Book Title: Vitrag Stotram
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

View full book text
Previous | Next

Page 68
________________ श्रीवीतरागस्तोत्रम् ६७ मम त्वद् दर्शनोद्भूता श्चिरं रोमञ्चकण्टकाः । नुदन्तां चिरकालोत्था - मसद् दर्शनवासनाम् ॥४॥ अर्थ - हे पुरुषोत्तम प्रभु ! मुझे आपके दर्शन से उत्पन्न हुए रोमांचरूपी कण्टक चिरकाल से अर्थात् अनादि काल के भवभ्रमण से उत्पन्न हुई कुदर्शन की उत्पन्न हुई कुदर्शन की कुवासना को जब तक मैं संसार में रहूँ तब तक अति पीडा करे (अर्थात् कण्टक द्वारा पीडा होने से बाहर निकल जाए) । (४) त्वद् वक्त्रकान्तिज्योत्स्नासु, निपीतासु सुधास्विव । मदीयैर्लोचनाम्भोजैः, प्राप्यतां निर्निमेषता ॥५ ॥ अर्थ - हे जगदानंदन ! अमृत के जैसी आपके मुख की कान्तिरूपी ज्योत्स्ना का पान करने से मेरे लोचनरूपी कमल निर्निमेषता को प्राप्त करे । (चन्द्रज्योत्स्ना का पान करने से चन्द्रविकासी कमल निर्निमेष - विकस्वरता को प्राप्त करते हैं, और सुधा का पान करने से नेत्र निमेष [ मटका ] रहितता को प्राप्त करते हैं । इसलिये यहाँ नेत्र को कमल की उपमा दी गई) । (५) त्वदास्यलासिनी नेत्रे, त्वदुपास्तिकरौ करौ । त्वद् गुणश्रोतृणी श्रोत्रे, भूयास्तां सर्वदा मम ॥६॥ अर्थ - हे प्रभु! मेरे दो नेत्र नित्य आपके वदन - मुख को देखने में लालसा वाले हों । मेरे दो हाथ आपकी सेवा करने वाले हों और मेरे दो कान आपके गुण श्रवण

Loading...

Page Navigation
1 ... 66 67 68 69 70