Book Title: Vitrag Stotram
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 57
________________ ५६ श्रीवीतरागस्तोत्रम् आपके चरण में लगा हुआ हूँ, इसलिये मुझे संसार सागर से तारो, तारो । (७) भवत्प्रसादेनैवाह-मियती प्रापितो भुवम् । औदासीन्येन नेदानीं, तव युक्तमुपेक्षितुम् ॥८॥ अर्थ - [हे कृपालु !] आपकी कृपा से ही मैंने इतनी भूमिका को (आपकी सेवा की योग्यता को) पाया है। अब तो आपको उदासीनता के द्वारा मेरी उपेक्षा करना योग्य नहीं है। (८) ज्ञाता तात ! त्वमेवैकस्त्वत्तो नान्यः कृपापरः । नान्यो मत्तः कृपापात्रमेधि यत्कृत्यकर्मठः ॥८॥ अर्थ – हे तात ! आप ही एक ज्ञाता हैं, आप से अन्य कोई कृपा में तत्पर नहीं और मेरे बिना दूसरा कोई कृपा का पात्र भी नहीं । उससे आप ही करने योग्य कार्य में तत्पर हों। (९)

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