Book Title: Vitrag Stotram Author(s): Hemchandracharya, Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar View full book textPage 7
________________ श्रीवीतरागस्तोत्रम् द्वितीय प्रकाशः प्रियङस्फटिकस्वर्ण-पद्मरागाञ्जनप्रभः । प्रभो ! तवाधौतशुचिः, कायः कमिव नाक्षिपेत् ? ॥१॥ अर्थ - हे प्रभो ! प्रियंगुवत् (नील), स्फटिकवत् (उज्ज्वल), स्वर्णवत् (पीत), पद्मरागवत् (रक्त) और अंजनवत् (श्याम) वर्ण की कान्ति के समान तथा धोये बिना ही सर्वदा पवित्र ऐसा आपका देह-शरीर, देवमनुष्यादिक किसको चकित नहीं करता ? अर्थात् सबको चकित करता है। (१) मन्दारदामवन्नित्य-मवासितसुगन्धिनि । तवाङ्गे भृङ्गतां यान्ति, नेत्राणि सुरयोषिताम् ॥२॥ अर्थ - कल्पवृक्ष की माला की भांति सदा स्वभाव से ही सुगन्धयुक्त आपके अंग पर देवांगनाओं के नेत्र भ्रमरत्व प्राप्त करते हैं । (२) दिव्यामृतरसास्वाद-पोषप्रतिहता इव । समाविशन्ति ते नाथ !, नाङ्गे रोगोरगव्रजाः ॥३॥ अर्थ - हे नाथ ! दिव्य अमृतरस के आस्वादन की पुष्टि से जैसे पराभव प्राप्त किया हो, वैसे कासश्वासादिक रोगरूपी सर्प का समूह आपके देह में व्याप्त नहीं हो सकता है (अर्थात् आप सर्वदा रोगरहित हों । (३)Page Navigation
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