Book Title: Vitrag Stotram
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 67
________________ श्रीवीतरागस्तोत्रम् विंशतितम प्रकाशः पादपीठलुठन् मूर्ति, मयि पादरजस्तव । चिरं निवसतां पुण्य-परमाणुकणोपमम् ॥१॥ अर्थ – हे विश्ववन्द्य वीतराग विभु ! आपके पादपीठ में मस्तक को झुकाते हुए मेरे ललाट में पुण्य परमाणु के कण जैसे आपके चरणरज चिरकाल (संसार में जहाँ तक रहूँ तब तक) रहे । (१) मददृशौ त्वन्मुखासक्ते, हर्षबाष्पजलोमिभिः । अप्रेक्ष्यप्रेक्षणोद्भूतं, क्षणात् क्षालयतां मलम् ॥२॥ अर्थ - हे देवाधिदेव ! पूर्व में नहीं देखने योग्य परस्त्री, कुदेव इत्यादि देखने से उत्पन्न हुए, पाप रूप मल को अभी आपके मुख में आसक्त हुए ऐसे मेरे ये नेत्र हर्षाश्रु के जलतरंग द्वारा क्षण भर में धो डालते । (२) त्वत् पुरो लुठनैर्भूयान्, मद् भालस्य तपस्विनः । कृतासेव्यप्रणामस्य, प्रायश्चित्तं किणावलिः ॥३॥ अर्थ - हे सर्वज्ञ प्रभु ! प्रथम हरि-हरादि असेव्य को प्रणाम करनेवाला यह बिचारा (कृपा के स्थान रूप) मेरे ललाट को आपके पास आलोटने से (नमस्कार करने से) पडी हुई क्षत की (चिह्न की) श्रेणी ही प्रायश्चित्तरूप हो ! अर्थात् असेव्य को प्रणाम करने से लगे हुए पाप दूर हों ! । (३)

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