Book Title: Vitrag Stotram
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 66
________________ श्रीवीतरागस्तोत्रम् ६५ आश्रवो भवहेतुः स्यात्, संवरो मोक्षकारणम् । इतीयमार्हतीमुष्टि- रन्यदस्याः प्रपञ्चनम् ॥६॥ अर्थ - आश्रव संसार का कारण है और संवर मोक्ष का कारण है । इस तरह यह आज्ञा अर्हत् सम्बन्धी मुष्टि अर्थात् अरिहन्त परमात्मा के समस्त उपदेश के सार रूप मूल ग्रन्थि है । अङ्ग और उपाङ्ग आदि में किया हुआ अन्य सब इसीका विस्तार है । (६) इत्याज्ञाराधनपरा, अनन्ताः परिनिर्वृताः । निर्वान्ति चान्ये क्वचन, निर्वास्यन्ति तथापरे ॥७॥ अर्थ - इस तरह आपकी आज्ञा आराधना में तत्पर ऐसे अनन्त जीव पूर्वकाल में मोक्ष पाये हैं, अन्य कितने जीवों वर्तमान काल में क्वचित् स्थल में अर्थात् महाविदेहादि क्षेत्र में मोक्ष पाते हैं और भविष्य काल में भी (अनन्त जीव) मोक्ष पायेंगे । (७) हित्वा प्रसादनादैन्य- मेकयैव त्वदाज्ञया । सर्वथैव विमुच्यन्ते, जन्मिनः कर्मपञ्जरात् ॥८॥ अर्थ - हे वीतराग ! अन्य (देव) को प्रसन्न करने के लिये की जानेवाली दीनता याने खुशामद - आजीजी को त्याग कर मात्र एक आपकी आज्ञा द्वारा ही जीव सर्वथा कर्मरूपी पिञ्जरे से मुक्त होते हैं । (८)

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