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श्रीवीतरागस्तोत्रम् वस्तु (प्रकृति) में मानते हैं । इसलिये वह अनेकान्त स्याद्वाद मत को उत्थापन नहीं कर सकते । (१०)
विमतिः सम्मतिर्वापि, चार्वाकस्य न मृग्यते । परलोकात्ममोक्षेषु, यस्य मुह्यति शेमुषी ॥११॥
अर्थ - [हे प्रभो !] परलोक, जीव और मोक्ष में भी जिसकी मति भ्रमित है। वैसे चार्वाक (नास्तिक) की इसमें विमति है, या संमति है यह कोई विचार करने की आवश्यकता नहीं, कारण कि आबालगोपाल पर्यन्त सभी परलोकादि को मानते हैं। उसको ही जो नहीं मानते ऐसे चार्वाक (नास्तिक) की विमति या संमति से क्या फल ? । (११)
तेनोत्पादव्ययस्थेम-सम्भिन्नं गोरसादिवत् । त्वदुपज्ञं कृतधियः, प्रपन्ना वस्तु वस्तुसत् ॥१२॥
अर्थ – अतः हे वीतराग ! कुशल बुद्धि वाले (ज्ञानी) पुरुषों ने गोरसादि की जिस प्रकार उत्पात, व्यय और ध्रौव्यस्वरूपवाली सत् वस्तु की जो स्वयं सर्वप्रथम प्ररूपी है उसीको स्वीकार किया है अर्थात् उत्पत्ति-विनाश-स्थिति से युक्त पारमार्थिक वस्तु को स्वीकार किया है। जिस तरह गोरस (दूध) दूध के स्वरूप को नाश कर दही के उत्पन्न हुआ वह भी गोरस ही कहा जाता है। अर्थात्-दूध रूप द्रव्य का दही रूप पर्याय हुआ । उसी तरह मृत्तिकादि ही के स्वरूप में द्रव्य का घटादि पर्याय है तथा जीव द्रव्य का मनुष्यादि पर्याय है। इत्यादि ऐसा ही समझना चाहिये । (१२)