Book Title: agam 38 Chhed 05 Jitkalpa Sutra
Author(s): Jinvijay
Publisher: Jain Sahitya Sanshodhak Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 32
________________ VIII जिणभइ-खमासमण-विरइयं [गाथा १०२-१०३ अणवठ्ठप्पो तवसा तव-पारश्ची य दो वि वोच्छिन्ना। चोदस-पुव्वधरम्मी, धरन्ति सेसा उ जा तित्थं ॥१०२॥ इय एस जीयकप्पो समासओ सुविहियाणुकम्पाए। कहिओ, देयोऽयं पुण पत्ते सुपरिच्छिय-गुणम्मि* ॥ १०३ ॥ ॥ सिरि-जिणभद्द-खमासमण-विरइयं जीयव्यवहार-कप्प-सुत्तं समत्तं ॥ *प्रत्यन्तरे सूत्रपाठे १०६ गाथा लिखिता उपलभ्यते । तत्र वत्तणुवत्तपवत्तो बहुसो आसेविओ महाणेण । एसो उ जीयकप्पो पञ्चमओ होइ नायव्यो । -इयं गाथा प्रथमगाथाऽनन्तरम्, अप्पा मूलगुणेसुं विराहणा अप्प उत्तरगुणेसु । अप्पा पासत्थाइसु दाणग्गहसंपओगाहा ॥ -इयं गाथा अष्टमगाथाऽनन्तरम् , सोलस उग्गमदोसा सोलस उप्पायणा य दोसाओ। दस एसणाए दोसा संजोयणमाइ पंचे व ॥ -इयं गाथा चतुस्त्रिंशत्तमगाथाऽनन्तरं च लिखिता सन्दृश्यते । एतद् गाथात्रितयं ग्रन्थान्तरगतं न तु प्रकृतसूत्रकारकृतं चूादिव्याख्याकृद्भिस्तथैव सूचितत्वात् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92