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श्रीवीतरागस्तोत्रम्
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अर्थ - निन्दा करने योग्य चरित्र के द्वारा आप ने महापुरुषों को कम्पित नहीं किया तथा कोप और कृपादि द्वारा मनुष्यों और देवों को विडम्बना प्रदान नहीं किया । (४)
न जगज्जननस्थेम - विनाशविहितादरः । न लास्यहास्यगीतादि-विप्लवोपप्लुतस्थितिः ॥५॥ अर्थ - विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय (विनाश ) करने में आपने उद्यम नहीं किया तथा नट-विट के उचित ऐसे नृत्य, हास्य और गीतादि विलासों के द्वारा आपने आपनी स्थिति को उपद्रव वाली नहीं की । (५)
तदेवं सर्वदेवेभ्यः, सर्वथा त्वं विलक्षणः । देवत्वेन प्रतिष्ठाप्यः, कथं नाम परीक्षकैः ? ॥६॥
अर्थ - इस प्रकार पूर्वकथरानुसार आप सभी देवों से सर्वथा आप विलक्षण हैं, अतः परीक्षक आपको किस तरह देव के रूप में स्थापना कर सकते हैं ? । (६) अनुश्रोतः सरत्पर्ण - तृणकाष्ठादियुक्तिमत् । प्रतिश्रोतः श्रयद्वस्तु, कया युक्त्या प्रतीयताम् ? ॥७॥
अर्थ - [ हे प्रभो !] पत्ते, घास, काष्ठादि वस्तु जल के प्रवाह के अनुसार चले वह तो युक्तिसंगत है, किन्तु ऐसी वस्तु विपरीत प्रवाह में चले, वह कौनसी युक्ति द्वारा लोग मान सकते हैं ? । (७)