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श्रीवीतरागस्तोत्रम्
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मेरा कोई नहीं, मैं भी किसी का नहीं । आपके चरणों के शरण में स्थित मेरे अन्दर कोई भी दीनता नहीं । (७) यावन्नाप्नोमि पदवीं, परां त्वदनुभावजाम् । तावन्मयि शरण्यत्वं मा मुंच शरणं श्रिते ॥८ ॥
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अर्थ - [हे शरणागतवत्सल प्रभु !] आपके प्रसाद से उत्पन्न हुई उत्कृष्ट पदवी अर्थात् मुक्ति को मैं जब तक नहीं पाऊँ तब तक (आपके) शरण को पाये हुए मेरी शरण्यता को त्यागना नहीं । (८)