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करनेवाले हों । (६)
श्रीवीतरागस्तोत्रम्
कुण्ठाऽपि यदि सोत्कण्ठा, त्वद्गुणग्रहणं प्रति । ममैषा भारती तर्हि, स्वस्त्येतस्यै किमन्यया ॥७॥
अर्थ - हे स्वामिन्! कुंठित अर्थात् स्थूल ऐसी मेरी यह वाणी (सूक्ष्म अर्थवाले आगम में स्खलना प्राप्त हुए भी) आपके गुणग्रहण करने में उत्कंठावाली हों तो यही वाणी का कल्याण हो। अन्य वाणी द्वारा क्या काम है ? कुछ नहीं । (७) तव प्रेष्योऽस्मि दासोऽस्मि, सेवकोऽस्म्यस्मि किङ्करः । ओमिति प्रतिपद्यस्व, नाथ ! नातः परं ब्रुवे ॥८ ॥
अर्थ - हे नाथ ! मैं आपका प्रेष्य (संदेश वाहक) दास (गुलाम) हूँ, सेवक (सेवा करनेवाला हूँ, और किङ्कर (नोकर) हूँ | उससे आप 'ओम्' (यह मेरा है) इस अक्षर को मात्र स्वीकार करें। इससे अधिक मैं कुछ नहीं कहता अर्थात् कुछ भी नहीं मांगता । (८)
श्रीहेमचन्द्रप्रभवाद्, वीतरागस्तवादितः । कुमारपालभूपालः, प्राप्नोतु फलमीप्सितम् ॥९॥
अर्थ - श्रीहेमचन्द्रसूरि के द्वारा रचे हुए इस वीतराग स्तोत्र कुमारपाल भूपाल से इच्छित फल को प्राप्त करे । (९)