Book Title: Yugpravar Shree Vijayvallabhsuri Jivan Rekha aur Ashtaprakari Puja
Author(s): Rushabhchand Daga
Publisher: Rushabhchand Daga
View full book text
________________
आप सर्वदा से यह विश्वास करते आ रहे थे कि प्रवाहित नीर निर्मल होता है, एक स्थान पर एकत्र और रुका हुआ नहीं। उसमें विकार उत्पन्न हो जाता है। साधु का जीवन भी सदैव विहारमय रहने से प्रवाहित नीर के सदृश शुद्ध रहता है। साधु को किसी भी स्थान से न विराग है और न मोह । संसार ही कुटुम्ब है। जिसको मोह होता है, वह रुके हुए पानी के सदृश उसका संयम भी विकृत हो जाता है। उसमें दोष आ जाता है। संयम की निर्मलता के लिए साधु का विहार परम आवश्यक है। अतः आपने जगह-जगह, गाँव-गाँव, कस्बा-कस्बा, प्रान्त-प्रान्त में विहार कर अपने मधुर वक्तव्य, अटल गम्भीरता, अनुपम वीरता, दृढ़ता, मध्यस्थता, सत्यप्रियता, परोपकार शीलता एवं त्याग, वैराग्य और दया आदि दिव्य किरणों से समस्त संसार में प्रकाश फैला दिया। आपके चरित्र की उत्कृष्टता और प्रतिभा से जैन-जैनेतर समाज आकर्षित हुए। ___ आपका प्रतिभाशाली व्यक्तित्व, दिव्य प्रकाश फेंकता, ज्ञान आपके हृदय की गहराई से आता था। आपके प्रभावपूर्ण व्यक्तित्व और समस्त जीवों के प्रति दया की भावना से दर्शकों पर गहरी छाप पड़ती थी।
आपने सत्य की ध्वजा हाथ में लेकर, निर्भय हो साहसपूर्वक सद्धर्म का प्रचार किया, रूढ़िवादियों की परवाह किये बिना अपने सत्य मार्ग पर डटे रहकर आगमों के आधार पर
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com