिण्हइ सोऽकडजोगी ॥८॥ निरणुतावित्ति-जो साहू अववाएणावि पुढवाईणं संघट्टण-परियावण-उद्दवणं वा काउं पच्छा नाणुतप्पह'हा दुट्ठ कयं' सो अणणुतावी होइ-अपच्छायावीत्यर्थः । जो दप्पेणं पडिसेवेन्तो नानुतप्येत्तस्य विशेषः ॥ ९॥ ३-21. णिस्संकोत्ति-निरपेक्षः । अकार्य कुर्वन् कस्याप्याचार्यादेन शङ्कते, नेहलोकस्यापि बिभेति ॥१०॥ ३-23. दंसणाईणि चउवीसपयाणि, एएसिं इमं वक्खाणं-दसण त्ति-दसणपभावगाणि सत्थाणि सिद्धिविणिच्छय-सम्मत्यादि गिण्हन्तोऽसंथरमाणो जं अप्पियं पडिसेवइ जयणाए तस्थ, सो सुद्धोऽप्रायश्चित्त इत्यर्थः॥ नाण त्ति-नाणनिमित्तं सुत्तं अत्थं वा गेण्हमाणो तत्थ वि असंथरे अकप्पियं पडिसेवंतो सुद्धो॥ चरित्ते त्ति-जत्थ क्खेत्ते एसणदोसो, ताओ खेत्ताओ चारित्रार्थिना निर्गन्तव्यम् । तओ निग्गच्छमाणो जं अकप्पियं सेवइ तत्थ सुद्धो॥ तव त्ति-तवं काहामि त्ति घयाइ नेहंऽतिपिवेज, कए वा विगिढतवे पारणे लायातरणाई पियेजा। लाया नाम वीहिया भुजिया भट्टे ताण तंदुलेसु पेया कजइ तं लायातरणं भन्नइ तं, विगिट्टतवपारणए अहवा आहाकम्मपि देजा। मा अन्नेण दोसीणाइणा रोगो हवेजा। पारणगे आमलगसर्करादयो वा दीयन्ते । जयणाए सुद्धो । अतोऽग्रे संजमेति पदं दृश्यते चूर्णिपुस्तकेषु परं तदशुद्धम् । तस्य स्थाने पवयण त्ति पदं पठनीयम् । निशीथे एतदीयभाष्ये च इत्थमेव पठितत्वात् ; चारित्रपदेनैव संयमार्थस्योक्तत्वाच । अतः पवयण ति व्याख्यायतेपवयणट्टयाए किंचि पडिसेवंतो सुद्धो। जहा कोई रायाइ भणेजा 'मम विसयाओ नीह [र'। एत्थ पवयणट्ठया सेवंतो सुद्धो। जह विद्रुअणगारो । तेण रुसिएण लक्खजोयणपमाणं रूवं विगुरुव्वियं लवणो चलणेणालोडिओ ति॥ समिय त्ति-इरियं न सोहेइस्सामि त्ति चक्षुर्निमित्तं वैद्योपदेशादोषधपानं कुर्यात् । इरियासमिइनिमित्तं । , Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३-25. ३-30 ] जीतकल्पचूर्णि-विषमपदव्याख्या ३५ -Animaan खेत्तचित्ताईओ होउं मा भासासमिएऽसमिओ होमि त्ति तप्पसमणद्वया ओसहपाणं कुर्यात् । तइयाए समिईए अणेसणियं पि कयाइ गिण्हेजा। एसणदोसेसु वा दससु संकाइएसु गिण्हेजा । अद्धाणपडिवन्नो वा अद्धा पडिसेवेज्जा । आयाणनिक्खेवणसमिईए चलहत्थो होउं कंपणवाउणा गहिओ सो अन्नओ पमजद अण्णओ निक्ख्नेवं करेइ; तप्पसमणठ्ठया वा ओसहं करेजा । पारिट्ठावणियसमिईए कायभूमीए वा किंचि विराहेजा। मणोगुत्तीए वियडं कारणओ पडिसे वियं तव्वसा मणसाऽगुत्तो कारणागुत्तो खेत्तचित्ताइ हवेजा। 'साहम्मियवच्छल्लाइ-बालवुडपज्जवसाणाण' नवण्हं पयाणं व्याख्या । साहम्मियवच्छलं पडुच्च किंचि अकप्पं पडिसेवेज । जहा अजवयरेहिं असिवगमुंडो नित्थरिओ। तत्थ किं अकप्प? भनइ तहे वा संजयं धीरो आसएहिं करेहिं वा । सयं चिट्ठ वयाहि त्ति नेवं भासिज पनवं-इति ॥ सिलोगो कण्ठ्यः । कुल-गण-संघकजेसु समुप्पनेसु वसीकरण-उच्चाटण-होमाइ रायाइयमहिस्स पउंजेयव्वं । निमित्त-चुन-जोगा कायया । आचार्यस्य असहिष्णोगिलाणस्स वालवुड्डाण य जेण समाही तं कायव्वं । को य असहू! तत्य राया जुवराया सेट्ठि-अमञ्च-पुरोहिया य एए असहू पुरिसा भनंति । एए अन्तपन्ताइएहिं अभाविया । बालवुड्ढा य कारणे दिक्खिया होज्जा;-जहा वयरसामी, अजरक्खिय-पिया य । एएसिं पणगाइयाए जयणाए घेत्तुं समाहिहे दायव्वं । जयणाए अलब्भमाणे पच्छा जाव आहाकम्मेणावि समाहाणं कायव्वं । ३-25. इयाणि उदयाइ-वसणपज्जवसाणाणं अटण्हं पयाणं व्याख्या उच्यते। तत्थ उदय त्तिवाहो पानीयप्लव इत्यर्थः । अग्गि त्ति-दवाग्निरागच्छति । [चोर त्ति-चोरा दुविहा उवगरणसरीराणं । सावय त्ति-गय-सप्प-सीह-वग्याइ । भय त्ति-एयस यासाओ भयं । एएसिं अन्नयरकारणे उप्पन्ने थंभणि विजं मंतेऊण थंभेजा। विजाभावे पलायइ । पलाइउं असमत्थो श्रान्तो वा सचित्तरक्खं दुरुहेज्जा, न दोसो।[कंतार त्ति-कन्तारमध्वानं जत्थ भत्तपाणं न लब्भइ तत्थ जयणाए कयलगाई फलं वा उदगाई वा फासुयं गिण्हेज्जा। अडवी ४; दव्व-खेत्त-काल-भावावई चउहा । दवओ फासुयं दव्वं न लहइ । खेत्तओ अद्धाणपडिवनयाण आवई । कालओ दुभिक्खाइसु । भावओ गिलाणस्स आवई। तत्थ किंचि अकप्पियं पडिसेवेजा। तत्थ विसुद्धो । गीयाइअन्भासो व[स]णं। कोई चारणाइदिक्खिओ वसणत्तो गीओच्चार करेज । पुव्वभाविओ पक्कताम्बूलपत्ताइ मुहे पक्खिवेज । एसा दंसणाइया कप्पिया । एत्थ पडिसेवओ साहू, दप्पिया-कप्पियाइ पडिसेवणा, पडिसेवियव्वं च वयछकाईणि अट्ठारसट्ठाणाणि । तत्थ य ३-28. वयछक्क-कायछकं० गाहा । व्याख्याः-व्रतषद प्राणातिपातादिपञ्चकरात्रीभोजनविरतिषहम् । पृथिव्यादयः षड्जीवनिकायाः। षकद्वयेन मूलगुणा उक्ताः। अथैतद्वृत्तिकल्पा अकल्प्यादयः षडुत्तरगुणा अभिधीयन्ते । तत्राकल्पो द्विविधः-शिक्षकस्थापनाकल्पः, अकल्प्यस्थापनाकल्पश्च । तत्राद्यः-अनधीतपिण्डनियुक्त्यादिशास्त्रसाधुना आनीतमाहारादि साधुभ्यो न कल्पते । उक्तं च अणहीया खलु जेणं, पिंडेसण १ सेज २ वत्थ ३ पाएसा ४ । तेणाणिआणि जइणो कप्पंति न पिंडमाईणि ॥१॥ उउबद्धम्मि न अनला, वासावासे उ दोवि नो सेहा । दिक्खिजंती सेहट्ठवणा कप्पो इमो नवरं ॥२॥ 'दोवि त्ति'-नपुंसकाऽनपुंसकाख्यं द्वयं वर्षासु न दीक्ष्यते। शीतोष्णाख्यशेषमासाष्टके अनला नपुंसका न दीक्षार्हाः इति । [अकप्पो-] शिक्षकस्थापनाकल्पोऽकल्प्यः । अन्यश्च पिण्डशय्यावस्त्रपात्रानेषणीयचतुष्टयगोचरोऽकल्प्यः । उद्गमोत्पादनादिदोषरहितं च चतुष्कं कल्प्यम् । [गिहिभायणं-] गृहभाजनं गृहस्थसम्बन्धिकांश्यकरोटकतलिकामृन्मयकुण्डिकादिकमकल्प्यम् । पलियंक त्ति-आसन्दकशय्यामश्चकादिके उपवेशनशयनीयरूपे सुषिरदोषान्न कल्पते उपवेष्टुं स्वप्तुं वा । निसेज त्ति-भिक्षार्थ गृहे प्रविष्टस्य साधोस्तत्र निषदनं कर्तुं न कल्पते उत्सर्गतः; अपवादतस्तु साधुत्रयमध्ये अन्यतरस्य कल्पते जराभिभूतस्य व्याधिमतो विकृष्टक्षपकस्य च तपखिन इति । एते च भिक्षाटनं न कार्यन्त एव । परमात्मलब्धिकाद्यपेक्षया सूत्रे त्रयस्योपवेशनं योज्यम् । [सिणाणं ति-] स्नानमङ्गप्रक्षालनं देशसर्वभेदभिन्नम्। [सोभवजणं-शोभावर्जनं विभूषापरित्यागः । इत्यष्टादशस्थानगणः प्रतिषेवयितव्य आलोचनागोचरः ।। ३-30. सोऊण गाहा । तस्य गुरोः प्रतिसेवकस्य । स शिष्यः गूढपदावधारकः । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ श्रीचन्द्रसूरिसंरचिता [३-31. ४-2 सोऊण त्ति-श्रुत्वा प्रतिसेवनां आलोचनां च श्रुत्वा, क्रमविधिं च श्रुत्वा मूलोत्तरगुणविषयाम् । आगमं ज्ञात्वा, पुरुषजातं च आचार्यादि ज्ञात्वा । तदीयं पर्यायं व्रतवयोविषयम, बलं च शरीरसामर्थ्यम्, क्षेत्रं च कर्कशसाधारणादिरूपं ज्ञात्वा । यस्मादागतस्तत्रैव गतः। अमुमेवार्थ प्रकटयति अवधारेउमित्यादिना। ३-31. सोतउत्ति-स तकः गूढपदालोचनाकथकः। सो० गाहा । स आलोचना-दाता स्वयं गन्तुमसमर्थः खशिष्यं प्रेषयति; तदभावे आगतशिष्यस्यैव कथयतीति तात्पर्यम् । ३-32. अणुमजिय त्ति-निरूप्य विशोध्येत्यर्थः । तं तिगूढपदालोचितमतिचारम् । तस्य गुरोः । पच्छित्तं ति-तपोदानरूपं ददाति, गूढपदैरेषां कथयति । तान्येव दर्शयति पढमस्स येत्यादिना ३-33. प्रथमस्येति दर्पासेवनारूपस्य। [दसविहमालोयणं ति-] दशविधालोचना दर्प-अकल्पादिदशपदात्मिका, तां विमृश्य, गूढपदौ प्रायश्चित्तं पाठयति । नक्खत्ते पील त्ति-अस्यार्थः-भे भवतां पीडा विराधना; नक्षत्रे कोऽर्थः-चन्द्रादित्यग्रहनक्षत्रतारकभेदतः पञ्चविधज्योतिश्चकमध्ये नक्षत्रभेदश्चतुर्थस्थानी । अतस्तेन चतुर्थव्रतगोचरा पीडा सूच्यते-इत्येके व्याचक्षते । अत्रैव-नक्खत्तमेगे मूलं भणंति, अन्ने हत्थं निद्दिसंति; अवरे मूलुत्तरगुणविराहण त्ति । तत्थ चउत्थ (स्थतं b) इयत्वयविराहणाइयारे हत्थं ति हत्थकम्मं कयं । हत्थेण अदिनं वा गहियं । यद्वा व्रतषशादयः सप्ताविंशतिसंख्या अनगारगुणा मूलोत्तरगुणरूपा नक्षत्रशब्देनात्राभिप्रेताः, नक्षत्राणामप्येतत्संख्याव्यवहारात् । तथा च भनगारगुणानाश्रित्य पठ्यते-'सत्तावीसाए अनगारगुणेहिं ति' । तत्र वयछक्कमिंदियाणं च निग्गहो भावकरणसचं च । खमया विरागया वि य मणसाईणं निरोहो य॥ कायाण छकजोगम्मि जुत्तया वेयणाहियासणया। तह मारणतियाहियासणा एए अणगारगुणा॥ इह व्रतषवं मूलगुणाः। कायषवं चेति द्वादश शेषाः (१)। तत्र मूलगुणे चतुर्थव्रतविषये पढमे छक्के चउत्थं भवेट्ठाणमिति गाथापाठो द्रष्टव्यः । उत्तरगुणविराधनामाश्रित्य सुके मासे तवं कुणह त्ति भणितं; चउमासं छमासं च तवं कुणह सुक्क इत्यप्यग्रतो भणितम् । परं शुक्लमासादिदानपक्षे उत्तरगुणानाश्रित्य द्रष्टव्यम् । कृष्णमासादि दानपक्षे मूलगुणविराधनामाश्रित्येति । नवरं उग्घाओ सुक्कमासो सद्धसत्तावीस दिवसनिष्पनो । अणुग्घाओ पडिपुन्नो तीसअहोरत्तनिष्पन्नो ॥ ४-2. एवं ता उग्घाए[इत्यादि-तत्र उद्घातो भागपातस्तेन निवृत्तं उद्घातिमं लम्वित्यर्थः । एतनिषेधादनुद्घातिमं गुर्वित्यर्थः । तत्र प्रथम पञ्चकं, दशकं, पञ्चदशकं, विंशतिमं, पञ्चविंशतिमं, इत्येतत्सर्व भिन्नमासशब्दवाच्यं ज्ञेयम् । मासलघु, मासगुरु, चउलघु, चउगुरु, छलहु, छगुरु । अन्यच्च द्विमासगुरु, त्रिमासगुरु, चउमासगुरु, पञ्चमासगुरु, छमासगुरु-एते सम्पूर्ण-निजनिजपरिमाणाः कृष्णमासशब्दवाच्याः, अनुद्धाताश्चोच्यन्ते । तत्र लघुगुरुदानेऽयं क्रमः अद्धेण च्छिन्नसेसं पुव्वद्धेणं तु संजुयं काउं । देजाहि लहुयदाणं, गुरुदाणं तत्तियं चेव ॥ यथा-मासस्यार्द्धच्छिन्नस्य शेषदिन १५ । एतन् मासापेक्षया पूर्वस्य पञ्चविंशतिकस्यार्द्ध सार्धद्वादशकेन संयुतं कृतं मासार्द्ध सार्धसप्तविंशतिर्भवति । इत्येवं दिनसंख्यानिष्पन्नः शुक्लमासः, उत्तरगुणविराधनामाश्रित्य वाच्यः। शुक्लचतुमासः प्राचीनप्रक्रियया कृतः । एतावान् ११० भवति । शुक्लषण्मासिकं तपः १६५ । अणुघाए ताणि त्ति-तानि मासिकादीनि षण्मासान्तानि तपांसि अणुग्घाए त्ति सम्पूर्णानि कृष्णशब्दवाच्यादीनि द्रष्टव्यानि । तत्र गुस्मासिकं गुरुद्विमास त्रिमासचातुर्मासिकं पञ्चमासिकं षण्मासिकम् । | गु० मा० ३० गु० द्विमा० ६० गु० त्रि००० गु० चा० ००० गु० पं० ०००० गु०५० ००००० । |ल. मा० २७॥ ल० ,, ४५ । ल.,, ७५ । ल.,, १०५ ल., १३५ ल., १६५. अन्यच्चोच्यते किञ्चित्-अट्ठमाइणा तवेण जं बुज्झइ तं तवगुरुयं, निव्वीयाइणा छटुंतेण बुज्झमाणं तवलहुगं, कालओ जं गिम्हे बुज्झइ तं काललहुयं । अन्यच्च जंतु निरंतरदाणं जस्स व तस्स व तवस्स तं गुरुयं । जं पुण संतरदाणं गरुयं पि हु तं लहं होइ॥ तवकाले आसज्ज व गुरू वि होइ लहू लहू गुरूओ। कालो गिम्हो गुरु अट्ठाइतवो लहू सेसो॥ . Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४-3. ४-10 ] जीतकल्पचूर्णि-विषमपदव्याख्या ३७ इह तीर्थ उत्कृष्टतोऽपि षण्मासान्तमेवातिचारशुद्ध्यर्थ तपो भवति । अत उक्तं-मास-चउमास-छमासियाणि । इत ऊर्ध्वं च षण्मासिकेनाप्य शुद्धौ छेदमूलानवस्थाप्यपाराञ्चिकानि तत्तत्कालापेक्षया सूरिभिर्दीयन्ते । अतश्वर्णिकृदाज्ञाव्यवहारे कृते गूढपदैरेव तानि वक्तुकाम इदमाह-छेअं अओ वोछं ति । अओ त्ति-षण्मासीए तपस ऊर्ध्व छेदादिप्रायश्चित्तं गूढपदैराज्ञाव्यवहारत्वाद्वक्ष्ये । अन्यत्राप्युक्तम् 'उस्सग्गेण वि सुज्झइ अइयारो कोइ, कोइ उ तवेण । तेण उ असुज्झमाणे छेयविसेसा विसोहिंति त्ति' ॥ तत्र४-3. छिदं तु तयं भाणं ति० गाहा । अस्यायमर्थः-तयं तु तकत् , भाणं ति पूर्ववतपर्यायरूपं भाजनम्, छिन्दन्तु अपनयन्तु उत्सारयन्तु । पर्यायच्छेदं तु अतिचारानाश्रित्य 'छब्भागंगुलपणए' इत्यादिना वक्ष्यति। पूर्वपर्यायच्छेदेनाशुद्ध्यमाने साधवो व्रतस्य पर्यायस्य मूलं व्रजन्तु । अष्टमप्रायश्चित्तभाजो भवन्तु । तस्याप्ययोग्यतायां 'अव्वावडावगच्छे'-व्रजेयुरव्यावृताः, अव्यापाराः संतिष्ठन्तु, अनवस्थाप्याही भवन्तु । तेनाप्यशुद्धौ तदयोग्यतायां 'अब्बिइया वावि' विहरन्तु । अद्वितीया एकाकिनः सन्तो वक्ष्यमाणपाराश्चिकप्रायश्चित्तासे विनो भवन्तु । प्रागुपात्तं छेदं दर्शयति ४-4. छब्भागंगुलेल्यादिना । छेदो हि पञ्चकदशकादिरूपतया तत्तदतिचारापेक्षया तपोभूमिमपकान्तस्य यावत्पर्यायधरणं तावद्भवति । यदाह 'उकोसं तवभूमि समईओ सावसेस-चरणो य । छेयं पणगाईयं पावइ जा धरइ परियाओ ॥' गाथाद्वयस्यार्थः कथ्यते-छब्भागंगुलपणगेत्ति-सो आलोयणायरिओ, तस्स सीसस्स एयाए सन्नागूढं छेयपायच्छित्तं देह। तं जहा-मास दुमास तिमास चउम्मास पंचमास छम्मासाणं पत्तेयं पत्तेयं अंगुलववएसं करेइ । तहा कए य जस्स मासमेत्तो परियाओ तस्स, पंचगे त्ति पंचसु दिवसेसु छिदियव्वेसु, अंगुल त्ति मासस्स छन्भागो छिदियव्वोत्ति भणियं होइ । दसभाए ति भाग त्ति-तस्सेव य अंगुलसन्नियस्स मासस्स दससु दिणेसु छिंदियब्वेसु अंगुलस्स तिभागो छिंदियव्वो त्ति भणइ। मासपज्जायस्स दसदिवसा छिदियव्व त्ति भणियं होइ। अद्ध-पन्नरसे त्ति-तस्सेवांगुलसनियस्स मासस्स पन्नरसे त्ति पन्नरससु दिवसेसु छिदियव्वेसु अद्धमंगुलस्स छिंदियव्वं ति निद्दिसइ। पन्नरस दिवसाणि छिंदियव्वाणि त्ति सम्भावो। वीसाए तिभागूणं ति-तस्सेव मासस्स वीसाए दिवसाणं छिंदियव्वाए तमेवंगुलं ति-भागूणं ति तइयभागेण ऊणं छिदियव्वं ति भण्णइ । मासस्स दोन्नि भागा अवरा यत्ति भणियं होइ । छब्भागणं तु पणवीसे त्ति-तस्सेव मासस्स पंचवीसाए दिवसाणं छिंदियव्वाए छन्भागूणं ति तमेवांगुलं छब्भागेण ऊणं छिदियव्वं ति भणइ । मासस्स पंचवीस दिवसा छिदियव्वं ति । मासे छिदियव्वे अंगुलं छिंदियव्वं ति भणइ ॥ १॥ विहि मासेहि छिंदियव्वेहि अंगुलदुगं छिंदियव्वं ति भणइ ॥२॥ ति मासे छिंदियव्वे अंगुलतिगं छिंदियव्वं ति भणइ ॥३॥ चउमासे छिंदियध्वे चउरो अंगुलाई छिंदियव्वाई भणइ ॥४॥ पंचहिं मासेहिं छिंदियव्वेहिं अंगुलपंचगं छिंदियव्वं ति सन्दिसइ ॥५॥ छम्मासपरियाए छिन्दियव्वे छअंगुलाई ववइसइ ॥६॥ ४-5. एए छेयविभाग त्ति-एए त्ति पुव्वनिद्दिठा, छेय त्ति छेयं सत्तमपायच्छित्तं तस्स विभागा विसेसा नायव्वा-जाणियव्वा । अहकमेणं तु त्ति जे जहा निद्दिट्ठा । __ आज्ञाव्यवहारे दर्पिकीमासेवामभिधायाधुना कल्पिकीमाह ४-6. बिइअस्स कजस्सेत्यादिना । द्वितीयस्य कल्पासेवनारूपस्य ज्ञानदर्शनादिचतुर्विंशतिपदरूपस्य तद्गोचरामासेवनां श्रुत्वा शिष्येण कथ्यमानां सूरिबूते-आउत्तनमोकार त्ति । आयुक्ताः संयमोद्यमविधायिनः पञ्चपरमेष्ठिस्मरणपरा भवंतु सूरयोऽप्रायश्चित्तिन इति भावः। नवरं-कारणपडिसेवा वि हु सावजा निच्छये अकरणिज्जा, किं सर्वथा नेत्याह-बहुसो वियाइत्ता। कर्तव्य मिति शेषः। अधारणिज्जेसु-अत्यागाढकारणेष्वित्यर्थः । “जइ वि य समगुन्नाया-सावधप्रतिषेवेति प्रक्रमः-तहवि य दोसो न वज्जणे दिट्ठो। दढधम्मयाहु एवं नामिक्खनिसेव-निद्दयया ॥" ४-8. एवं सो इत्यादि । द्रव्यादिकं ज्ञात्वा परिभाव्य वेति शेषः । परिपृच्छ्य खकीयगणं खयमात्मगमनं विधत्ते, शोधिदाता सूरिः गीतार्थशिष्यं वा प्रेषयति । अविजमाणे वत्ति निजगमन-खशिष्याभावे। तस्सेव त्ति आलोचनातिचारकथकप्रेषितशिष्यस्यैव हस्ते गूढपदैरक्षते(रै ? )लिखित्वा वा विशोधिं प्रेषयति । ४-10. धारणाव्यवहारस्तु Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीचन्द्रसूरिसंरचिता [४-13. ५-20 'गीयत्थेणं दिण्णं सुद्धिं अवधारिऊण तह चेव । दितस्स धारणा सा उट्ठियए य धरणरूवा जा॥' सुगमा । ४-13. बहसोपडितप्पियरस त्ति-अनेकशः कृतकार्यस्य । अवसेसत्ति-किञ्चिच्छेषाकर्णितागमस्य । अयमर्थः-वैयावृत्त्य करणादिना गच्छोपकारी कश्चित्साधुरद्याप्यशेषच्छेदश्रुतयोग्यो न भवति ततस्तस्यानुग्रहं कृत्वा यदा गुरुरुद्धतान्येव कानिचित् प्रायश्चित्पदानि कथयति तदा तस्य तेषां पदानां धरणं धारणा अभिधीयते।। ४-15. जीतव्यवहारस्तु येवपराधेषु पूर्वमहर्षयो बहुना तपःप्रकारेण शुद्धिं कृतवन्तस्तेष्वपराधेषु साम्प्रतं द्रव्यक्षेत्रकालभावान् विचिन्त्य संहननादीनां च हानिमासाद्य समुचितेन केनचित्तपःप्रकारेण यां गीतार्थाः शुद्धिं निर्दिशन्ति तत्समयपरिभाषया जीत मित्युच्यते । अथवा यद्यत्र गच्छे सूत्रातिरिक्तं कारणतः प्रायश्चित्तं वर्तितमन्यैश्च बहुभिरनुवर्तितं तत्तत्र रूढं जीतमुच्यते । ४-19. वत्तणु० गाहा । वत्तो नाम एकसि अणुवत्तो जो पुणो बिइयवारे । तइयवारं पवत्तो सुपरिग्गहिओ महाणेणं ॥ बहुसो बहुस्सुएहिं जो वत्तो न य निवारिओ होइ । वत्तणुवत्तपमाणं जीएण कयं हवइ एयं ॥ तथा च-सो जह काईएणं अपडिकंतस्स निविगइयं तु । मुहणंतफिडियपाणग-असंवरे ए[व]माईसु॥ एगं दिणं च बजे घट्टणतावेण गाढगाढे य । शिविगईमाईयं जा आयामतमोहवणे ॥ विगलिंदणंतघणपरियावणगाढगाढउद्दवणे । पुरिमढाइ कमेण उ नेयव्वं जाव खमणं तु ।। पंचिंदि-घतावण-अणगाढगाढ-तहेव उद्दवणे । एगासणमायाम खमणं तह पंचकल्लाणं ॥ एमाईओ एसो नायव्यो होइ जीयववहारा । अणवज्जविसोही करो संविग्गणगारविन्नो त्ति ॥ ४-25. आगमव्यवहार(रा) न श्रुतमनुवर्तयन्ति । जे पुणोत्यादि-- 'आकारैरिङ्गितैर्गत्या चेष्टया भाषितेन च । नेपवक्त्रविकारश्च गृह्यतेऽन्तर्गतं मनः ॥ इत्यन्यत्रापि पठ्यते । नवरम्--इजितं निपुणमतिगम्यं प्रवृत्तिनिवृत्तिसूचकमीषद्भूशिरःकम्पादि । आकारः स्थूलधीसंवेद्यः प्रस्थानादिभावसूचको दिगवलोकनादिः । ४-26. वत्ति त्ति-वक्त्रम् । [णेत्तं] नेत्रं लोचनम् । वयण त्ति-वचनम् । एतदीय विकारादिभिः । तिक्खुत्तो त्ति त्रिकृत्वो वेलात्रयं संवादार्थम् । पलिउंचियं समायं, अपलिउंचियं अमायं । ४-28. सुयाभावे त्ति-श्रुतवत्सन्निधानाभावे ।। ४-29. सुयववहाराणुसरिसो त्तियतः श्रुतोक्तप्रायश्चित्तमेवात्रापि दीयते । ४-31. विसेसिउत्ति-आज्ञाव्यवहारः श्रुतोपदेशोचितप्रदानम् । ४-32. सव्वत्थय त्ति--त्रिषु कालेषु, जीतस्य चिरानुवर्तनं यावत्तीर्थ तावत् । ५-4. तवेगदेसं ति–द्वादशभेदस्य तपसः प्रायश्चित्तं तदेकदेश एव । ५-5. पारंपरिएण-परम्परया। उव्वेल्लणाए-परमसमसुह०-सम्यक्सुखलक्षणः। ५-9. अनादानं अग्रहणं नूतनकर्मणः । ५-10. अहव त्ति-यद्वा संवरनिर्जरे एते सप्रभेदे कथ्येते-विशिष्टं लक्षणमेतयोर्भण्यत इति भावः। मिथ्या त्वाविरतिकषाय प्रमादयोगानां निरोधः [संवरः । ५-11. अवरोधेन अपगमेन । ५-13. इन्द्रियाणि पञ्च, तेषां विषयाः शब्दरूपरसस्पर्शगन्धाख्यास्तेषु इष्टानिष्टेषु रागद्वेषाकरणम् । विकथाः स्त्रीकथाद्याश्चतस्रः । निद्रा पञ्च विधा । मद्यं विकटम् । प्रमादोऽज्ञानसंशयादिकः । योगा मनःप्रभृतयः । ५-14. धावनादिकं प्राग व्याख्यातम् । स्फोटनं बाह्वाद्यास्फोटनं घटादिभेदनं वा। ५-15. असम्भूय त्ति-असद्भूतोद्भावनम्-अंगुष्ठपर्वमात्रादिर्जीवः, नवकम्बलो देवदत्त इत्यादिकः । ५-16. ईसालरिस त्ति-परसम्पदामसहनमीा , अमर्षः क्रोधः, एते मनोव्यापाराः । ५-20. [उत्तरगुण]-- पिंडस्स जा विसोही, सनिईओ भावणा तयो दुविहो । पडिमा अभिग्गहा वि य, उत्तरगुणमो वियाणाहि ॥ ५-20. [परीसह छुहा पिवासा सीउन्हें, दंसाचेलारइथिउ । चरिया निसीहिया सिज्जा, अकोसवहजायणा ।। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतकल्पचूर्णि - विषमपव्याख्या अलाभरोगतणफासा, मलसक्कार परीसहा । पन्नान्नाण- समत्तं इइ वावी परीसहा ॥ ५ - 21. [ उवसग्ग - ] उपसर्गाः १६ दिव्वा ४ माणुसगा चेव ४, वियाहिया तिरिच्छा य ४ । आयसंचेयणीया य ४ उवसग्गा चउव्विहा ॥ 4-21.6-9] [ [ पुढोवेमाया ] पृथग् विमात्रा हास्येन प्रारब्धाः प्रद्वेषेण निष्ठाङ्गता इति । ५ - 22. कुसीलपडि सेवण त्ति - चतुर्थव्रतलोपनम् । विषयाभिष्वङ्गिणा रुयादिना । [ घट्टणया ] घट्टनं रजसश्चक्षुः स्थस्य । [ थंभणया ] स्तम्भनता पादायङ्गस्य । [ लसणया ] लेषनताऽङ्गानां वातादिना । [ पवडणया ] प्रपतनं भूमौ देहस्य । * चरणसोहणत्थं चेति चकारात् ज्ञानदर्शनशुद्ध्यर्थं च प्रायश्चित्तं ज्ञेयम्, त्रयस्यापि मोक्षकारणत्वात् । चरणशुद्धवारि श्रेष्ठता | ६ - 13. विर्गियमाणो विहीयदत्ति-यद् द्रव्यमधिकमकल्प्यं वा गृहीतं तद्विगिश्चयन् त्यजन् विधिना तमतिचारं शोधयति । ६ - 20. जाव० तवो चिण्णो त्ति - ततो महात्रतेषु नावस्थाप्यते नाधिक्रियते इत्यनवस्थाप्यः । ६- 21. पारं तीरं तपसा अपराधस्य अञ्चति गच्छति ततो दीक्ष्यते यः स पाराञ्ची, स एव पाराचिकस्तस्य यदनुष्ठा नम् । तच्च पाराश्चिकं लिङ्गक्षेत्रकालतपोभिर्बहिष्करणम् । लिङ्गाईहिं पारंचिओ रहितः क्रियते इत्यर्थः ॥ दस पाय च्छित्तपयाणि । तत्थ साहवो पुलाग - वउस कुसील - नियंठा - सिणाय - भेया पंच । एएसि जं जस्स भवति तमियाणि भन्नइआलोय - पडिकमणे मीसविवेगे तहा विउस्सग्गे । ततो तवे य च्छट्ठे पच्छित्तपुलाके छप्पे ॥ वउस - पडि सेवगाणं पायच्छित्ता भवंति सच्चेवि । थेराण भवे कप्पे जिगकप्पे अडहा होइ ॥ आलोयणा विवेगो वा नियंठस्स उ दुवे भवे । विवेगो य सिणायस्स एमेया पडिवत्तिओ ॥ समायिकः साध्वादीनां च पञ्चानां यद्यस्य तत्कथ्यते - सामाइसंजाणं पच्छित्ता छेयमूलरहियह । थेराण जिणाणं पुण तवमंतं छव्विहं होइ ॥ छेओवट्ठावणिए, पायच्छित्ता हवंति सव्वे वि । थेराण जिणाणं पुण मूलं तं अट्ठद्दा होइ ॥ परिहारविसुद्धीए मूलं ता अट्ठ हुंति पच्छित्ता । थेराण जिणाणं पुण छन्विहमेयं वि य तवंतं ॥ आलोयणा विवेगो य तइयं तु न विज्जइ । सुहमम्मि संपरागे अहवखाए तहेव य ॥ ३९ अन्यच्च जा संजया जीवेसु ताव मूला य उत्तरगुणा य । इत्तिरियच्छेय संजम नियंटवडसा य पडिसेवी ॥ a नेया । कृतं प्रसङ्गेन । प्रकृतमुच्यते तत्र 'कर णिज्जा जे जोगा' गाथायां ( गाथाङ्क ५ ) योगाः प्रत्युपेक्षणादिकाः क्रियारूपाः । ६ - 31. आलीण - आ ईपलीनः । बहुतरं लीनः प्रलीनः । भाष्ये तु " आलीणा नाणाइसु; पइलीणा, कोहाईया पलयं जेसिं गया ते पलीणा उ" इत्युक्तम् । ६- 32. पादमुद्धृत्य अघर्षयन् - रीयेत गच्छेत् । तिरिच्छं ति तिर्यक्कृत्वा कीटिकायाकुले देशे । साहद्दु- संहृत्य संकोच्य अग्रेत फणादिना । ६- 34. जा य सच्चेत्यादि - पदार्थतत्त्वमङ्गीकृत्य या भाषा सत्या, परमवक्तव्या सावद्यत्वेन; अमुत्रस्थिता पल्लीति कौशिक भाषावत् ॥ १ ॥ तथा सत्यामृषा न वक्तव्या । यथास्मिन्नगरे दश दारका जाता इत्यादि तभ्यूनाधिकभावे, व्यवहारतोऽस्याः सत्यमृषात्वात् ॥ २ ॥ या च मृषा, यथा- कोधाभिभूतो जनकः पुत्रमाह-न त्वं मम पुत्रः । माना मातोऽल्पधनोऽपि पृष्ट आह - महाधनोऽहमित्यादि ॥ ३ ॥ या च बुधैर्जिनादिभिरनाचीर्णा असल्यामृषा आमन्त्रण- प्रज्ञापनादिलक्षणा अविधिपूर्वकं खरादिप्रकारेण न तां भाषेत् प्रज्ञावान् बुद्धिमान् साधुरिति गाथार्थः ॥ ४ ॥ ७- 1. एवं वक्ष्यमाणन्यायेन शिष्यो भणतीति शेषः । ७- 9. तेय त्ति-तान् योगान् । * इदं पदं चूय नोपलभ्यते । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीचन्द्रसूरिसंरचिता [७--10. ८-14 ७-10. का अविसोही-किन्तु विशुद्धिरेव तत्र विद्यते । ७-11. सुहुमपमाय-यथोक्तविधिहासोऽलक्ष्यो यः गुरुसंदिष्टो यथा आलोचयति । ७-12. पुव्वं वत्ति-कार्यकरणकालात् । ७--14. गहणे ति-प्राकृतत्वात् ग्रहणानीति दृश्यम् । ७-16. सेज त्ति-वसतिः । पायपुंछणं-रजोहरणं उपवेशनरूपं च । ७-17. ओहिय इति–'ओघेण जस्स गहणं भोगो पुण कारणा स ओहोही' । ओघोपधिः सः । 'जस्स य दुगंपि नियमा कारणाओ सो उवग्गहिओ॥ ७-18. गहणं तु त्ति-गहणं कथनमित्यर्थः । ७-21. कुलगणे त्ति-कुलं नागेन्द्रादिः, गणः कोटिकादिः। ७-23. बहियाणिग्गमो त्ति-किमपेक्ष्य बहिरित्याह । - गुरुमूलाओ त्ति । किमर्थ यातीत्याहकुलेत्यादि । ७-24. चेइय दुविहमेयतहव्वेत्यादि-चैत्यं पञ्चधा-साधर्मिकचैत्यं, यथा वा रक्तकसाधादीनां प्रतिकृतिरूपम् १। मङ्गलचैत्यं गृहद्वारदेशादिनिकुहितप्रतिमारूपम् २ । शाश्वतचैत्सं नन्दीश्वरादिव्यवस्थितम् ३ । भक्तिचैत्यं भक्त्या क्रियमाणं जिनायतनम् ; तच्च द्विधा-साधुनिश्रया क्रियमाणं निश्राकृतम् ४ । तदनिश्रया तु विधीयमानमनिश्राकृतम् ५। तस्य सामान्येन जिनायतनाख्यचैत्यस्य द्रव्यं हिरण्यसुवर्णादिरूपम् , तस्य विनाशे जायमाने; तथा तव्यविनाशने तस्य चैत्यस्य द्रव्यं उपकारकं दारूपलेष्टकादिवस्तु तस्य विनाशने सम्पद्यमाने द्विविधभेदे;त्त(१)त नलग्नोत्पाटितभेदतो द्विप्रकारभेदे-मूलोत्तरभेदाद्वा द्विविधभेदे । तत्र मूलं स्तम्भकुम्भकादि, उत्तरं तु छादनादि । खपक्षपरपक्षजनितविनाशाद्वैविध्याद्विविधभेदे । इह चैत्यतद्रव्यविनाशमुपेक्षमाणः साधुरनन्तसांसारिको भवतीत्युक्तम् । द्रम्मादिद्रव्यं काष्ठादिदलं चेत्यादिना द्विविधभेदं यत्तद्रव्यं चैत्यद्रव्यं तस्य विनाशस्य निवारणादीनि कर्तु निर्गतो भवतीति चूर्ण्यक्षरार्थः। ७-25. पाडिहारियं-याचितकम् । अप्पणत्थं-समर्पणाय । ७-28. सन्नायग त्ति-खजनाः । ८-1. पासवण त्ति-मूत्रं भूमौ व्युत्सृष्टं वोसिरइ ति मात्रके । ८-6. असिवं व्यन्तरादिकृतोपद्रवम्। ओमं ति दुर्भिक्षम् । राजदुष्टः प्रत्यनीकपतिः। ग्लानो मन्दः । उत्तमार्थः पर्यन्तक्रियाराधन विषयः। ८-7. चक्कथूभ त्ति-ऋषभजिनपदस्थाने बाहुबलिविनिर्मितं तक्षशिलानगर्या रत्नमयधर्मचक्रं तद्दर्शनाय व्रजति । स्तूपो मथुरायाम् । प्रतिमा जीवन्तस्वामिसम्बन्धिनी पुरिकायाम् । यत्र सौरिकपुरादौ अर्हतो जन्म, निष्कमणभुवं उजयंतादि द्रष्टम् , ज्ञानं तत्रैवोत्पन्नम् । निर्वाणभूमि-दर्शनार्थ च प्रयाति। [वडग] वजिक-गोकुलम् । सङ्कडिप्रेक्षा विवाहादिप्रेक्षणम् ; आदिशब्दातू शोभनाहारः शोभनोपधिर्यत्र लभ्यते । रम्यदेशदर्शनार्थ च व्रजतीति गृह्यते। ८-13. अप्पा० गाहा । अल्प शब्दोऽभाववाची सर्वपदेषु । तेन मूलगुणविषया विराधना अल्पा न का. चित् । पार्श्वस्थाऽव सन्मादिषु दाने ग्रहणे च न काचित् । सम्प्रयोगः सम्पर्कः । स पाश्वस्थादिभिः सह न आसीत् । ओह ति-इयमोघतः संक्षेपत आलोचना । ८-14. अन्नमित वेलाए त्ति-अर्धमासाभ्यन्तरेऽपि, अन्यस्मिन् सातिचारे, समुद्देशवेलायां अन्यस्यां वेलायां विभागतो विशेषत आलोचनीयम् । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८-16. ९-5] जीतकल्पचूर्णि-विषमपदव्याख्या ८-16. संविग्ग त्ति-संविप्नाः प्रियदृढधर्माणः । ८-18. श्रुतग्रहणायान्याचार्यमुपसम्पद्यमानस्य श्रुतोपसम्पत् । सुखं वा दुःखं वा समं सोढव्यमिति सुखदुःखोपसम्पत् । यथा क्षेत्रे वसतः मार्गे व्रजतश्च मम भवदीया निश्रेति सा तथाविधोपसम्पत् । विनयकरणार्थमुपसम्पद्यते यत्र गच्छान्तरे सा तथेति । तदुक्तं भाष्यकृता उवसंपय पंचविहं सुयसुहदुक्खे य खेत्तमग्गे य । विणयोवसंपया वि य पंचविहा होइ नायव्वा ॥ ८-20. विभागण-विशेषेण । ८-25. तट्ठाण त्ति-तेषां मिथ्यादुष्कृतकरणस्थानानां स्वरूपनिरूपणाय । ८-32. अहिक्खेवो त्ति-किं भवान् जानाति; जात्याद्युद्धटनादि वा । तथा च वक्ति डहरो अकुलीणो त्ति य दुम्मेहो दमगमंदबुद्धि त्ति । अवि अप्पलाभबु(ल)द्धी सिस्सो परिभवइ आयरियं ।। ९-1. जाइकम्माईहिं ति-अहो सन्तापिता वयमनेन रे बालिकेनेति । ९-2. जमलिय त्ति-समश्रेण्या गच्छति । पुरोऽप्रतः स्थितो व्रजति । गुरुं प्रतीत्याभ्युत्थानकरणादिको यो विनयः कायिकस्तस्य भङ्गोऽकरणम् । ९-4. इच्छा० गाहा । उवसंपया० गाहा-व्याख्या-इच्छया बलाभियोगमन्तरेण करणं इच्छाकार:इच्छाक्रिया । तथा चेच्छाकारेण ममेदं कुरु । इच्छाक्रियया न बलाभियोगपूर्विकयेति भावः ॥१॥ तथा मिथ्यावितथानृतमिति पर्यायः। मिथ्याकरणं मिथ्याकारः मिथ्याक्रियेत्यर्थः । तथा च संयमयोगवितथाचरणे विदितजिनवचनसाराः साधवस्त क्रियाया वैतथ्यप्रदर्शनाय मिथ्याकारं कुर्वते मिथ्याक्रियेयमिति हृदयम् ॥२॥ तथाकरणं तथाकारः, स च सूत्रप्रश्नगोचरो यथा भवद्भिरुक्तं तथेदमित्येवंरूपः॥३॥ अवश्यकर्तव्यैर्योगैर्निष्पन्ना आवशि(श्य)की वसतेर्निर्गग्छद्भिर्या क्रियते ॥४॥ निषेधेन निर्वत्ता नैषिधिकी, वसती प्रविशद्भिर्या विधीयते ॥५॥ आपृच्छनमापृच्छा, सा विहारभूमिगमनादिषु प्रयोजनेषु गुरोः कार्या ॥ ६ ॥ तथा प्रतिपृच्छा, सा च प्राग्नियुक्तेनापि कार्यकरणकाले कार्या, निषिद्धेन वा प्रयोजनतः कर्तुकामेनेति ॥७॥ तथा छन्दना च, प्राग् गृहीतेनाशनादिना कार्या, भवन्तो गृह्णन्तु ॥८॥ तथा निमन्त्रणा, अगृहीतेनैवाशनादिना अहं भवदर्थमशनाद्यानयामीत्येवंभूता ॥ ९ ॥ तथा चाभिहितम्___ आपुच्छणा उ कज्जे, पुष्वनिसिद्धेन होइ पडिपुच्छा । पुव्वगहिएण छंदण-निमंतणा होइ अगहिएण ॥ ९-5. [उवसंपयाओ]-ज्ञानदर्शनचारित्रार्थमुपसम्पच्च विधेया ॥१०॥ इत्यादि शब्देन गृह्यते । लहुसगे-सूक्ष्मम् , तत्खरूपं गाथाद्वयेन दर्शयति-पयलेत्यादिना । व्याख्या-पयल त्ति-दिवा कोइ साहू पयलंतोऽनेण साहुणा भन्नइ-'किं दिवा पयलायसि ?' | तेण भणियं-'न पयलामि' । एवमवलवन्तस्स मासलहुयोगो लह मसावाओ। एवं जत्थ जत्थ मासलह तत्थ तत्थ सहमो य मुसावाओ ॥१॥ ओले त्ति-ओलं, वासं । कोह साहू वासे पडमाणे अन्नयरपओयणे पडि(ट्ठि)ओ। अन्नेण साहुणा भन्नइ-'अज्जो किं वचसि ? वासंते । पडि(हि)य साहुणा तओ भन्नइ-'वासंते हं न गच्छे ।' एवं भणिऊण वासंते चेव पडि(ठि)ओ। तेण साहुणा भणियं-'नणु अलियं ।' इयरो पच्चाह-न । कथं ? । उच्यते-नणु वासबिंदवो एए । वासं पाणियं तस्स एए बिंदवो थियुगा। वृष्टिरिह आर्द्रत्वेचतुः (१) सा नेयं ॥ २ ॥ मरुय त्ति-कोइ साहू कारणविणि[ग्ग]ओ उवस्सयमागंतूण भणइ–'निग्गह, मरुया द्विजा भुजते, अम्हे वि तत्थ गच्छामो ।' ते साहू जाव संपट्ठिया-कहिं ते भुञ्जन्ति ? भिक्षाटने न दृष्टाः। तेण भन्नइ-नणु सव्वगेहेसु-आत्मीयगृहेष्विति ॥३॥ पञ्चक्खाणे त्ति-कोह साहू केणइ साहुणा उदग्गभोयणमण्डलिवेलाकाले भणिओ-'एहि भुजसु' । तेण भणियं-'भुजह तुठभे; पञ्चक्वायं ममेति ।' एवं भणिऊण मं[डलीए तक्खणा चेव अँजिओ। तेण साहुणा वुत्तो-'अज्जो तुम भणसि मम पच्चक्खायं?' । सो भणइ-कहं न, नणु पाणाइवायाइया अविरह सा मए पश्चक्खाया ।' अवधं प्रत्या तमिति भावः ॥४॥ गमणे त्ति-केणइ साहणा चेइयवंदणाइपओयणे वचमाणेण अन्नो साह भणिओ -बच्चसि?'। सो भणइ-'नाहं बच्चे, बच्च तुमं ।' सो साहू पयाओ । इयरो वि तस्स मग्गओ तक्खणादेव पयाओ। तभो साहुणा पुच्छिओ-'कहंन बच्चामि त्ति भणिऊण वचसि सो भणइ-'सिद्धन्तं न जाणसि। ६ जी० क.चु. Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ श्रीचन्द्रसूरिसंरचिता [९-8.९-11 mmmmmmmmm कहं । उच्यते-नणु गम्मद गम्ममाणं, न अगम्ममाणं । जम्मि समएऽहं तुमे पुट्ठो, तम्मि समए न चेवाहं गच्छो ॥५॥परियाए त्ति-कोइ साहू केणइ साहुणा वंदिउं कामेण पुच्छिओ-'कइ वरिसाणि ते परियाओ?।' सो एवं पुच्छिओ भणइ-'एयस्स साहुस्स मज्झ य दसवरिसाणि परियाओ ।' छलवादमङ्गीकृत्य ब्रवीति । सो पुच्छंतगसाहू भणइ-मम नववरिसाणि परियाओ।' एयस्स य वे पंचगा दसओ, इति मा पादपतनं कुरु ॥६॥समुद्देस त्ति-कोइ साहू कारणनिग्गओ रवि परिवेसपरिवियत दट्टण ते साहवा सत्थे अस्थमाणे तुरियं भणइ-'भोजनवेला वर्तते, उढेह ।' साहू गहियभायणा उठ्ठिया भिक्षाटनाय । पुच्छंति'कत्थ समुद्देसः ?' छलवादी प्राह-नणु एस गमणमग्गम्मि । आदिचे गहणं राहुणा क्रियमाणं दर्शयति ॥ ७॥ संखडे त्ति-कोइ साहू पढमालिय पाणगाइ विणिग्गओ पञ्चायाओ भणइ-इह अज्ज निवेशे पउराओ संखडीओ।' ते य साहवो भिक्षाटने गन्तुकामा इच्छंति ......[अत्र कियान् पाठः खण्डितः प्रतिभाति ॥ खड़ग त्ति- 'कोइ साहू उवस्सयसमीवे मयं सुणहीं दट्टण खुडगं भणइ-'क्षुल्लका तव माता मृता। ताहे सो खुडओ परुण्णो । तं रुयंतं दद्वण साहू भणइ-मा स्य, जियइति । एवं भणिए खुड्डो अन्ने य साहुं भणंति-"किं तुमं भणासि जहा मया ?' । सो मुसावायसाहू भणइ-'एसा साणी जा मया, सा तुज्झ माया भवति । 'कहं माया भवइ ?' अतीयकाले भविंसु । जओ भगवओ भणइ-एगमेगस्स णं जीवस्स सव्वजीवा माइत्ताए भज्जपुत्तधूयत्ताए भूयपुव्वा । तेण साणी [माया] भवति ॥९॥ परिहारिय त्ति-कोइ साहू उजाणाइसु ओसन्नाइ दडं आगंतूण भणइ-'मए दिहा परिहारिया' । सो छलेण कहइ; इयरे साहवो जाणंति-जहा परिहारतवावना अणेण दिट्ठा उज्जतविहारिणः । तदनु तद्दर्शनाय गमनादौ कृते यावद् दृष्टाः पार्श्वस्थाः। तदसौ छलबादी उत्तरयति--'नन्वेतेऽपि परिहारिका अभक्षादिपरिहरणात् । परिहरन्तीति परिहारिका इति कृत्वा' ॥१०॥ मुहीओ त्ति-एगो साहू विहा(या b)रभूमि गओ-'उजाणदेसे इत्थी घोडमुही दिट्ठ'त्ति साहूणं कहेइ । अश्वमुखी श्री इत्यर्थः । जनगमने घोटिकां कथयति ॥११॥ अवसगमणं ति-कोइ साहू केणइ साहुणा पुच्छिओ-'अजो गच्छसि भिक्खायरियाए ?' सो भणइ-'अवस्सं गच्छामि। तेण साहुणा पगिहियभायणोवगरणेण भन्नइ-'एहि बच्चामो'। सो पश्चाह-'अवस्सगंतव्वे न ताव गच्छामि' । 'किं न जासि ?' पुच्छिओ भणइ-'वेला न ताव वइ' परलोगगमणवेला मोक्खगमणवेला वा न ताव जायइ । तो न ताव गच्छामि । पर अवस्स परलोगं मोक्खं वा गमिष्यामीत्यर्थः ॥ १२॥ दिस त्ति-एगो साहू एगेण साहुणा पुच्छिओ-'अजो कयरं दिसं भिक्खायरियाए गमिस्ससि । सो भणइ-पुव्वं ।' सो पुच्छंतगसाहू अग्गाहेऊण गओ अवरदिसं । इयरो वि पुवदिसगमणवाई अवरं गओ। 'अजो! तुमे भणियं “अहं पुव्वं गमिस्सामि।" कीस अवरदिसमागओ?' एवं पुट्ठो भणइ-'अन्नस्स अवारगामस्स इमा पुव्वा किं न भवइ । भवइ चेव ॥ १३॥ एगले त्ति-कुलं गृहं भिक्खनिमित्तुहिएण साहुणा भन्नइ-'अज्जो! एहि वयामो भिक्खाए'। सो भणइ-'अहमेगकुलं गच्छं, एगकुले एव मया अटितव्यं । बवह तुम्भे गया साहवो। सो वि य पच्छा बहुकुलायं पविसइ । तेहिं साहूहिं भणिओ-'अज्ज ! तुमे भणियं-एगकुले पविस्सिसं।' बहुकुलपवेसे पुट्ठो भणइ-'कहं एगसरीरेण दोन्नि कुले पविस्सिस्सं। एग चेव कुलं पविसे ॥१४॥ एगव्वे त्ति-साहुणा एगेण एगो साहू भन्नइ-वयामो भिक्खाए।' सो भणइ-बच्चह तुम्भे । एकमेव मया द्रव्यं प्रहीतव्यं तओ ओयणदोव्वगाइ बहदव्वे गिण्हंतो तेसि (हिं) साहहिं दिटो भणिओय-'अजो! तुमे भणियं-एगं दव्वं घेच्छं, कहं अणेगाणि गिण्हसि ?' । अत्थो-धम्मत्थिकायाईणि दव्वाणि छ तेसिं धम्माइयाणं मज्झे गहणलक्खणो पुगलत्थिकाओ एगो चेव । अन्नेसिं गहणलक्खणं नत्थि । तम्हा अहं एगं दव्वं गिण्हामि बहुग्गहणेऽपि सति समस्तान्यपि द्रव्यमेकमेव ॥१५॥ ९-8. लहुसादिण्णं पुणेत्यादि-सूक्ष्मादत्तं उपलादिप्रहणविषयम् । ९-9. इत्तिरियं-अल्पकामं वृक्षादिच्छायावग्रहादौ विश्रमणाय । ९-10. लहुसमुच्छा द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदाप्चतुर्धा तां क्रमेणाह-लहुसमुच्छा इत्यादि । कागाइसा. णेत्ति शय्यातरगृहादौ काकादिपातं निवारयति, बलीवर्दकल्पष्ठकं लघुपुत्रादि रक्षति ॥ १॥ ९-11. खेत्ते मोवास सि-अवकाशः प्रतिक्रमणादिस्थानप्रवेशः। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९-12. ११-14] जीतकल्पचूर्णि-विषमपदव्याख्या ९-12. रागदोसाइ मासमध्येपि ॥ एत्थ त्ति-काकादौ । ठाणा-आपत्तिस्थान; घेप्पन्ति-प्रतिकमणाईमध्ये। ९-17. असंकिलिट्टकम्मं ति-कुष्ठादौ शरीरक्रियायाम् । छेदनं दुष्टाङ्गस्य । पीलनं रुधिरादिकर्मणः । भेदनं पक्वादिगडस्य । संघषण दद्रादेः। अभिघातसेचनं लगुडादिप्रहारस्योष्णजलादिना । कायखाराइ प्रसूत्यादिषु । असुसिरं पुतादिः, सुसिर उदरादिः । अणन्तरं अव्यवहितम् । परम्परं वस्त्रादिना व्यवहितमङ्गमः इत्यादिक असंक्लिष्टकर्म । कन्दर्पः-वाचिको नर्मादिभाषणम् ; कायिकश्च धावनादिकः । ९-22. सव्वपदाणि-दसणाईणि २४ । ९-25. ढे-उत्क्षिप्ते । पमादो अज्ञा[ना]दिकस्तेन । असंपउत्तस्स-असंयुक्तस्य पञ्चविधप्रमादरहितस्य । णोवजुत्तस्स-विस्मृतिरहितस्तस्य ।। ९-30. सन्नित्ति-संज्ञानं संज्ञा-देवगुरुधर्मपरिज्ञानं, तद्यस्यास्ति स संज्ञी श्रावकः । सन्नायगा-संज्ञातकाः स्वजनाः मातापित्रादिकाः । भयं-सप्तप्रकार प्रसिद्धं । सोगो-अनिष्टानां द्रव्याणां संयोगेन शोकः । इष्टानां वियोगेन। ९-32. बाउसत्तं-बकुशत्वं कश्मलचारित्रत्वम् । बउसं सबलं कब्बुरमेगटुं तमिह जस्स चारित्तं । अइयारपंकभावा सो बउसो होइ नायव्यो॥ १०-4. संभमो-संभ्रमः संक्षोभः । भयं-दस्युविषयं। दस्यवश्चौराः । मिलक्खु-म्लेच्छाः। बोहिय त्ति-बन्दिकाः । मालवा-उज्जयनीतस्कराः । आतुरः-पीडितः । दिगिंछा-बुभुक्षा तृष्णादिभिः । १०-6. [वोच्छिन्नमडंबाइ]-वोच्छिन्ना जस्स सव्वासु वि दिसासु नत्थि कोइ अन्नो गामो नगर वा तं; पार्श्वप्रामादिरहितं मडम्बं । तथा च-मडम्ब सव्वओ च्छिन्नमिति पठ्यते। १०-8. अणप्पवसओ-हस्त्यादिपरवशस्य । कारणेहि-संभ्रमादिमिः प्रदर्शितैः । पवणाय विराधयेदिति शेषः। १०-10. मृषावादः कूटसाक्षित्वेन । मैथुनं अतिक्रमादिना । रात्रिभोजनं दियागहियाइभेदतः । दीर्घमार्गे प्रजतां घृतमिश्रकेलकादिरूपोऽध्वानकल्पः । लेवाडइय त्ति-क्षीरानादि उत्सर्गतो न ग्राह्यम् तदप्यापद्येत । १०-15. दुञ्चिन्तियं-कुंकणार्यकवत् वनदवदानचिन्तनादि । दुर्भाषितं अभूभृतोद्भावनादि । दुश्चेष्टितं धावनादि। १०-25. उवहि त्ति-ओहेण जस्स गहणं, भोगो पुण कारणा स ओहोही । जस्स दुर्ग पि नियमा, कारणओ सो उवग्गहिओ॥ १०-29. अशङ्कितं निर्णीत दोषवदेवेदमिति, दोषवत्त्वेन। विहिण त्ति-अणावायमसंलोए इत्यादिकया। १०-31. [कालाइच्छियं-] प्रथमप्रहरगृहीतं तृतीयप्रहरान्तं यावद् ध्रियते अशनपानादि तत्कालातिकान्तम् । [अद्धाणाइच्छियं-] यद्गव्यूतद्वयात्परेणानीतं नीतं वा परिभुज्यते तदध्वानातिकान्तम् । १०-32. इंदियमाइहिं ति-इन्द्रियमाया-इन्द्रजालादिभिः । चक्षुरादि-इन्द्रियाणां विक्रिया आसाढभू. तिवत् । गिलाणेत्यादि-पलानादिव्यावृतत्वेन । सागारिका वा परिष्ठाप्यस्थाने सन्ति । स्थण्डिलस्य वाऽभावः। चोरादि भयं वा तत्रेयशनादि परिष्ठाप्यातिक्रमेऽपि विधिना परिष्ठापयन् शुद्धः । दुर्लभद्रव्यप्राप्तौ सहसात् लाभो वा जातः। ११-7. गमण-अन्नत्थ हत्थसयबाहिं। ११-9. पट्टवण त्ति-अनुयोगप्रारम्भादिविषया। पडिक्कमण न्ति अनुयोगस्य । परियट्टणा गुणनम् । ११-10. अणवजसुमिणं दुःस्वप्नः । दुनिमित्तं अपश्रुतिगोचरम् । दुःशकुनादेः प्रतिघातार्थम् । अष्टोच्छ्रासोत्सर्गकृतिरिति युक्तम् । तत्र वक्ष्यमाणगाथोक्तादिशब्दसूचितोऽयमर्थः । ११-12. उजाणी-परकुयउं । णईसंतारो-नद्युत्तरणम् । ११-14. संघट्ट-१ संघट्ट २ लेव ३ उपरिलेपैत्रिरूपो नदीसन्तारस्तत्र जवाधः संघटः। १ । नाभि यावत् लेपः । २ । परेण लेवुवरि-नाभेरुपरि । ३ । बाहु उडुपसुप्पाकादिश्चतुर्थः । ४। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ श्रीचन्द्रसूरिसंरचिता [११-16. १३-13 Ammmmmmmmmmmmmm ११-16. सयणासणाणं जायणत्थं गओ । ते य दाया घरे अस्थि । वाउलो वा । तओ इरियं पडिक्कमिऊण जं किंचि कालं सज्झायं करेइ। ११-20. हत्यमेत्ते वित्ति-रेल्लए जाते इति शेषः । ११-28. छिजा त्ति-विभज्यते । पडिक्कमणं च अनुयोगस्य ज्ञेयम् । १२-1. आदिशब्दात् कालप्रतिक्रमणे चेति च ग्राह्यम्, कालादिविपर्ययात् । ज्ञानाचारातिचारो भवति । व्यञ्जनादिभेदाद्वाकृतात् । १२-5. हीलयति-वा यो गुरुम् । १२-12. ओरसो त्ति-आन्तरः। १२-15. वञ्जयति-व्यज्यते । सन्न त्ति-संज्ञाभिधानम् । १२-16. अन्नाभिहाणेण वा भणइ त्ति-यथा 'धम्मो मंगल मित्यादिपरित्यागेन 'पुग्नं कल्लाणमुत्तमं, दयासंवरनिजरा' इत्यादि नामान्तरेण । अर्थभेदस्तैरेव व्यजनैर्यत्र विकल्प्यते, यथा आचारसूत्रे आवन्त्यध्ययनमध्ये 'आवंती के आवन्ती लोगंसि विप्परामसन्ती ति-अन्योऽर्थः कल्प्यते-आवन्ति होइ देसो तत्थ उ अरहकूवजा केया। सा पडिया हेतु ऊ तं लोगो विप्परामसइ ।' यत्र सूत्राओं द्वावपि विनश्यते स तदुभयातिचारः । यथा धम्मो मंगलमुक्कत्थो अहिंसा पव्वयमत्थए । देवावि तस्स नस्संति जस्स धम्मे सया मसी॥ अहागडेसु रंधंति कढेसु रहकारिओ। रणो भत्तंसि णो जत्थ गद्दभो जत्थ दीसह ॥ अत्र सूत्रं अर्थश्व द्वावपि विनश्येते। उभयविनाशे चरणनाशस्तदभावे मोक्षाभावस्तदभावाद्दीक्षानरर्थक्यम् । १२-19. अणागाढे सुए-दसवैकालिकादिके उद्देशकस्यातिचारेऽकालातिपाठे निर्वि० । आगाढे उत्तराध्ययनभगवत्यादिके श्रुते उद्देशकादिस्थानेषु पुरिमार्धादि क्षमणान्तम् । अर्थेऽप्येवम् । १२-22. ओहेण-आगाढाणागाढादिभेदतोऽविशेषे। १२-23. कमेण अहिजंतो त्ति-क्रमश्चायंति वरिसपरियागस्स उ आयारपकप्पनाममज्झयणं । चउवरिसस्स सम्मं सूयगडं नाम अंग ति ॥१॥ दसकप्पव्ववहारा संवत्सरपणगदिक्खियस्सेव । ठाणं समवाओ विय अंगेए अट्ठवासस्स ॥२॥ दसवासस्स वियाहा एकारस वासयस्स इमे उ । खुड्डियविमाणमाई अज्झयणा पंच नायव्वा ॥ ३ ॥ वारसवासस्स तहा अरुणुववायाइ पंच अज्झयणा । तेरसवासस्स तहा उठाणसुयाइया चउरो ॥४॥ एगूणवीसगस्स ओ दिट्ठीवाओ दुवालसममंगं । संपुनवीसवरिसो अणुवाई सवसुत्तस्स ॥ ५॥ जं केवलिणा भणियं केवलनाणेण तत्तओ नाउं । तस्सनहा विहाणे आणाभंगो महापावो ॥६॥ १२-24. [अपत्तो-तत्सूत्रमर्थ वा विवक्षितशास्त्रसत्कं क्रमेणाधीयानो न प्राप्नोति; पठनविषये व्रतादि पर्यायो वा यस्य न पूर्यते सोऽप्राप्तः । अन्यश्चायोग्यो यः सो अपत्तो त्ति-अपात्रं । स च तिन्तिणिकादिकः । तितिणिओ स्तोकोक्तेऽपि यत्किञ्चनभाषी । चलचित्तः-अस्थिरचित्तः । गणाद्गणान्तरं संक्रमणशीलो वाऽपात्रम् । अन्यश्चाव्यक्तः-अपात्रम् । अव्यक्तता च वयसाऽतिलघुः । वयश्च प्राणिनां कालकृता शारीरावस्था । श्रुतेन चात्यल्पश्रुतोऽव्यक्तः । एतेषां सर्वेषामप्राप्तादीनां वाचना-श्रुतपाठनम् । १२-26. जइ पत्तं प्राप्तं । सुरण श्रुतिक्रमेण । पत्तं वा पात्रं-योग्यम् । १२-30. निसेजं ति-आचार्ययोग्याम् । च शब्दात् वन्दनकायोत्सर्गों अनुयोगप्रारम्भे उत्सर्गत आयंबिलम् । १२-34. विगई भुओऊण त्ति-जोगसमत्तीए तां भुक्त्वा पश्चात्कायोत्सर्ग विधत्ते । एगटुं ति एकत्र विकृतिमाचाम्लप्रायोग्यं च गृह्णाति। १३-5. संकादयोऽष्टा । १३-11. भइमो-भजामः सेवयामः कुर्म इत्यर्थः । १३-13. मंडलि त्ति-तस्यां सर्वे संसृष्टभोज[जिनः । मोय त्ति-योगः । जल्लत्ति-सर्वे मलग्रस्ताः। पूजा राजादिभिः क्रियमाणा कुतीर्थिनाम् । अतिशयाद्वा मन्त्रादिकाः, मतानि वा तदागमान् श्रुत्वा । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३-16. १५-11] जीतकल्पचूर्णि-विषमपदव्याख्या ww १३-16. मिच्छत्ताइसु-मिथ्यादृष्टिचरकादीनाम् । उववूहा-उपबृंहा अप्रशस्ता । १३-19. एवं शङ्कादीन् प्ररूप्य प्रायश्चित्तं चिन्त्यम्-मिच्छत्ताईणं ति। स्थिरीकरणादीनामादिशब्दाद्गृहीतानाम् । १३-23. च शब्देन देशे क्षमणमिति योगः। १३-24. ओहओ त्ति-पुरुषानपेक्षया । अट्ठसु वित्ति मिथ्यात्वविषयेषु च सर्वतोऽष्टाखपि देशरूपासु भिक्षुवृषभउपाध्यायाचार्याणां चतुर्णा यथासंख्यं पुरिमादि यथोपदिष्टम् । तच्च देसे मिक्खुस्सेत्यादिना दर्शितम् । मिथ्यात्वविषयेषु च सर्वतोऽष्टाखपि मूलमिति वक्ष्यति । १३-26. प्रशस्तेषूपबृंहणादिषु यत्यादिविषयेषु इदमाह-एवं चिय इत्यादि । यतिविषयाणां उपहादीनामविधाने । अणन्तरुदिति-पुरिमाई खमणंतमित्येतत् । १३-31. तप्पसाएणं ति-पार्श्वस्थादिप्रसादतस्तदवशात् । पार्श्वस्थादीनां परिपालनादिकं वाच्छल्यं कुर्वतां भिक्षुप्रभृतीनां यथोपदिष्टं प्रायश्चित्तम् । १४-6. ननु पृथिव्यादीनां चतुर्णां भवतु संघटनं अप्कार्य प्रति कथं संघटनादि संभवति, द्रवरूपत्वेन स्पर्शेऽपि मरणं संभवादित्याह-आउकाएत्यादि । १४-7. इसिं मनाक् । घटादिस्थस्य चालने पादादिना संघट्टः। परितापो गाढतरचालना वहिना परितापनं । हननं दण्डादिना । पानेन चरणादिक्षालनादिना च उद्दवणं अप्कायस्य । १४-9. अणागाढा अनिर्भराम् । पञ्चेन्द्रियसंघट्टश्च-तदहजातमूषिकागिरोलिकादिसर्वविषयो दृश्यः । १४-13. पमाय०-प्रमादतोऽपद्रापणे । एककल्लाणगं । नि०। पु०। ए.। आ० । उ० । इत्येककल्याणकादिविषयः। १४-15. तत्र मृषावादो धर्मास्तिकायादिसर्वद्रव्यविषयः । अदत्तादानं प्रहणधारणीयवस्तुविषयम् । परिप्रहस्त सचित्ताचित्तमिश्रसर्वद्रव्यविषयः। क्षेत्रतोलोकालोक विषयौ मृषावादपरिग्रहौ । अदत्तादानं च प्रामाद्याश्रयम् । कालतश्च दिवारात्रौ वा । भावतो रागतो देसतो वा। त्रितयमपि जघन्यादिवस्तुविषयं मृषावादाद्यपि जघन्यायुच्यते। १४-20. लेवाडयपरिवासे पात्रतुम्बकपात्राबन्धखरण्टितपयुषितत्वे अभत्तहो। सुंठ्यादौ च। १४-22. पढमभंगो त्ति-दिवा गृहीतं दिवा भुक्तं परं रात्र्युषितं द्रष्टव्यमित्याद्यो भङ्गः ।। दिवा गृहीतं रजन्यां भुक्तमिति द्वितीयः ।२। रजन्यां गृहीतं दिवा भुक्तमिति तृतीयः।३। रजन्यां गृहीतं तस्यामेव भुक्तमिति चतुर्थः ।४। द्वित्रिचतुर्थेष्वटमम्।। १४-33. ओहुइसियं जमप्पणोढाए रद्धं तम्मज्झाओ भिक्खाओ कइ विकप्पइ, दानार्थे य एष्यति तस्मै दत्ते १। उद्देसकडे कम्मे एकेके चउविहो भेओ-जावंतियमुद्देसं, पासंडीणं भवे समुद्देसं, समणाणं आएस, निग्गंथाणं समाएसमिति चत्वारो मेदाः। तत्राये जाव इइ उक्कोइएयस्सइ पासंडीणं दायव्वं न गिहत्थाणं २ । निर्ग्रन्थशाक्यादिभेदतः पञ्चधा श्रमणास्तेषाम् ३ । निग्गन्थाण साहूणमेव नऽन्नेसिं ४ । तत्थ संखडिभुत्तुव्वरियं चउन्हमुद्दिसइ ज तमुद्दिढं । वंजणमीसाइकडं करबादिकं । तमग्गितवियाइ पुण कम्मं गुलं विग्यारेऊण मोयए पंधिज्जा-इति कौद्देसिकं । १५-7. यावदर्थिकमिश्रपासंडमिश्र साधुमिश्र ]भेदतस्त्रिधा मिश्रम् । यत्र खगृहयोग्यजलकणादीनां मध्ये अधिकतरजलकणादीन् मिश्रितान् कृत्वा यदशनादि प्रथमतोऽग्निज्वालनाद्रहणदानादिप्रस्ताव एव राद्धमारभते। यावदर्थिकाद्यर्थं तत्रिधा। १५-9. संघाडगस्स एगो भिक्खग्गाही । वीओ दिसुवओगं देइ । तइए गिहे निप्फेडिया । इत्तरद्ववियं । तओ परेण सर्वमेव चिरवियं । १५-10.सुहुमा-कप्पट्ठगस्स भत्तं न देइ, भणइ साहुस्स अट्ठाए उढ़िया तुज्झ वि दाहं ति । बायराकप्पट्ठिए विवाहं काउकामो रहमईसु साहुसमागमं जाणिऊण ओसक्कणं करेजा। १५-11. आहारसेज्जाइयं साहुणो भुजिस्संति, रधिउं अन्नो सव्वमेवाहारं बहिं नीणेह साहुअट्ठाए। एवं पागडकरणं । रयणप्पईवजोईवायायणकुडछेडाइएहिं उज्जोयकरणं साहुअट्ठाए [एयं पगा-] सकरणं । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीचन्द्रसूरिसंरचिता [१५-16. १५-29 १५-16. आहडं ति-सग्गामाहडे निप्पञ्चवायाए ।४। आहडं चिय आइन्नमणाइन्नं च, तिघरतरमाइन्न । १५-18. दईरकः जतुग्रंथ्यादिरूपः । पिहितं च छगणादिना ओलित्तं ।। १५-19. मालं सीककप्रासादोपरितलादिकमभिप्रेतम् । तस्मादाहृतं करग्राह्यं यदन्नादि दात्री ददाति तन्मालापहृतम् । नवरं त्रिधा एतज्जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदतः । जघन्योत्कृष्टयोरन्तरे मध्यमो गम्यत एवेति नोक्तम् । पाण्ड(इयु)त्पाटनमात्रस्तोकक्रियागृहीतत्वाजघन्यं लघु । मञ्चकाद्यधो दत्वा यद्ददाति शिक्ककादेस्तन्मध्यमं मालापहृतम् । यदा च उचत्तरशिक्ककादेर्लङ्घकादिग्रहणाय मूडकनिश्रेण्याधुदूखलं वा अधो दत्वा तस्मात् ददाति तदोत्कृष्टं भवति । अत्राप्यायामम् । १५-20. अच्छेजं ति-प्रभुहादिनायकः, अन्येषां दरिद्रकौटुम्बिकानां बलादातुमनीप्सितामपि यद्देयं ददाति तत्प्रभुआच्छेद्यम् । खामी प्रामादिनायकः, स यदा साधून दृष्ट्वा कलहेनेतरथा वा कौटुम्बिकेभ्योऽशनायुदाल्य ददाति तदा खाम्याच्छेद्यम् । स्तेनाश्चौरास्ते सार्थकेभ्यो बलादाच्छेद्य यत्पाथेयादि साधुभ्यो दद्युस्तत् तेनविषयाच्छेद्यम् । १५-21. अणिसटुंति-बहुभिः साधारणं बहुजनसाहिकं यदशनादि संखज्यादौ खाम्यमनुज्ञातं यदेको दद्यात्तत्साधारणानिसष्टम् । चोल्लको भोजनम् । यथा किल कश्चित्कौटुम्बिको भक्ताहारकहतेन गृहात् क्षेत्रे हालिकानां भोजनाय चोलकं प्रस्थापयति । तत्र कौटुम्बिकेन साधूनां दानाय मुत्कलितचोल्लकमध्यात् यदि हालिकः किञ्चिसाधवे ददाति तदा चोल्लकानिसृष्टम् । तथा जड्डस्य हस्तिनः सम्बन्धि पिण्डरूपं वस्तु राज्ञा गजेन वाननुज्ञातस्वादनिसृष्टं अड्डानिसृष्टम् । १५-22. यावदर्थिकाः समस्तार्थिनः । पाषण्डिकाश्वरकादयः । साधवश्व निर्ग्रन्थाः। अत्र गृहिणः खार्थमग्निज्वालनाद्याद्रहणदानान्ते आरंभे कृते सति पश्चात्स्वार्थकल्पितं तन्दुलमध्ये कर्पटिकार्थ तन्दुलादीनां माणकं संकल्पितं प्रक्षिप्य राधोति यदा, तदध्यवपूरकः । स च त्रिधा-खगृहयावदर्थिकमिश्रः, खगृहपाषण्डमिश्रः, खगृहसाधुमिश्र इति । इह आहाकम्म उद्देसियचरिमतियं, भत्तपाणपूइयं, पासंडसाहुमीसं, बायरपाहुडिया दुविहा, अज्झोयरचरिमदुगं एए छउग्गम दोसा अविसोही कोडी; विसोहिकोडीए अवयवेणाविच्छिकं सव्वमभोज विष्ठादि(ति?) दुषेणेव भकं । विसोहिकोडीए पुण संथरणे परिवेइ । अलंमे अन्नस्स असंथरंतो वा तम्मत्तमेव परिवेइ । जइवि य अवयवा तहा विसुद्धो । १५-24. धाई पंचहा-खीरधाई मजण-मंडण-कीलावण-अंकधाई बालपालिका स्त्री धात्रीत्वकरणमिति तत्त्वम् । एवं यथासंभवमन्यत्रापि। दूती परस्परसन्दिष्टार्थकथिका स्त्री-दूतीत्वकरणमित्यर्थः । तत्कथयति परग्रामे वा । खनिवासग्रामस्यैव सत्केऽन्यस्मिन् पाटकादौ, परनामे वा संदेशक नीस्वायं पिण्डं लभते स दूतीपिण्डः। १५-25. अतीताद्यर्थसूचकं निमित्तं जातिकुलगणकर्मशिल्पानां कथनादिना आजीवनम् । १५-26. वनीपकत्वं पिंडट्ठा समणा-तिहि-माहण-किविण-सुणगाइ-भत्ताणं अप्पाणं तन्मत्तं दसइ जो सो वणीवमो त्ति । उउ(2)वर्णयति पिण्डार्थमात्मानं दायकाभिमतेषु श्रमणादिषु संभकं दर्शयतीति भक्तवशाद्वनीपकः। यद्वा वनीं लब्धार्थरूपां पाति पालयतीति वनीपः, स एव वनीपकः । १५-27. चिकित्सा रोगप्रतीकारः। तत्र नाहं वेद्यो, अप्पणो वा अमुगो वाही अमुगदम्वेण फिटोत्ति, एसा सुहुमतिगिच्छा। बायरा वाय-सिंभ-सन्निवाय-समुत्थाणं रोगाणं ओसहमाइयं साहइ । सयमेव]से किरियं करे । वाहिवियार किरियं वा से साहेइ ॥-क्रोधादयः प्रतीताः । १५-28. वयण-संथवो-पुद्वि गुणथुइं काऊण पच्छा मग्गइ । पच्छासंथवो-नाम दिने पच्छा संथवं करेइ 'अमुगत्र २ यूयं दृष्टाः' इत्यादि च। १५-29. सम्बन्धि-संथवो-नात्रकयोजनम् । मायापियाइओ पुव्वसंबन्धि-संथवो; सासूससुराइओ पच्छासम्बन्धि-संथवो। विज्जा ससाणा । असाहणो मंतो। इत्थी-पुरिस-विसेसो वा । चुण्णो अंजणाइओ। पायपलेवाइओ जोगो । गर्भादानपरिसाडो मूलकम्मं । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५-31. १६-13] जीतकल्पचूर्णि-विषमपव्याख्या १५-31. शकृितं संभाविताधाकर्मादिदोषं भक्तादि । चतूरूपो भङ्गाश्चतुर्भङ्गः-ग्रहणे भोजने शङ्कितः । भक्तादेग्रहणकाले भोजनकाले च यदि पुनरमुकदोषवदिदमिति शङ्कावान् ।१। प्रहणे शङ्कितो न भोजने ।२। भोजने शङ्कितो न ग्रहणे ॥३॥ न ग्रहणे न भोजने शङ्कितः।४। इति । एतेषां संभवो यथा-गृहस्थेन प्रचुरा भिक्षां भिक्षाच. रेभ्यः खस्मै वा दीयमानं दृष्ट्वा चिन्तयति किं खगृहोपस्करतया साधुभिक्षाचरादिनिमित्तराद्धतया वा चेतसि शक्कितः। ततो लज्जा-संक्षोभादिना एनमर्थ गृहिणं प्रश्नयितुमशक्नुवन् शतितो गृह्णाति; शक्कितस्तथैव भुते ।। द्वितीयस्तथैव चेतसि शङ्कितः तथैव गृहस्थं प्रश्नयितुमशकुवन् गृहीत्वा खोपाश्रये समागतस्ततो भोजनसमये तं दोलायमानचेतसं दृष्ट्वा अपरसाधुस्तद्भिक्षानिःशङ्कीकृतग्राही तदभिप्रायं ज्ञात्वा वदति यथा-साधोस्तद्गृहे प्रकरणं लाहणं वा समा. यातमिति-तद्वचः श्रुत्वा शुद्धमेतदिति निश्चित्य विगतशङ्कापरिणामस्तद्भुते इति द्वितीयः । गुरोः पुरतः खभिक्षातुल्यभिक्षामालोचयतः साधून श्रुत्वा सञ्जातशङ्कश्चिन्तयति यथा-यत्स्वरूपा बह्वी मया भिक्षा लब्धा अमुकगृहे; अन्यैरपि तत्र तत्स्वरूपैव बही लब्धा । ततो मा कदाचिदियमशुद्धा भविष्यतीति । तथा चासौ शङ्कितचित्तस्तां भुत इति तृतीयः। चतुर्थस्तु संभवं प्रतीत्य सुगम एव । अत्र द्वितीयभङ्गोऽपि प्रहणापेक्षयैव सदोषः। परमार्थतस्तु शङ्कितग्रहणदोषस्य निवर्तितत्वाच्छुद्ध एव । तृतीयो बहुतरमदोषः । उभयत्रापि भोजनशङ्कितत्वेनाशुद्धत्वात् । अतः प्रथमतृतीयावाश्रित्य यत्प्रायश्चित्तं निरूपयति । यं कश्चन दोषमाधाकर्मादिकं शङ्कते, संभावयति अमुकदोषमिति ति । संम्रक्षितमारूषितम्। निक्षिप्तं न्यस्तम् । पिहितं स्थगितम् । संहृतमन्यत्र क्षिप्तम् । दायग त्ति दायकदोषदुष्टम् । उन्मिश्रं पुष्पादिमिलितम् । अपरिणतं अप्रासुकीभूतादि । लिप्तं दुग्धादिखरंटितम् । छर्दितं परिशाटितम् । एते दश शङ्कितादय एषणादोषाः। १५-33. अधुना म्रक्षितादीनाह-सच्चित्तेत्यादि । पृथिव्यवनस्पतिभिः सचित्तैर्मक्षितयोगात् । करमानं देयमपि सचित्तम् । अचित्तयोगादचित्तम् । तेन पृथिव्यादिभिः सचित्तैर्मक्षितं पृथ्विकायम्रक्षितमित्यादीनि तत्त्वम् । १५-34. हत्थेणं ति । मत्ते वि एवं चेव । निर्मिश्रकईमं अपरिणतं सचेतनम् । १६-2. ससिणिद्धे-तत्र स्निग्धमीषलक्ष्यमाणखरण्टनजलम् । हस्तादिउदका जलतीमितं तदेव । १६-6. गरहियमजायमक्खिए त्ति-मांसवशाशोणितसुरामूत्रोच्चारादिभिः शिष्टजनस्याभक्ष्यापेयैः साक्षान्म्रक्षितं सत् । एतैर्तीक्षिताभ्यां करमात्राभ्यां दीयमानं सत् यतीनामकल्प्यं उड्डाहादि दोषात् । संसक्तिमद्व्यैव्यादिभिर्लेपकृन्मध्वादिभिश्च हस्तमात्राभ्यां म्रक्षिताभ्यां देयं यदेतैर्दीयमानं म्रक्षितं तदकल्प्यमेकेन्द्रियादिवधदोषात् । मात्रादिलममक्षिकाकीटिकापतझादिसत्त्ववधदोषाचेति । गर्हितेऽगर्हिते च म्रक्षिते आयामम् ।। १६-7. निक्षिप्तश्चतुर्भङ्गः-सचित्तं पृथिव्यादि सचित्ते पृथिव्यादौ निक्षिप्तं न्यस्तम् १. सचित्तं अचित्ते २. अचित्तं सचित्ते ३. अचित्तं अचित्ते ४. निक्षिप्तम् । अत्र प्रथमद्वितीयभङ्गयोर्ग्रहणप्रायोग्यद्रव्याभावान प्रायश्चित्त. चिन्ता। चरमस्तु शुद्ध एव । अतस्तृतीयप्रायश्चित्तं निरूपयति-एत्थेत्यादिना-पृथ्वीकायो मृत्तिकालवणोषतूवरिका वर्णिकादिरूपः। अप्कायो जलावश्यायहिमकरकादि । तेजस्कायो मुर्मुराजारादि । वायुगुंजावातादिरूपो दृतिस्थश्च । प्रत्येकवनस्पतिकायो धान्यव्रीहिकाहरिताम्रादिफलरूपः । अनंतः साधारणः सूरणगर्जरादिकन्दरूपः । त्रसाः कीटिकामस्कोटकन्थ्वादिरूपाः। एते च सर्वेऽपि पृथिव्यादयः सचित्ता मिश्राश्चात्र प्रायाः। ततः पृथिव्यादिषु प्रसान्तेष निक्षिप्तं देयं वस्तु यदचेतनम्। अनन्तरमव्यवधानम् । परम्पर स्थगनिकादिना सव्यवधानम् । सान्तर पृथिव्युपरि स्थगनिकादौ कृत्वा देयं मुक्तम् । १६-12. अणन्तवणस्सह त्ति-उपयादिरूपो। वीयनिक्खित्त इति प्रत्येकबीजेषु अणंतकायबीजेषु च अनन्तरपरम्परनिक्खित्ते देये नि०। १६-13. पिहिए चउभंगोत्ति-यथा-सचित्तं सचित्तेण १. सचित्तं अचित्तेण २. अचित्तं [ सचित्तेण ३. अचित्तं] अचित्तेण ४. पिहियं । अत्राप्यनन्तरपिहितपरम्परपिहितता वाच्या । तथा चतुर्भङ्गे-अत्रापि गुरुलहुपदाभ्यां चतुर्भङ्गः स्यात् , यथा-गुरुकं गुरुकेण, लघुकं लघुकेन, लघुकं गुरुकेण, लघुकं लघुकेन पिहितम् । गुरुकं भारिकं महद्देयभाजनम् । गुरुणा भारिकेण प्रहेडकादिना पिहितम् ; गुरुकं लघुकेनाल्पभारेण छगनकादिना; लघुकं देयभाजनं गुरुकेण प्रहेडकादिना लघुकं लघुकेन छगनकादिना पिहितं । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीचन्द्रसूरिसरचिता [१६-13. १७-9 १६-13. सचित्तेण पुढवीत्यादिना तृतीयभङ्गस्य अचित्तं सचित्तेण पिहितमित्यस्य व्याख्या कृता । मण्डकादिकं सचित्तमृदावष्टब्धमनन्तरपिहितम् । तउआ मृत्तिका गर्भच्छज्जिका । अवष्टब्धं मण्डकादिपरम्परपिहितम् । एवमप्कायादिशेषैरपि भावना कार्या । अस्मद्विरचितपिण्डविशुद्धिवृत्तौ दर्शितत्वाच । १६-18. संहृतम्-येन मात्रकेण दात्री दास्यति साधोरशनादिकं-तत्र पृथिव्यादिकं तुषादिकं वा यत्स्यातदन्यत्र सचित्ते अचित्ते वा क्षिप्त्वा तेन रिक्तीकृतेन यदि साधोर्ददाति तत्संहृतमशनायुच्यते । अत्र भङ्गचतुष्टयंसचित्ते सचित्तं-सचित्ते पृथिव्यादौ, सचित्तं पृथिव्यादि संहृतम् १. अचित्तं तुषादि संहृतं २. अचित्ते सचित्तं ३. अचित्ते अचित्तं ४. संहृतं । अत्राप्यनन्तरपरम्परता वाच्या। परित्तवनस्पतिः पत्रशाकादिः । पृथिव्यादिषु त्रसान्तेषु सचित्तस्थानेषु संहरणे साध्वर्थ कृते मात्रकान्तेन गृहीतेऽशनादौ आ० । एकस्मादन्यत्र संहृत्य भूयोऽपि ततोऽपि अयोग्यं संहृत्य तेन ददतः परम्परसंहरणम् । १६-22. बीयसाहरिए तिलादिगोचरे । १६-23. दायग(यारो)त्ति-मत्तो मदिरापानोरथमदविकलः । उन्मत्तो महासङ्ग्रामादिजयाद्दामातो प्रहगृहीतश्च । १६-27. पमहमाणी पृथिव्यादीन् । सेसेसु त्ति भङ्गेषु । १६-29. ओयत्तन्तीए-द्रव्येण द्रव्यान्तरं गृह्णन्त्याः । १६-30. परं च उहिस्स त्ति-परकीय मिदमित्युक्त्वा ददाति । यद्वा यत्र दात्री परेण निर्भर्त्यते । १६---31. उम्मीसं ति-मिश्रणस्योभयाश्रितत्वात् , उत्प्राबल्येन मिश्रितं दाडिमगुलिकादिना, पुष्पादिना वा सह यन्मिलितं तदुन्मिश्रं भण्यते। ते द्वे अपि वस्तुनी यत्रोन्मिय ददाति साधवे तदशनादिउन्मिश्रम् । तत्र परित्तवनस्पतिपत्रपुष्पशाकादिना सचित्तेन उन्मिने आ० । १६-31. अपरिणतं अप्रासूकीभूतादि । तच्च द्रव्यभावभेदात् द्विधा । पुनर्भावापरिणतं दातृगृहीतृयोगात् द्विधावा । तत्र परिणतद्रव्ये सचेतने दायकेन साधोर्दीयमाने द्रव्यापरिणतम् दातृविषयभावापरिणतं तु द्वयोध्रीतो िखामिनोमध्यात् यत्राशने साधारणे एकेन दीयमाने द्वितीयस्य यत्र भावो अपरिणतो अभवनशीलस्तद्दा. तृभावापरिणतम् । १७-1. द्रव्यभावपदाभ्यां चतुर्भङ्गोऽत्र अनिसृष्टभावापरिणतयोश्चासमक्षकृतो विशेषः । गृहितृविषयभावापरिणतं तु यत्र द्वयोः साध्वोमिक्षार्थ गतयोरेकस्य मनसि तदशुद्ध परिणतम् , अन्यस्य तदेव शुद्ध मनसि परिणतम् । तदपि भावापरिणतम् । १७-2. [संसत्त]-संसक्तेन दध्यादिना करमात्रकखरण्टकेनाशनादिग्रहणे लिप्तदोषाः। १७-3. पृथिव्यादिषु दीयमाने छर्दिते परिशाटितम् । १७-5. संयोजणा-वाहिं भायणे त्ति । रसहेतुकद्रव्यं भिक्षाटने शाल्यादिकूरै क्षीरं वा प्राप्तवान् । तानि बहिरेव पृथक् भाजनेषु गृह्णातीति । वसतेबहिर्दव्यसंयोजनायां चेतसा क्रियमाणायां बाह्या द्रव्यसंयोजना। वसतावागतेन रसहेतोव्यसंयोजना अभ्यन्तरा। संयोजना त्रिधा-पात्रकविषया, कवलविषया, मुखविषया च । यद्येन सह युज्यते तत्तेन सह भक्षयतीति भाव इत्यन्तर्वदनाश्रया। 'बत्तीसकवलमाणं रागदोसाहिं धूमइंगालं । वेयावच्चाइया कारणमवहिमि अइयारो॥' कारणं वेदनावैयावृत्यादिधो(2)ऽनिर्वहति । भोजनाभावे आ० । १७-9. सूत्रगाथा ३५-३६. एतयाख्या-कौदेशिकचरिमत्रिके । पाषण्डि श्रमणनिर्ग्रन्थाख्ये पाषण्डिकर्मादिके कम्मे । आधाकम्मं । पाषण्डमिश्रे खसाधुमिश्रे च । बादरप्राभृतिका विवाहस्सकण-ओसकणरूवा । सप्रत्यपायपरप्रामाभ्याहृतम् । यत्रात्मविराधना । लोभपिण्डः। अइरं अणंत त्ति-तिरोऽन्तर्धाने, न तिरमतिरं अन्तर्धानं विना निरन्तरमित्यर्थः । अयं भावार्थः-अणन्तकाये पूय लियाई निक्खित्तं साहरियं मीसियं वा । अणंतकायेण वा पिहियं । आदिग्रहणादनन्तापरिणितेऽनन्तछर्दिते च क्षमणम् । अनन्तकायाव्यवहितनिक्षिप्तपिहितसंहृतोन्मिश्राऽपरिणतछर्दितेषु क्षमणम् । रसहेतुसंयोजना-रागान्वितभोजने च, वर्तमानभविष्यनिमित्ते च क्षमणम् ॥ जावंतिकाख्यकमौद्देशिकायमेदः। मिश्रप्रथमभेदः।धात्रीत्वम् । दूतीत्वम् । अतीतनिमित्तम्।आजीवनापिण्डः ।वनीपकत्वम् । बादरचिकिच्छा Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७-13. १७-24] जीतकल्पचूर्णि-विषमपदव्याख्या करणम् । क्रोधमानपिण्डौ। सम्बन्धिसंस्तवकरणम् । विद्यामन्त्रयोगचूर्णपिण्डाः। प्रकाशकरणं द्विविधम् । द्रव्यक्रीतम् । आत्मभावक्रीतम् । लौकिकप्रामित्यपरावर्तने । निःप्रत्यपायपरग्रामाभ्याहृतम् । पिहितोद्भिन्नकपाटोद्भिन्ने । उत्कृष्टमालापहृतम् । सर्वमाच्छेद्यम् । सर्वमनिसृष्टम् । पुरः कर्म । पश्चात्कर्म । गर्हिते द्रव्यम्रक्षितम् । प्रत्येकाव्यवहितनिक्षिप्तपिहितसंहतोन्मिश्राऽपरिणतछर्दितानि । प्रमाणोल्लङ्घनम् । सधूममकारणभोजने चेति । अत्रेदं (अथे.b) सूत्रपदम्कारणविवजिए त्ति-कारणविवजओ नाम अकारणे भुङ्क्ते, कारणे न समुद्दिसइ । एतेषु आचाम्लं दीयते। १७-13. अज्झोयर [गाहा ३९] अध्यवपूरकान्यभेदद्वयम् । कडे त्ति कृतौदेशिकभेदचतुष्टयम् । भक्तपानपूतिकम् । मायापिण्डः। अनन्तकायव्यवहितनिक्षिप्तपिहितादीनि। मिश्रानन्तकायाव्यवहितनिक्षिप्तानि चैत्येषु एकभक्तम् । तथा ओघौद्देशिकमुद्दिष्टमेदचतुष्टयम् । उपकरणपूतिकम् । चिरस्थापितं प्रकटकरणम् । लोकोत्तरपरावर्तिकम् । लोकोत्तरअप्रामित्यं च । मंखमाइ परभावक्रीतम् । निःप्रत्यपायसप्रत्यपायखग्रामाभ्याहृतम् । दद्देरीद्भिन्नम् । जघन्यमालापहृतम् । उझरे पढमे त्ति-यावदर्थिकाध्वपूरकः सूक्ष्मचिगिच्छागुणसंस्तवकरणम् । तिगमक्खियत्ति-मिश्रकर्दमेन लवणसेटिकादिना च पृथिवीम्रक्षितम् । आउ उदछ । उकुटरोद्दे परित्तोएयं तिगमक्खियं । दायगो वहए त्ति-किंचिद्दायकदुष्टम् । यत उक्तम् बाले मूढे मत्ते उम्मत्ते वेविए य जरिए य । एए विसेसवज्जा एएसिं दायगो वहयं ॥ १७-15. पत्तेय० [गाहा ४२] पत्तेयवणस्सइकाए सचित्तपरंपरढविए । तेण चेव पिहीए साहरिए मीसे परंपरनिक्खित्ते अणंतरनिक्खित्ते-प्रत्येकपरम्परनिक्षिप्तादीनि मिश्रानन्तरनिक्षिप्तसंहृतादीनि च । सर्वेषु पुरिमार्धम् । संकाए त्ति-जं दोस आसंकइ तस्सेव दोसस्स जं पायच्छित्तं तं आवज्जइ। १७-16. इत्तरठविए० [गाहा ४३] करमात्रस्थं इत्वरस्थापितम्। सूक्ष्मप्राभृतिका सस्निग्धसरजस्कम्रक्षितम्। पृथ्वीअपवनस्पतिम्रक्षितम् । पृथिव्यादिषु मिश्रेषु परम्परनिक्षिप्ते नि० । वनस्पति मिथे परम्परनिक्षिप्ते निः। प्रत्येकबीजेष्वनन्तकायबीजेषु वानन्तरपरम्परनिक्षिप्ते । एवमेतेषु स्थापितेऽपि देये नि० । अविगई-निर्विकृतिकम् । __ठवियगाईसु त्ति-आदिग्रहणान्मिश्रपरम्परपिहिते नि० । एवं संहृतेऽपि । परित्तवणस्सइओमीसे नि। वीउम्मीसे निः। १७-19. अतिप्पमाणे व त्ति-तेष्वेवातृप्यमानस्तदेवातिमात्रं पुष्टतया कुर्वन् । १७-20. संघरिसेण-होड्डया । १७-21. जमलिओ-जमलतया स्थितः । १७-22. वट्टा गोलया । समास त्ति समस्या । १७-24. अरहट्टादिसक आजीवे रुतेऽपि क्रियमाणे खमणं । [गाथा ४६] अन्यच्चोच्यते-जिणकप्पिया थेरकप्पिया य दुविहा साहुणो। ओहीय-ओवग्गहीय-भैया दुहा उवही । तत्थओहेण जस्स गहणं भोगो पुण कारणा स ओहोही (ओघोपधिः)। जस्स य दुगंपि नियमा कारणओ सो उवग्गहिओ॥ -जिणकप्पिया उपध्यपेक्षया । अष्टविधोपधयःबिय त्ति चउक्क पणगं नव दस एकारसेव बारसगं। एए अह विअप्पा उवहिं मि उ होति जिणकप्पे ॥ रयहरणं मुहपोत्ती दुविहो कप्पेकजुत्त तिविहो उ । रयहरणं मुहपोत्ती दुकप्प एसो चउद्धा ओ॥ तिन्नेव य पच्छागा रयहरणं चेव होइ मुहपोत्ती । पाणिपडिग्गहियाणं एसो उवहीओ पंचविहो ॥ पत्तगधारीणं पुण तवाइभेया हवंति नायव्वा । पुव्वुत्तोवहिजोगा जिणाण जा वारसुक्कोसो ॥ पत्तं पत्ताबंधो पायढवणं च पायकेसरिया। पडलाइ रयत्ताणं च गोच्छओ पायनिज्जोगो॥ तिन्नेव य पच्छागा रयहरणं चेव होइ मुहपत्ती । एसो उ दुवालसविहो उवही जिणकप्पियाणं तु ॥ एए चेव दुवालस मत्तय अइरेगचोलपट्टो य । एसो उ चउद्दसविहो उवही पुण थेरकप्पंमि ॥ उकोसो अट्ठविहो मज्झिमओ होइ तेरसविहो य । जहन्नो चउन्विहो चिय अन्नाणं एस तिविहुवही॥ कप्पत्तिय पडिग्गहगो आभितर बाहिरा नियंसणिया । संघाडी खंधकरणी उक्कोसो एस अट्ठविहो । ७ जी० क. चु. Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीचन्द्रसूरिसंरचिता [१८-9. १९-1 मध्यमस्त्रयोदशविधःपत्ताबंधो पडला रयहरणं मत्तकमढ रयताणं । उग्गहपट्टोरुचलणिया ओकच्छि कंचु वेकच्छी ॥ गोच्छगपत्तट्टवणं मुहणंतगकेसरि जहन्नो । जघन्योपग्रहिकः स्थविराणां एसो। तत्थ पीढगं ति काष्ठच्छगणमयं पीठं निसेज़ पाउंछणं । दंडगा-पमजणी दंडापुंछणी। घट्टगा पात्रघर्षणोपलाः ।वर्षावृष्टिसु त्राणाय रक्षणाय । बाल त्ति कम्बलः। सूत्रमयम् । सूई-तालपत्रसूच्यादिखुम्पकः। कुडसीसगं पलासपत्रमयं खुम्पकम् । पत्रकं वंशमयम् । सेसतिगं बालसौत्रिकादन्यत् । वासत्ताणे त्तिवर्षाकालोपयोगिसंस्तारो अव्यसिरो काफलकादि । झसिरस्तुणादिमयः । डंडेत्यादि-तत्थ लट्ठी आयपमाणा, विलट्ठी चउरेगुलेण परिहीणा । दण्डो बाहुपमाणो, विदण्डओ कक्खमेत्तो उ ॥ सिरसो उवरि चउरकुलदीहा नालिया। अवलेहणी वटादिकाष्ठमयी पादलेहणी-'वडउंबरे पिलक्खू तस्स अलाभंमि चिंचिणीया।' चर्मत्रिकम् । अत्थुर त्ति भूमावास्तीर्यते अन्यादिभये प्रलंबादिविकरणाय च । पाउरत्ति षदापदि]कादिभये यत् प्रावियते । तलिगा उपानहः । यद्वा कृत्तिः तलिगा बनाः ( वध्राः b) यद्वा विहारे उपकरणस्य शरीरेण सह बन्धनार्थः पट्टः । पल्हत्थी योगपट्टः । मध्यम औपग्रहिकः । वारगो त्ति-ससागारिके उदगनिमित्तं, नित्यं जनमध्य एव तासां वासात् । उत्कृष्टौपग्रहिकस्तूच्यते अक्खा० गाहा[१८-5.]-संथारको द्विविधः-एकाङ्गस्तिनिसकाष्ठपट्टरूपः, तदितरः कम्बिकादिमयः। उत्सर्गपदापेक्षया द्वितीयपदमपवादसूत्रोत्कृष्टौपग्रहिकः कथ्यते। पुस्तकपञ्चकं-'गंडी, कच्छवी, मुट्ठी, संपुडफलए तहा छिवाडीय ति'-एतत्वयमग्रे कथयिष्यते । फलगं ति पट्टिका, समवसरणफलकं वा । कमढगं निजोदरमानं तत् प्रतिसंयतिनीनाम्, अन्यथा एकभाजनभोजने गुरुकवलोत्पाटने एकया अन्यस्या अप्रीतिसंभवः स्यात् । १८-9. ओग्गहणंतर्ग-तौ सदृशम् । पट्टस्तद्वन्धनम् । १८-11. साहूणं ओहिओ त्ति-मुहपोत्तीयपाय केसरियाइओ चउरो ते चेव त्ति । पडिग्गहो प्रच्छादनत्रयम् । अन्ने यत्ति-अभितर नियंसणी १, वाहिनि० २, संघाडी ३, खंधकरणी ४; पत्ताबंधो, पडला, रयत्ताणं, रयहरणं च ४, जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदतः प्रागुक्तत्रिविधोपधिर्मध्याजघन्यविच्युतलब्धत्वे नि०। मध्यमस्य विच्युतलब्धत्वे पु० । उत्कृष्टस्य विच्युतलब्धत्वे ए० । जघन्याप्रत्युपेक्षितत्वे नि० । एवं मध्यमाप्रत्यु० पु० । उत्कृष्टाप्रत्यु. ए.। न पडिलेहिओ सि-निवेदयितुं गुरुभ्यो विस्मृतत्वे जघन्यस्य नि। मज्झिमे पु०। उत्कृष्टस्य एक प्रकारत्रयेण सर्वस्योपधेः संपनत्वे आ० । १८-21. हारिय० [गाहा ४७]-हारितत्वे जघन्यस्य ए० । मध्यमस्य हारितत्वे आ० । उत्कृष्टस्य हारितत्वे खमणम् । जघन्यधौतत्वे ए. मध्यधौतत्वे आ० । उत्कृष्टस्य धौतत्वे उ०। उपधेर्जघन्यादिभेदस्योगमं कत न निवेदयते तत्रापि ए० । आ० । च० । आचार्यैरदत्तं परिभते । त्रिविधमपधिं आचार्यानज्ञां विनाप्य ददाति । ए० । आ० । च० । सब त्ति-जघन्यादिभेदतस्त्रिविधस्य हारणे......त्र द्वेऽपि काले वनप्रक्षालनादौ षष्ठं स्यात् ।। १८-30. मुहणंतय० [गाहा ४८] एवं तावेत्यादि । तिविहोवहिणो विभु(च)येत्यादि [गाहा ४६] रजोहरणमुखवत्रिकां विहाय अन्योपधौ द्रष्टव्यम्। अम्रप्रति अम्रया उक्तं (2)। तत्र मुहपोत्तियाए पडियाए लद्धाए य निव्वियं । एवं रयहरणे वि । यदि पुनर्द्वि तयमपि पतितमथ च न लब्धं तत्राह-अह पुणेत्यादि । नवरं नासियं परचक्रादिसम्पातेन । हारियं आलस्यादिना प्रमादेन । १८-31. काल० [गाहा ४९] पारिट्ठावणियं अविहीए त्ति-33. स्थन्दिलाद्यशुद्धया । १८-34. विकालवेलायां पानकाहारस्याप्रत्याख्यानत्वे भोजनोमुत्सर्गतश्चतुर्विधाहारस्यापि प्रत्याख्यानत्वं युक्तम् । तदकरणे-अत एव साधवस्त्रिविधाहारं खाध्यायकरणसमये तृतीयपौरुष्याः समये प्रत्याख्यान्ति । विकालवेलायां च पानकाहारमिति । १९-1. एयं चिय० [गाहा ५१ ] द्वादशविधतपो यथा___ अनशनमूनौदरिता, वृत्तेः संक्षेपणं रसत्यागः । कायक्लेशः संलीनतेति बायं तपः प्रोक्तम् ॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९-10. २०-7] जीतकल्पचूर्णि-विषमपदव्याख्या प्रायश्चित्तध्याने वैयावृत्त्यविनयावथोत्सर्गः। खाध्याय इति तपः षट्प्रकारमाभ्यन्तरं भवति ॥ मासाई सत्तं ता पढमा बिइतइयसत्तराइदिणा। अह राइ एगराई, भिक्खू पडिमाण बारसगं ।। इह प्रतिमादिविषयेऽश्रद्धाने विपरीतप्ररूपणायां वा प्रायश्चित्तं ज्ञेयम् । एतेन तपोतिचारप्रायश्चित्तसूचा द्रव्याद्यभिग्रहेषु च वीर्यातिचारप्रायश्चित्तसूचनं ज्ञेयम् । पाक्षिके पुरुषादिविभागतो ज्ञातव्यम् । पुरुषाः क्षुल्लक स्थविर भिक्षु उपाध्याय आचार्यभेदतः पञ्चधास्तान् प्रति चूर्णिकृता दर्शितमेव । १९-10. फिडिए० [गाहा ५२] निद्राप्रमादवशतो गुरुभिः सह प्रतिक्रमणे फिडि ओत्ति न मिलितः। सयं वा उस्सारेइ गुरुणा अपारिते कायोत्सर्गे खयमात्मैव पारयति । अपूर्णे वा चिन्तनीयतयान्तराले पारयति । १९-15. अकए० [गाहा ५३] एवं चंदणाइएसुपि त्ति-एकद्वित्रिसर्वा अदानतो वन्दनेषु यथाक्रम नि. । पु० । ए० । सर्वाकरणे आयामं । राओ वोसिरइ त्ति निसिसंज्ञोत्सर्ग कुरुते । १९-17. कोहे. [गाहा ५४ ] सगि त्ति-सकृत् , एकदा । तन्नगाइ त्ति तर्नको वत्सकः, आदि. शब्दात् मयूरादिग्रहः। १९-22. अज्झुसिर० [गाहा ५५] दुःप्रत्युपेक्षितं चक्षुषा सम्यगनवलोकनम् । अप्रत्युपेक्षितं सर्वथा चक्षुषाऽनिरीक्षितम् । कोयवि-रूतपूरितः पटः पुरओट्ठीति यदुच्यते । पावारगो बृहत्कम्बलः परियच्छिा । पूरी-पल्हवी हस्त्यास्तरणम् । दढगालिधौतपोतिः । दुसर सूत्री पटी, दोयडी यावत् । विराली नवओ जीणोत्ति भन्नइ । गंडोवहाणी गल्लमसूरिका । पुस्तकपंचके गंडी पुस्तकखरूपम् वाहालपुहत्तेहिं गंडीपोत्थो उ तुल्लगो दीहो। १। कच्छवि अंते तणुओ, मज्झे पिहुलो मुणेयव्यो । २ । चउरंगुलदीहो वा, वट्टागी मुट्ठिपुत्थगो अहवा । चउरंगुलदीहो चिय, चउरंसो होइ विडेओ । ३ । तणुपत्तूसियरूवो होइ छिवाडी य पोत्थगा नाम । दीहो बाहुस्सो (ल्लो) वा जो पिहुलो होइ अप्पबाहुल्लो । तं मुणियसमयसारा छिवाडि पोत्थी भणंतीह । ४ । संपुडगो दुगमाई फलगा। ५। अपरमपि-चर्मपञ्चकं यथा-तलिगा खल्लग वठभे (वद्धे) कोसग कत्ती य वीयंतु । तलिगा-उपानत्, वन्भः-वध्रः, कोसगो-लेहोधारं चर्म, कृत्तिः प्रलम्बकरणाय । १९-32. ठवण [गाहा ५६] सन्नी-अविरतः श्राद्धः । वीर्याचारातिचारो निजवीर्यगृहनम् । १९-35. सुयववहाराइसु अन्नह त्ति-मायानिष्पन्नं तदेव दीयते इति विशेषः। आसणद्वयं देयमिति भावः । अन्नमायाओ त्ति-"लूहवित्ती महाभोगो, एस साहू जिइंदिओ। रसचागं करेइ त्ति, अंततेहिं वाढए॥" इत्यात्मनि व्यापयति ।। २०-3. दप्पेण [गाहा ५७ ] वल्गन-उल्ललनम् । खडयप्पयाणं धावणम् । खड्डावरंडाईण फडणम् । मल्लवद्वाहास्फोटनं च दर्पः । तं कुर्वतो कदाचित्पञ्चेन्द्रियस्य [व्य]परोपणं-विघातः कृतः स्यात् । २०-4. अङ्गादानं-मेहनं तस्य परिमर्दनेन शुक्रपुद्गलनिर्घातनं-निष्काशनं इत्येतत्संक्लिष्टकर्मोच्यते । आदिप्रहणाल्लिङ्गस्य स्नेहादि[ना] म्रक्षणादि करोति । दीर्घाध्वनि यत्सेवनम् । आधाकर्म, अध्वानकल्पादिकं वा शुष्ककदलीफलादिधरणतः। दीर्घग्लानेन वा सता यदाधाकर्मरसादिकारणतः। सन्निधिसेवनं वाचरितम् । तत्रैतेषु पञ्चकल्याणकामिति वक्ष्यमाणगाथान्तोकं ज्ञेयं योज्यम् । २०-7. पुरिमत्ता०-भिक्षापात्रं तत्काले न प्रतिलेखयति । चरिमभागोनायां पौरुष्यां प्रथमायां पादौनप्रहरे इत्यर्थः । यद्वा चरिमपौरुष्यामुपोषितः कश्चित् । ततोऽसौ तस्यां पात्रं न पडिलेहेइ। तत्र कल्याणकं प्रायश्चित्तं ज्ञेयम् । चातुर्मासे सांवत्सरिके च शुद्धौ पञ्चकल्याणकं ज्ञेयम् । यस्मात्सूक्ष्मातिचारान् कृतान् न जानाति न च स्मरति । कथमित्साह-जहा पाउसे इत्यादि । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CMWwwd ५२ श्रीचन्द्रसूरिसंरचिता [२०-12. २३-1 २०-12. छेयाइ० [गाहा ५९] किं वा छिजा त्ति-भो भो जना निरीक्षत निरीक्षत । छिद्यते न छिद्यते चेति भवति अश्रद्धानपरः। मिउणो त्ति-मृदोर्निरभिमानस्य । अभिमानाभावं दर्शयति-जो इत्यादिना । छेदाऽश्रद्धानपरस्य मृदोः, पर्यायगर्वितस्य च इत्येतेषाम् ।। २०-18. दुसुण्ठाः-उल्लण्ठाः खिगाः। इह शिष्या अनेक विधा भवन्ति-परिणामगा, अपरिणामगा, अइपरिणामगा। तत्थ उस्सग्गे उस्सग्गं, अववाए अववायं, जहा भणियं सहहंता आयरंता य परिणामगा भण्णन्ति । अपरिणामगा पुण जे उस्सग्गमेव सद्दहति आयरंति य; अववायं पुण न सद्दहंति नायरंति य । अइपरिणामगा जे अववायमेवायरति, तम्मि चेव सज्जति न उस्सग्गे । अतो अपरिणामकानां उत्सर्गदृष्टीनां मा निन्द्यो भविष्यति। चशब्दसूचितकुलगणसलाधिपानामपि छेद्यापन्नानां जीतेन तप एव दीयते न छेदादयः। २०-19. जं जं० [गाहा ६०] अत्थपय त्ति-अर्थः सूत्रव्याख्यानं भाष्यचूर्णिनियुक्त्यादिकम् । आज्ञाभङ्गादिदोषतः प्रायश्चित्तापत्तिः सविस्तरा तपस उक्ता। २१-5. दवं खित्तं० [गाहा ६४] आहाराई दव्वं खेत्तं लक्खाइ काल गिम्हाई । हट्ठाई भाव त्ती पुरिसं गीयाइ जाणित्ता ॥ आउट्ठि-पमाय-दप्प-कप्परूवा चउन्विहा पडिसेवणा नायव्वा । साहारणेषु द्रव्यादिषु साधारणं भणिय समं देजा। २१-13. लुक्खं० [गाहा ६६] वायं ति-वातलम् । अनूपक्षेत्रं सजलक्षेत्रम् । एवं कालेवि तिविहे त्ति-वर्षाहेमन्तग्रीष्मरूपः कालः सामान्येन स्निग्धरूक्षश्च भवति । तत्र स्निग्धः-शीतः, रूक्षः-उष्णः । अयं स्निग्धोऽप्युत्कृष्टमध्यमजघन्यभेदात्रिधा; रूक्षोऽपि च विधा । तत्र उत्कृष्टस्निग्धोऽतिशीतः, मध्यमस्निग्धो नातिशीतः, जघन्यशीतः स्तोकशीतः । जघन्यरूक्षः किंचिदुष्णः, [ मध्यमरूक्षो नात्युष्णः, ] उत्कृष्टरूक्षोऽत्युष्णः । एवं च गिम्हासु चउत्थं देजा छष्टुं च हिमागमे । वासासु अट्ठमं देज्जा तवो एस जहन्नओ॥ गिम्हासु छटुं देज्जा अट्ठमं च हिमागमे । वासासु दसमं देजा एस मज्झिमओ तवो॥ गिम्हासु अट्ठमं देना दसमं च हिमागमे । वासासु दुवालसमं एस उक्कोसओ तवो॥ एस नवविहो ववहारो। २१-21. सोय इमो त्ति सुयववहारो। आपत्तिः प्रायश्चित्तयोग्यता विषया । तपसा द्वादशादिना, कालेण वर्षादिना । अहागुरु-गुरुतम इत्यर्थः। अहालहू-लघुतमः। २१-28. अहाणुपुधीए-इत्यस्य व्याख्येयम्-सुत्ताणुसारेणेति । २१-29. चउमासगहणेण लहु चउमासो वि दट्ठव्वो। 30 छम्मासो-छम्मासग्रहणात् लघुषण्मासोऽपि प्रतिपत्तिः आपत्तिः । 31 तीसा य त्ति-स्थूलतया उक्तम् , अन्यथा सार्धसप्तविंशतिर्वक्तुमुचिता। 33 प्रागुद्दिष्टानि गुरुकादीनि व्याचष्टे गुरुगं चेत्यादिना। २२-2. एतदशक्तः मिथ्यादुष्कृतेन शुद्ध्यति । अत एवोक्तम्-सुद्धोव त्ति । २२-4. सामान्य एव श्रुतव्यवहार उक्तो विस्त रेणाधुना प्राह-तिगनवेत्यादिना। २२–9. गुरुपक्खो उक्कोसोत्ति-यथा गुरुपदादिवाच्यः गुरु[:] गुरुतरो गुरुतमः। एव(स)लहुगे विउत्कृष्टादिभेदत्रयम्-उक्कोस-उकोसे, उक्कोस-मज्झिमो, उक्कोस-जहन्नोति उत्कृष्टे भेदत्रयम् । मध्यमेऽपि भेदत्रयम्-उक्कोसो, मज्झिम जहण्णो त्ति । जहन्नुकोसे, जहन्न मज्झ, जहन्न जहन्न इति जघन्ये भेदत्रयम् । २२-25. एमेवुक्कोसाइ त्ति-लघुतरमध्यमपञ्चविंशतौ नवविधआपत्तिदानपञ्चमगृहनिवेशितायां अट्ठमछट-चउत्थ-उक्कोसा देय तिह भिन्नं । मध्यमे उत्कृष्टम्, मध्यममध्यमम्, मध्यमजघन्य मिति योज्यम् । तृतीय नवकलहुस सत्कसप्तमगृहनिवेशितपञ्चदशा गोचरपती अहम छट्ठ-चउत्थ-योज्यम् । लहुसतरमध्यमदशके अष्टमगृहनिवेशिते । २। आ० । यथा लघुसजघन्यपञ्चकसत्के नवगृहे । उ. १; आ. १, ए० । खमणायामेकासणे ति 33 गाथोक्तं योज्यम् । सप्तविंशतिभेदेषु वर्षासु दानमुक्तम् । २३-1. अधुना शीतकालाश्रितं दानमाह-सिसिर इत्यादिना । दसमं उववासचतुष्टयम् । आदौ धृत्वा । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३-2. २४-14] जीतकल्पचूर्णि-विषमपदव्याख्या २३-2. अड्डोकंतीय तह चेवत्ति-तत्रार्धस्यासमप्रविभागरूपस्य एकदेशस्य वा एकादिपदात्मकस्य-अपक्रमणमवस्थानम् । शेषस्य बुद्ध्यादिपदसातरूपस्यैकदेशस्योर्ध्व गमनं यस्यां रचनायां सा समयपरिभाषयार्धापकान्तिरुच्यते । यथा सिसिरे जघन्यतः षष्ठम् , मध्यमतोऽष्टमम् , उत्कृष्टतो दशमम् । २।३। ४ । एषां मध्यादेकदेशः षष्ठलक्षणोऽपक्रामति अवतिष्ठते । अष्टम-दशमे ऊर्ध्व वर्षासु गच्छतः । तृतीयं तु अग्रेतनाद्वादशं मील्यते । ततश्च जघन्यतोऽष्टमम् , मध्यमस्तु दशमम् , उत्कृष्टस्तु द्वादशं तपो वर्षासु कुर्वन्ति । २३-3. अट्टममाइ गिम्हे इत्यादि-अष्टमं उपवासत्रयमादौ धृत्वा निव्वीयं पर्यन्ते यथा-लघुस पञ्चकसत्के नवमगृहे । सयासय त्ति-खकीयाः सदा ज्ञेया आपत्तयः । असहोरेकैकहासस्तावस्कार्यः यावत् स्थितमेकैकम् । उ० । आ० । ए.। नि। २३-8. परट्टाणं देज त्ति-आधाकर्माद्यासेवाप्राप्तम् । इह नवविधश्रुतव्यवहारे वर्षा-शिशिर-ग्रीष्मरूपकालतया सप्तविंशतिभेदेषु आपत्तिदानं दर्शितम् । अर्धापक्रान्तिरपि तथा वाच्या। २३-14. कालं वा सहेज त्ति-प्रतीक्षेत। २३-16. अणहीयनिसीहो अग्गीयत्थो। इतरो गीतार्थः । २३-21. धिइ धृतिश्चेतसोऽवष्टंभः। संहननं वज्रर्षभनाराचादि । धीईए संघयणेण य संपन्नो पढमो न घिईए न संघयणेण य अन्त्यः; मध्यवर्ति द्वयम्-धृत्या न संहननेन, नहसो(न धृत्या)संहननेन सम्पन्न इति द्वयमतो वाच्यम्। २३-25. विकल्पपञ्चकमपि व्याचष्टे आयतरगो इत्यादिना-जो जं तवोकम्मं आढवेइ तन्नित्थरइ स आयतरगः। दृढोऽपि वैयावृत्त्ये तप एव करोति न वैयावृत्यम्-इत्यायतरगः। परतरस्तपस्यपि शक्तः परं न करोति, किन्तु वैयावृत्यमेव विधत्ते । पञ्चमभङ्गव्याख्यामाह-अन्नतरतरग(27)इत्यादिना । २३-30. कल्पस्थितादयः सर्वेऽष्टौ ८ । कल्पोऽवस्थितसमाचारः । तत्र स्थितास्तत्परिपालनोद्यताः । २३-33. कयरे ते दशभेदा?-इमे वक्खमाणा-(१)अविद्यमानं चेलं वस्त्रं यस्यासावचेलकस्तद्भाव आचेलक्यम् । सचेलत्वेऽप्यचेलव्यपदेशः। दृश्यते च विवक्षितवस्त्राभावे सचेलत्वेप्यचेलव्यवहारः । यदाह 'जल(ह)जलमवगाहंतो बहुचेलो वि सिरिवेढियकडिल्लो । भन्नइ नरो अचेलो तह मुणओ संतचेलावि ॥ तह थोवजुन्नकुच्छियचेलेहिं वि भन्नए अचेलो त्ति । जह तर सालिय लहुं देयो त्ति नग्गि यामो त्ति ॥' (२)उद्देसेन साधुसंकल्पेन निवृत्तमौद्देशिकं आधाकर्म । (३-४) सय्यया वसत्या तरति संसारसागरमिति शय्यातरः । स च राजा नृपश्चक्रवादिस्तयोः पिण्डः समुदान मिति शय्यातरराजपिण्डः। (५) कृतिकर्म वन्दनकम् । (६) तथा व्रतानि महाव्रतानि। (७) ज्येष्ठो रत्नाधिकः । (८) प्रतिक्रमणं आवश्यककरणम् । (९) मासः मासकल्पः। (१०) परि-सर्वथा वसनमेकत्र निवासः स निरुतविधिना पर्युषणम् । इति दश विधः कल्पो भेदः। तमि ठिया पकप्पट्ठिया-दश विधकल्पे स्थिता इत्यर्थः । अत्र च प्रथमचरमजिनसाधवो दशस्वपि स्थिता एव । द्वाविंशतिमध्यमजिनसाधवो विदेहजाश्च दशकमध्यात् शय्यातरपिण्ड चातुर्यामपुरुषज्येष्ठवन्दनकरणाख्यचतुर्पु स्थिताः, षदसु चास्थिताः । यथा आचेलक्यौद्देशिकप्रतिक्रमणराजपिण्डमासपर्युषणाकल्पे च वर्षाकालसमाचारा मध्यमजिना २२ विदेहजाश्चास्थिताः, सततसेवनीयतया । दशानां मध्यात् कानिचित् स्थानानि कदाचिदेव पालयन्तीत्यनियतव्यवस्थास्वभावास्ते; अतो मध्यमजिनसाधवो महाविदेहजाश्चाकल्प स्थिताः। यतोऽनवस्थितसमाचारोऽकल्पोऽभिधीयते। २४-4. जोगवियसरीर त्ति-परिकर्भितदेहाः। २४-11. बहुतरया भिक्खुणो त्ति-बहवः बहुभेदा इति भावः। अत्र आचार्यकृतकरणादि-पुरुषविभागेन श्रुतव्यवहारतो जीतकल्पयन्त्रं विलेख्यम्। 'एयं मज्झं गहियं ति अनया गाथया यन्त्रकमध्यवर्ति पंचमपंक्तितपोगृहीतपंचमपंक्तावेवास्या गाथाया अर्थो निपततीत्यर्थः । २४-14. तिरियायए-तिर्यग्दीर्घाणि त्रयोदशगृहाणि कृत्वा अहो एगं घरयं च-वामपार्श्वे एक पंक्तिमित्यर्थः । अहो पक्केवघरयवुड्डीए वामपार्श्वतः सव्वाईए निरवेक्खं जिनकल्पिकं विनस्येत् । द्वितीयपंक्तरुपरि Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ श्रीचन्द्रसूरिसंरचिता [२५-11. २७-5 आचार्यः कृतकरणः । तृतीयपंक्तरुपरि आचार्योऽकृतकरणः । चतुर्थ्या उपाध्यायः कृतकरणः । पञ्चम्या उपाध्यायोऽकृतकरणः [षष्ठ्या गीतार्थस्थिरकृतकरण] भिक्षुः । सप्तम्या गीतार्थस्थिराकृतकरणभिक्षुः। अष्टम्या गीतार्थास्थिरकृतकरणभिक्षुः [नवम्या गीतार्थास्थिराकृतकरणभिक्षुः । दशम्या अगीतार्थस्थिरकृतकरणभिक्षुः। एकादश्या अगीतार्थस्थिराकृतकरणभिक्षुः । द्वादश्या अगीतार्थास्थिरकृतकरणभिक्षुः] त्रयोदश्या अगीतार्थास्थिराकृतकरणभिक्षुः। एवं स्थापितदाहिणट्ठियपणुवीसइ सरूव भिन्नमास निव्वीयसनियाओ, वामपार्श्ववर्ति अट्ठमभत्तं तत्थ छग्गुरुसनियं जीतदाणं नेयं । पंचमपंतीए। २५-11. तहि चेव अवराहे त्ति कोऽर्थः ? तदेवापराधमाश्रित्येत्यर्थः। पुरुषाः-आचार्योपाध्यायवृषभभिक्षुक्षुल्लकभेदतः पञ्च विधास्तानाश्रित्येति भावः। २५-25. खित्तं छिन्नमडंबं ति-अट्ठाइयजोयणभ्यन्तरे जत्थ वसिमं अन्नं नत्थितं छिन्नमडम्बं । सर्वतोऽ. भासनसन्निवेशान्तरं मडंबमित्यन्ये । ओमं परिपूर्ण यत्र भकादि न लभ्यते । दुर्भिक्षं यत्र सर्वथा न लभ्यते। २५-27. तमणंतरं ति निकटवर्ति । २५-36. आलोचनाकाले जयागृहइ त्ति-सर्वथैव न प्रकाशयति। पलिउंच वत्ति-अर्धकथितं करोति। २६-1. बहुगुणेसु त्ति-समर्थेषु । गुरुसेवा-अशुभं प्रति प्रधानसेवा । २६-8. छेदाह प्रोच्यते-तवगविउ० गाहा । [८०] २६-11. अइपरिणामगो-अपवादरुचिः । २६-12. उत्कृष्टां तपोभूमि समईओ त्ति-अधिकतपोदानयोग्यो जातः । सवि ( साव० ) शेषं च यस्य चरणं तस्यातिचारदूषितव्रतपर्यायस्य च्छेदः क्रियते । २६-23. आकुटिरुपेत्यकरणम् , तया पञ्चेन्द्रियवधः कृतः। दर्पण मैथुनसेवनं च । सतीवादमस्या नाशयामीति बुद्धया स्त्रीसेवनायाम् । मृषावादे कूटसाक्षित्वादिदानतः । अदत्ते निधानाद्यपहरति । सचित्ताचित्तगोचरं परिग्गहं च गृह्णाति। २६-27. मूलगुणान् द्वित्रादिभेदेन बहुविधानं बहुशो अनेकशः शोधयति । सर्वशंकादीन् करोति । इति दर्शनवमकः। २६-32. गृहस्थलिंग-कच्छाबन्धनं तल्लकट्टशिरसि विधानादि कौतुकेन कुरुते । अन्यतीर्थकाः-शाक्यतापसायस्तेषां लिङ्गं तद्वेषकरणं नटादिवेषकरणतः । स्त्रीणां गर्भस्याधानं शाटनं च औषधादिकरणतो मूलकरण. तोऽमी (2)। २६-34. विहियतवे त्ति--विहितं दत्तं गुरुणा तपो यस्य सविहिततपास्तदूर्ध्व छेदमूलानवस्थाप्य पाराश्चिकानि प्राप्तस्यापि भिक्षोर्मूलमेवेत्यर्थः। तथा आचार्योपाध्याययोः पाराश्चिकप्राप्तावप्यनवस्थाप्यमेव भवति । यदुक्तं भाष्ये 'इत्थ य जह नवदसमे आवन्नस्सावि भिक्खुणो मूलं । दिजइ तहाभिसेगे पर पयं होइ नवमं तु ॥' २७-5. अनवस्थाप्याख्यं । अनवस्थाप्ये उक्कोसं० गाहा । [८७ ] आसेवितातिचारसन्नविशेषः। सन्न अनाचरिततपोविशेषस्तदोषोपरतोऽपि महाव्रतेषु नावस्थाप्यते नाधिक्रियत इत्यनवस्थाप्यः। तदतिचारजातं तच्छुद्धिरपि वा अनवस्थाप्यमुच्यते । नवमं प्रायश्चित्तम् । तत्र स्तैन्यकरणे किं सत्रेडनवस्थाप्यमुक्तम् ? उक्तमेवेत्यादि । तओत्यादि-गाथापूर्वार्द्धन साधर्मिकस्तैन्ये प्रायश्चित्तमुक्तम् । तत्र सूत्रपदस्यायमर्थः-साधर्मिकाः साधवस्तेषां सत्कस्योत्कृष्टोपधेः शिष्यादेर्वा । बहुशो वा प्रद्विष्टचित्तो वा । तेन्नं ति-स्तेयं-चौर्यं कुर्वन् अनवस्थाप्यः । अन्यधार्मिकाः-शाक्यादयो गृहस्था वा। तेषां सत्कस्योपध्यादेः स्तेयं कुर्वन् । अयमर्थोऽन्यधार्मिकयो. लिङ्गिगृहस्थरूपयोः सत्कं तेयमाहारोपधिशिष्यादिगोचरं त्रिधातत्कुर्वन् । अथोत्तरार्धन-हत्थायालो गहिओस च त्रिधा-अस्थायाणं दलमाणे, हत्थालंबं दलमाणे, हत्थायालं दलमाणे त्ति । क्रमेण व्याख्या अस्थायाणं-अर्थादानं द्रव्योपादानकरणं अष्टाङ्गनिमित्तं तद्ददत्प्रयुजान इत्यर्थः । अत्र कथानकमात्रम् Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७-14. २८-17 ] जीतकल्पचूर्णि-विषमपदव्याख्या Anmonal उजेणी उस्सन्नं दो वणिया पुच्छिऊण आयरियं । ववहारं ववहरती ताहे सो तेसि साहेइ ॥१॥ तस्स य भगिणीपत्तो भोगभिलासीओ मंचए लिंग। तो अणुकंपा भणई-किं काहिसि तं विणत्थेण॥३॥ ता वच्च ते वणिए, भणाहि-अत्थं पयच्छह मज्झम । तेण य गंतु भणिया तो तेसिं बेइ अह एक्को ॥३॥ कत्तो अत्थो अम्हं कि सउणी रूवए इहं हगई। बीओ चंगेरि भरेवि निग्गउ नउलयाणं तु ॥४॥ गिण्हिसु जावइएहिं कज्जत्ती गहिय तेण जावट्ठो। बिइयं मि हायणंमी किं गिण्हामो त्ति ते बिंति ॥५॥ भणिओ सउणी इत्तो तणकटुं वत्थरूयकप्पासे। नेहगुलधनमाई अन्तो नयरस्स हावेहि ॥ ६ ॥ बिइउ य तेहिं भणिओ सव्वदाणेण गिण्ह तणकट्ठ। नगरबहि ठावावय गहिएणुवरिं च वासासु ॥ ७ ॥ छइएसुं गेहेसुं पलित्ते दहूं तओ उ तं नगरे । तणकट्ठाणं पुंजो अइव महग्यो उ सो जाओ॥ ८॥ . दडमियरस्स सव्वं ताहे सो गंतु भणइ आयरियं । उच्छाहिओ अहोहं किं तु न नायं इमं तुब्भे ॥९॥ किं सउणी य निमित्तं हगं ति अम्हं ति भणइ नेमित्ती । होइ कयावि तहन्नय रूठं नाउं तओ खामे ॥१०॥ भव्वग त्ति भागिनेयः । प्रतिभन्नो व्रतपालनात् । चंगोडगो च्छघडयं रूवई भरिय नउलाणं घेत्तूण उवहिओ। तदनु घृतगुडादिपण्यस्य पत्तनान्तर्मध्ये सङ्ग्रहोपदेशं दत्तवान् । द्वितीयस्य रूपकदातुर्वशतृणकाष्टादीनां संग्रह पत्तनात् बहिष्टादुपदिष्टवान् । पत्तनान्तर्दग्धपण्यस्य सम्मुखं ब्रवीति किं शकुनिका निमित्तं हदंते । एवं विधार्थोपादानकारिणः पुरुषस्याभ्युत्थितस्य व्रतग्रहणाय तत्र क्षेत्रे प्रायश्चित्तं दातुं न कल्पते । २७-14. हत्थालम्बोत्ति-हत्थालंब इव हत्थालंबस्तं ददत् । अशिवपुररोहा(धा)दौ तत्प्रशमनार्थमभिचारुकमंत्रविद्यादि प्रयुजान इत्यर्थः । हत्थायालो त्ति-हस्तेन आताडनं हस्तातालस्तं दलमाणे ददत् । यष्टिमुष्टिल. गुडादिभिर्मरणादिनिरपेक्ष आत्मनः परस्य वा प्रहरनिति भावः । तत्र आयरियस्स विणासे गच्छे अहवावि कुलगणे संघे। पंचेंदियवोरमणं पिकाउं नित्थारणं कुज्जा ॥ एवं खु करेंतेणं अव्वोच्छित्ती कया उ तित्थंमि । जयवि सरीरावाओ तहवि य आराहओ सो उ॥ अन्यस्तु सामर्थे सति आगाढेऽपि प्रयोजने न प्रयुक्ते यः स विराधकः । २७-21. कीरइ० गाहा [८९] सो य आचार्यादिः । एत्थ चउभंगो त्ति-दवलिंग-भावलिंगपदद्वयेन भङ्गचतुष्टयं यथा-दव्वलिंगेन रजोहरणादिना अणवटुप्पो महाव्रतादिना भावलिङ्गेन च। १। दव्वलिंगेणाऽण, न भावलिंगेनेति शून्यः।२। भावलिङ्गेन अनवटुप्पो न दव्वलिंगेण । ३ । भावलिंगेण अणवठ्ठप्पो; असंभवि भंगोऽयं ।।। २७-24. सपक्खपरपक्खे प्रदुष्टस्तैन्यादिदोषैः स्तैन्यद्वयं सूचितम् । १। स्वपक्षपरपक्षघातनोद्यतो निरपेक्षतया अनेन हस्तातालो गृहीतः । हत्थालंबो अत्थादाणो य इत्यनेन तृतीयभङ्गमाह । द्वितीयचतुर्थभङ्गौ असंभविनौ। २७-28. जहा अत्थादाणिओ त्तियोऽर्थमुत्पादयति निमित्ता स। उत्तमद्वेत्यादि । तत्थेव त्तिस्वस्थाने । ओसन्नाइ अन्नयरस्स खस्थानत्यागे सति भावलिङ्गं दीयते । २७-35. संघाधिक्षेपो जात्यादिना ज्ञेयः। २८-4. सुहसाय त्ति सुखखापाः । २८-2. न जईणं ति-वच्छला इति योग्यम् । २८-7. आशातनया तपोऽनवस्थाप्यः कियता कालेन स्यादित्याह-जहन्नेणेत्यादि । एतावत्कालादूर्ध्व असौ व्रतेषु स्थाप्यते। २८-12. तवस्सी यत्ति-तपोऽन्वितः। २८-14. निजहणारिहो त्ति-गच्छात्पृथक्करणार्हः सः । सूत्रे सव्वो वि त्ति पदम् । २८-17. आशातना-प्रतिसेवानवस्थाप्यो द्विप्रकारोऽपि मूलाई उक्त उत्सर्गतः । अववाएण कुलादि-कार्यकारी । तदधीनानि कार्याणि । उत्तम कार्य बहुजनसाध्यं शृङ्गनादितकार्यमुच्यते । तत्प्रसाधितं येन भवति । संवासो से कप्पइ ति-[ मूलसूत्रस्थं वाक्यमिदं ]-एकत्र निवसनं गच्छमध्ये तस्य कल्पते । नालपणसंभाषणादीनि । अयमत्र भावार्थ:-गाथोक्तवन्दनादिक्रियाकरणसंभाषणादिक्रियापरिहारेण च एकत्र संवसनमात्रं मुक्त्वा तपस अनवस्थाप्यलक्षणस्य विधिना प्रतिपत्तिः स्वीकारोऽनवस्थाप्यतपःप्रतिपत्तिः। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ श्रीचन्द्रसूरि संरचिता [ २८- 20 २८-34 २८ - 20. तत्प्रतिपत्तौ विधिमाह - पसत्यदवेत्यादिना - परिहारतवं पडिवतो दब्वाइ अपसत्थे वज्जित्ता पसत्थेसु दव्वाइसु काउस्सग्गो कीरइ । तत्थ दव्वओ वडमाइखीररुक्खे । खेत्तओ इक्षुशालि क्षेत्र कुसुमितवन खंडप्रदक्षिणावर्त जलपद्मसर चैत्य जिनगृहादिषु । कालओ पुव्वसूरे पसत्थाइदिणेसु य । भावओ चंदताराबलेसु । तत्रापि सन्ध्यागतादिदिनवर्ज आलोचनां प्रयुक्ते । यत उक्तम् 'संझा गयं रविगयं विरं सग्गहं विलंबिं च । राहुहयं गहभिन्नं च वज्जए सत्तनक्खते ॥' अत्र लोकश्रीटीकाकारव्याख्या - सूर्ययुक्तादनन्तरनक्षत्रं सग्रहणम् । सूर्यास्तगमनकाले यत्रक्षत्रमुदयमुपयाति तद्विलम्बितम् । राहुणा मुखेनाक्रान्तं पुच्छेन वा तद्राहहतम् । अन्ये त्वाहुः - यस्मिन् नक्षत्रे ग्रहणमा - सीत्तद्यावद् रविणा न युक्तं तावत्तद्राहुहतमिति । ग्रहभिन्नं यन्मध्ये ग्रहो विभिद्य निर्गच्छति । केचिच्छकटभेदमेव ग्रहभेद इत्युदाहरन्ति । अन्ये त्वत्रैवं ब्रुवते - यथा - 'जम्म रविनक्खते ततो संझागयं तु चउदसमं । विड्डेरं तु विइज्जं होइ चउत्थं विलंबिं च ॥' अभ्यस्त्वाह - 'सर्व विरुद्धे दिवसे यद्येको भवत्यमृतयोगस्तु । हिमवद्दिनकर किरणैः सर्वे दोषाः प्रलीयते ॥' कालतः प्रतिपत्तिश्चास्य तपसो जहन्त्रेण मासो उक्कोसेणं छम्मासा । तंमि परिहारतवं पडिवजंतो आयरिओ भइ – अणव पतवस्स निरुवसग्गनिमित्तं ठामि काउस्सगं । 'अन्नत्थूससी एण' मित्यादि कायोत्सर्ग दण्डको वाच्यो जाव वोसिरामि । 'लोगस्सुजोयर' अणुपेहित्ता, 'नमो अरहंताणं' ति पारिता, 'लोगस्सुज्जोयरे' कट्टित्ता आयरिओ भणाइ 'एस तवं पडिवज्जइ न किंचि आलवइ मा य आलवह । अन्नस्स (इ) चिंतगस्स उ वाघाओ भे न कायव्वो ॥' अस्यार्थः - एस अप्प विसुद्धिकारओ परिहारतवं पडिवज्जइ । एस तुब्भे न किं चि आलवइ । तुब्भे वि एयं मा वह । स तु त्तत्थेसु सरीरवद्धमाणीं वा न पुच्छइ । तुम्भे वि एयं मा पुच्छह । एवं च आत्मार्थचिन्तकस्य ध्यान परिहारक्रियान्याघातो न कर्तव्यः । वन्दनं कुरुते भवताम्, न चासौ भवद्भिर्वन्यः । खेलकाइयसन्नामत्तगं वा नसो देइ । तस्संतिओ वा न घेप्पइ । उवगरणं परोप्परं न पडिलेहंति । संघाडगा परोप्परं न भवंति । भत्तपाणं परोप्परं न करेंति । एगमंडलीए न भुंजंति । यच्चान्यत् किंचित्करणीयं तत्तेन सार्धं न कुर्वन्ति । गीयत्था परिहारिया तस्स गच्छंतस्स सव्वत्थ अणुगच्छति । पारणकदिने अलेवकडं पारेइ । सयमाणीयं निद्दिट्ठअन्त्रेण वा । इत्यनवस्था () विधिरुक्ता ॥ २८-27. अधुना पाराञ्चिकमभिधीयते - तत्र पारं तीरं तपसोऽपराधस्याश्ञ्चति गच्छति । ततो वीक्ष्यते यः स एव पाराश्चिकस्तस्य यदनुष्ठानं तच्च पाराचिकमिति । दशमं प्रायश्चित्तम् । लिङ्गक्षेत्रकालतपोभिर्बहिःकरणमिति भावः । तत्र पाराश्विकेत्यादि -- इह सूत्रे प्रतिषेधकपाराश्चिक एव त्रिविध उक्तः । तदुक्तम् - 'पडिसेवणा पारंची तिविहो सो होइ आणुपुब्बीए । दुट्ठे य १, पमत्ते य २, नायव्वे अन्नमने य ३ ॥ ' तत्र दुष्टो दोषवान् — कषायतो विषयतश्च । पुनरेकैको द्विधा - स्वपक्षपरपक्षभेदात् । उक्तं च 'दुविहो य होइ दुट्टो — कसायदुट्ठो य विसयदुष्टो य । दुविहो कसायदुट्ठो सपक्खपरपक्ख चउभंगो ॥' स्वपक्षकषायदुष्टः परपक्षकषायदुष्टः । १ । खपक्षक०, न परपक्षक० । २ । न खपक्षदुष्टः, परपक्षदुष्टः । ३ । न खप०, न परपक्षदुष्टः । ४ । चतुर्थः शून्यः । कोहं करें तो कसायदुट्ठो । तत्थ सपक्षे कषायदुट्ठस्स इमे सासवनालाई चत्तारि उदाहरणा । २८ – 34. तत्थ सासवनालेत्ति - सा [स]वा भज्जिया । एगेण साहुणा भिक्खागएण सासवनालसेल्लयं सुसंभृतं लद्धं । तत्थ से अईव गिद्धी । तेण तं गुरुणो उवणीयं । तच्च गुरुणा सव्वं भुत्तं । इयरस्स कोवो जाओ, मंडियं च । गुरुणा सो खामिओ तहा नोवसंतो। भणाइ य-भंजामि ते दंता । गुरुणा चिंतियं मा एस मं असमाहीए मारिस्सइ त्ति गणे अन्नं आयरियं ठवित्ता अन्नं गणं गंतुं अणसणं पडिवन्नं । पुच्छइ ते साहू कत्थ मे गुरवो । पुच्छति कर्हि ओ गुरू । न कर्हिति साहवो । सो अन्नओ सोचा गओ जत्थ गुरवो । तेहिं कहियं-अज्ज चेव कालगओ परिद्वविओ य । ता हे पुच्छद्र - कत्थ से सरीरयं गुरुणो । पुव्वकहिओ भजतो भनाइ - सासवनालं खाइसि त्ति । एयं करेंतो दिट्ठो ॥ १ ॥ I Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९-9.] जीतकल्पचूर्णि-विषमपदव्याख्या मुहणंतए यत्ति-एगेण साहुणा लद्धं मुहणंतगं ।आणियं तं गुरुणा गहियं । इत्थ वि सव्वं पुवखाणगसरिसं । नवरं तं मुहर्णतगं पच्चप्पिणंतस्स न गहियं जीवंते गओ राओ। साहुविरहं लभित्ता, गेण्हसि भणंतो, गाढं गले गिण्हइ । संमूढेण गुरुणा वि सो गहिओ। दोवि मया ॥२॥ सिहरिणि त्ति-एगेण साहुणा उक्कोसा मज्झिया सिहरिणी लद्धा । गुरुणो आलोइया निमंतिया। गुरुणा सव्वं आवीया। से साहू पत्थरं उग्गिरित्ता आगओ। अन्नेहिं वारिओ । तहावि अणुवसंतो । गुरुणा सगणे चेव भत्तं पञ्चक्खाणं, नो अन्नं गच्छं गओ ॥ ३ ॥ उलुयच्छिओ त्ति-एगो साहू अत्थं गए सूरिए सीवंतो गुरुणा भणिओ-पेच्छसि उलुगच्छी । सो रुट्ठो भणइ-एवं भणंतस्स दोवि अच्छीणि ते उद्धरामि। एत्थ वि गुरुणा खामिओ।नोवसंतो भणइ-ते अच्छीणि उद्धरामि । तओ सो रओहरणाओ अयोमयं किलयं कङ्किऊण दोवि अच्छी णि उद्धरित्तु ढोवेइ ॥४॥ एए चउरो वि लिंगपारंची। विसयदुढे वि चउभंगो त्ति-यथा सलिंगी सलिंगसाध्वीं सेवते । १। सलिंगी गिहिलिंगीस्त्रीं । २ । सलिंगी अनलिंगे परिघ्राजिकां। ३ । अन्नलिंगी अन्नलिंगे। ४ । शून्योऽयं । परपक्षकषायदुष्टस्तु राजवधक-उदायिनृपमारकवत् । सपक्षविषयदुष्टस्तु साध्वीकामुकः । स च पावाणं पावयरो दिट्ठिभासो वि सो न कम्पइ हु । जो जिणमुदं समणि नमिऊण तमेव धरिसेइ ॥ परपक्षविषयदुष्टस्तु-राजग्गमहिष्यधिगन्ता, अमात्ययुवराजसेनापत्याद्यग्रमहिषीसेवकश्च । दुट्टे पारंचिए त्ति व्याख्यातम् । सम्प्रति मूढे पारंचिए त्ति व्याख्यायते [गाथा ९६]-स्त्यानर्द्धिनिद्राप्रमादवान् प्रमत्तः मूढोऽपि च एवात्र व्याख्येयः-पञ्चमनिद्रापरो यः अतिसंक्लिष्टपरिणामात् स्त्यानर्द्धिनिद्रोपगतो दिनदृष्टमर्थमुत्थाय प्रसाधयति । वावारए त्ति-व्यापारयति । तदुदये च केसवार्धबलसदृशी शक्तिर्भवति प्रथमसंहननिनः । चूर्णिकृदप्यने पारांचिकविधौ पमत्तपारंचिए इति पाठं दर्शयिष्यति । २९–9. पोग्गलेत्यादि-पोग्गलं-मंसं १. मोदगा-लड्डया २. दन्ता-हत्थिदंता ३. फरुसगो-कुम्भकारो ४. वडसाला-डाली ५. एते थीणद्धीए उदाहरणा। तस्थ पोग्गले जहा-एगंमि गामे एगो कुटुंबी। पक्काणि य तेलियाणि य तिमण्णेसु य अणेगसो मंसप्पगारा भक्खेइ । सो य तहारूवाणं थेराणं अंतिए धम्मं सोऊण पव्वइओ। विहरइ गामाइसु । तेण य एगत्थगामे मंसत्थिएहिं महिसो विगिंचमाणो दिट्ठो। तस्स मंसे अभिलासो जाओ। सो तेण अभिलासेण अव्वोच्छिन्नेण भुत्तो। एवं अववच्छिनेण वियारभूमिं गओ। चरिमा सुत्तपोरुसी कया। पाउसीयावस्सया कया । तदभिलासी चेव सुत्तो । सुत्तस्सेव थीणद्धी जाया । सो उढिओ गओ महिसमंडलं । अन्नं हंतुं भक्खियं सेसं आगंतुं उवस्सयस्सोवरि ठवियं । पञ्चसे गुरूण आलोएइ-एरिसो सुविणो दिहो। साहूहिं दिसावलोयं करितेहिं दिटुं कुणिमं । जहा एस थीणद्धी । थीणद्धिस्स लिंगपारंचियं पायच्छित्तं । तं से दिन्नं ॥१॥ मोयगेत्ति-एको साहू भिक्खं हिंडतो मोयगभत्तं पासइ । सुचिरं उविक्खियं न लद्धं । गओ जाव तदज्झवसिओ सुत्तो। उप्पन्ना थीणद्धी। राओ तं गिहं गंतुं भंतूण तं कवाडं मोयगे भक्खयति । सेसे पडिग्गहे ऐनुमागओ। वियडणं । चरिमाए भायणाणि पडिलेहंतेण दिट्ठा। एयस्स लिंगपारश्चियं ॥२॥ त्ति-एगो साहू गोपुरनिग्गओ हत्थिणा पक्खित्तो कहवि पलाओ। रुसिओ चेव पसुत्तो। उदिना थीणद्धी। उद्विउंगओ, पुरकवाडे भंतूण गजो वावाइओ। दंतमुसले गहेऊणमुवागओ। उवस्सयबाहिं ठवित्ता पुणरवि पासुत्तो। पभाए उढिओ सुविणं आलोएइ । साहूणं गयदंतदरिसणं नायं। तहेव विसजिओ ॥३॥ फरुसग त्ति-एगमि महंते गच्छे कुम्भकारो पव्वइओ। तस्स राओ सुत्तस्स थीणद्धी उइन्ना । सो य मट्टीपच्छेयम्भासा समीवत्थाण साहूण शिराणि छिदिउमारद्धो। ताणि सिराणि कलेवराणि य एगते पडद । सेसा ओसरीया। पुणरवि पासुत्तो। सुषिणमालोयणं । पभाए साहुसंभारणं नायं । दिन्नं च से लिंगपारंचियं ॥४॥ ८ जी० क.चु. Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीचन्द्रसूरिसरचिता [२९-13. ३०-1 manand पडसालभंजणं ति–एगो साहू भिक्खायरिउं गओ। तत्थ पहे वडसाला रुक्खो । तस्स साला पहं निमेण लंघेउं गओ। सो य साहू उम्हाभिहयभालो भरियभायणो तिसयभुखंतो इरियोवउत्तो वेगेण आगच्छमाणो ताए सालखंधाए सिरेण फिडिओ। रुसिओ जाव पासुत्तो। थीणद्धी उदिन्ना। उढिओ गओ । गंतूण तं सालं गहे. फणमागओ। उपस्सयदुवारे ठविया। वियडणा। नायं थीणद्धी । लिंगपारंची कओ॥५॥ के आयरिया भणंति-सो पुव्वं वणहस्ती आसी। तओ मणुयभवमागयस्स थीणद्धी जाया । पुठवडभासा गंतूण वडसाला भंजणाणयं । सेसं तहेव । इह स्त्याना प्रथमसंहननिनः केसवार्द्धबलसदृशी शक्तिर्भवति। तदन्यत्र साममबला दुगुणं तिगुणं चउगुणं वा भणति । अन्नमन्नं करेमाणे त्ति-सूत्रपदस्य व्याख्या-अन्योऽन्यं परस्परं मुखपायुप्रयोगतो मैथुनं कुर्वन् पुरुषगुगमिति विशेषः । अभ्य ( भण्य !) ते च-'आसयपोसयसेवी केवि मणूसा दुवेयगा हुँति ।' तेसिं लिंगषिवेगो त्ति-तीर्थकराद्यासातनापरा आसातनापारची भवति । चरिमट्ठाणावत्तिसु त्ति [गाथा९६]-चरिमट्ठाणं पारंचियमेव । तस्यापत्तयस्तदतिचारसेवनानि तेषु प्रसज्यते, सच पाराश्चिकाहः। २९-13. दधभावलिंगे चउभंगो त्ति-द्रव्यलिङ्गं रजोहरणादि, भावलिंग महाव्रतादि । दव्वालिंगेण पारचिओ, भावलिंगेण य १. दवलिंगेण पारं, न भावलिंगेण य २. भावलिंगेण पारं., न दवलिंगेण ३. न गेण पार न भावलिंगेण य ४. इति। चतुर्थः शून्यः । अग्रमहिष्यादिसेवनादौ संप्रकटसेवी। २९-14. उभयलिंगेणावि त्ति-द्रव्यलिंगेन भावलिंगेन च पाराश्चिको भवति । २९-15. जत्थु० गाहा[९ | दोसो व्रतलोपादिकः ॥ क्षेत्राण्येवाह-वसहीएत्यादि-वसही-वसतिः निवेसनं एकनिष्क्रमणप्रवेशानि द्यादीनि गृहाणि । पाटको प्रामादेर्व्यवच्छिन्नः सनिवेशः। साही प्रामगृहाणामेकपाटी। नियोगो राजकृतपुरदेशः, राज्यादिकः प्रवेशः, इत्येवंप्रकारक्षेत्रे यस्य यो दोषः सम्पन्नस्तस्मात् क्षेत्रात् स पारा. शिकः क्रियेत् । २९-23. अन्नमन्नं ति-अन्योन्याधिष्ठानसेवनम् । २९-28. सूत्रार्थपौरुषी द्वे अपि शिष्येभ्यो दत्त्वा गुरुस्तस्य समीपे गच्छति । २९-31. आचार्यप्रेषितस्य चागीतार्थस्य जत्थ गओ त्ति गव्यूतद्वयस्थितपाराश्चिकान्तिके । अंतरालेव त्ति तत्सकाशादागच्छतः । से ति सूरिशिष्यस्य वा भक्तं पानं च उपनयन्ति साधवः । ___ २९-35. अणवटुप्पो० गाहा [१०२] परिहारतवो गिम्हसि सिरवासासु जहन्नमज्झिमुक्कोसो-गिझे चउस्थछट्टट्ठमाई, सिसिरे छहमदसमाई, वासासु अट्ठमदसमवारसंताई; पारणए अलेवकडं। एवं तपःपाराच्चिकोऽपि । भतो अभिहितं-अणवठ्ठप्पो तवसा तवपारंचिया दोवि वोच्छिन्न त्ति । लिंगक्षेत्रकालैरनवस्थाप्य-पारा. चिकास्तीर्थ यावदनुज्ञाताः। _ 'उद्देसऽज्झयणसुयखंधंगेसु' इत्यादि [ २३] गाथात आरब्भ 'झोसिजइ सुबहुं पि हु' इति इति [७९ ] पर्यन्तगाथां यावत् सप्तपञ्चाशत्गाथाभिर्ज्ञानातिचार [दर्शनातिचार] चारित्रातिचारवस्तुत्रयगोचरं तवारिहं पायच्छित्तं भणियं । तदूर्ध्व गाथात्रयेण च्छेदाह । तदनु गाथाचतुष्टयेन मूलाई । तदनु गाथासप्तकेनाऽनवस्थाप्याई । तदनु गाथानवकेन पारांचिकमुक्तमिति शास्त्रसमुदायार्थः । ___३०-1. अथ शास्त्रसमाप्त्यर्थमुपसंहारगाथामाह-इय एस० गाहा [१०३] क्रियते अभिधीयतेऽर्थोsनेनेति करणः शब्दः। जीयकप्पो ति-जीतमाचरितव्यं सर्वकालधरणा वा जीतं, तस्य कल्पः । कल्पशन्दो वर्णनायामत्र । यतः पठ्यते'सामर्थे वर्णनायां च च्छेदने करणे तथा । औपम्ये चाधिवासे च कल्पशब्द विदुर्बुधाः ॥' Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1.-4. ३०-20] जीतकल्पचूर्णि-विषमपदव्याख्या सामर्थेऽतो वर्धते कल्पशब्दस्तदर्थधातुनिष्पन्नत्वात् । वर्णनायां यथात्र । यद्वा कल्पितो वर्णितः श्वाधितः । छेदने कल्पितं छेदितं वस्त्रम् । करणे ब्राह्मणार्थ कल्पिताः कृताः पूपाः। औपम्ये यथा-समुद्रकल्पमिदं तडागम् । भघिवासे यथा-कल्पिता अधिवासिता नानाय सज्जिता प्रतिमा । एतेष्वर्थेषु कल्पशब्दः । ३०-4. परिणामगा-उत्सर्गापवादवेदिनः । कडजोगिणो-चउत्थाइ तवे कयजोगा। संगहसीला-वनपात्रविष्यादिसङ्घहपराः । अपरित्रान्ताः अखेदवन्त अगोपाझादिश्रुतार्थवेदिनः । बुद्धिवन्तो-मेपाविनः । एवमादीनि-आदिशन्दात्परिणताः श्रुतेन वयसा च। तत्र सोलवरिसारेण वयसाऽव्वत्तो, परेण वत्तो। भूतेन च अधीतनिषीथो व्यक्तः, शेषस्तदन्यः। तथा तरमाणगा-जे जं तवोकम्मं आढवेति तं नित्थरति तदन्ये तरमाणा इत्यादि प्रायम्। ३०-20. पावणं ति-पवित्रम् । निश्चितसूत्रार्थदायकश्चासौ अमलचरणच, तम् । ॥ इति जीतकल्पचूर्णिविषया [ विषमपद-] व्याख्या समाप्ता ॥ जीतकल्पवृहसूर्णी व्याख्या शास्त्रानुसारतः। . श्रीचन्द्रसूरिमिदृब्धा स्वपरोपकृतिहेतवे ॥१॥ मुनि-नयन-तरणि ( १२२७ ) वर्षे श्रीवीरजिनस्य जन्मकल्याणे। . प्रकृतग्रन्थकृतिरियं निष्पत्तिमवाप रविवारे ॥२॥ संघचैत्यगुरूणां च सर्वार्थप्रविधायिनः। वशा (विशो?)ऽभयकुमारस्य वसतौ दृब्धा सुबोधकृत् ॥ ३॥ एकादशशतविंशत्यधिकश्लोकप्रमाण (११२०) ग्रंथाग्रं। ग्रंथकृतिः प्रविवाच्या मुनिपुंगवसूरिभिः सततम् ॥ ४॥ यदिहोत्सूत्रं किञ्चिद् दृब्धं छमस्थबुद्धिभावनया। तन्मयि कृपानुकलितैः शोध्यं गीतार्थविद्वद्भिः ॥५॥ ॥ समाप्ता चेयं श्रीशीलभद्रप्रभुश्रीधनेश्वरसूरिपादपनचंचरीक श्री श्री चंद्रसूरिसंरचिता जीतबृहचूर्णि-दुर्गपदविषया निशीथादिशास्त्रानुसारतः संप्रदायाच सुगमा व्याख्येति ॥ यावल्लवणोदन्वान् यावन्नक्षत्रमंडितो मेरुः । ने यावश्चन्द्रार्को तावदियं वाच्यतां भव्यैः ॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् / ठ 53 उपरि सूचितं (24-14) जीतकल्पयत्रम् / निरपेक्ष आचा०कृत आचा. अकृत उपा० कृत गी. उपा० गी० स्थि० गी० स्थि० | अस्थि अकृत | कृत - अकृत - कृत गी. अस्थि० | अगी. स्थि० कृत - अकृत अमी. स्थि. अकृत अगी० | अगी. अस्थि. अस्थि. कृत अकृत | मल मूलं | छेदः 4 // दः 6. पारांचिकं अनवस्था० अनवस्था० अनवस्था० मूल मूलं मूलं छेदः / छेदः / छेदः / छेदः / 6 6 66 4 / 6 6 / 6 6 / / / 4 / 4 4 / 4 / / / . 000 10.1. . . " F " 400 . . ___4 // 4 4 4 . . . . 25 25 / 20 . . . 0 25 25 - 20 20 15 / 15 / 10 . . 25 / 25 20 / 20 15 / 15 / 10 105 25 / 25 / 20 / 20 15 15 10 10 / 5 / 20 20 / 15 / 15 / 10 10 / 5 / 2015 10 / 5 / - 0 10 /