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श्रीवीतरागस्तोत्रम्
सप्तदश प्रकाशः
स्वकृतं दुष्कृतं गर्हन्, सुकृतं चाऽनुमोदयन् । नाथ ! त्वच्चरणौ यामि, शरणं शरणोज्झितः ॥१॥
हे नाथ ! स्वयं किये हुए दुष्कर्म की (मैं) गर्दा याने निन्दा करते हुए और सुकृत की अनुमोदना करते हुए शरण रहित मैं आपके चरण को शरण करता हूँ। (१)
मनोवाक्कायजे पापे, कृतानुमतिकारितैः । मिथ्या मे दुष्कृतं भूयापुनः क्रिययान्वितम् ॥२॥
अर्थ - [हे भगवन् !] करना, कराना और अनुमोदना इन तीनों के द्वारा मन, वचन और काया से उत्पन्न होते हुए पाप में जो मुझे दुष्कृत लगा हो, वह फिर से नहीं करने की भावनापूर्वक मेरा दुष्कृत मिथ्या हो । (२)
यत् कृतं सुकृतं किञ्चिद्, रत्नत्रितयगोचरम् । तत्सर्वमनुमन्येऽहं, मार्गमात्रानुसार्यपि ॥३॥
अर्थ - [हे देवाधिदेव !] मात्र आपके मार्ग को ही जो अनुसरन करनेवाला हो ऐसा भी यदि कोई ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप रत्नत्रय के विषयवान् मेरा सुकृत हो तो उन सबकी मैं अनुमोदना करता हूँ। (३)
सर्वेषामर्हदादीनां, यो योऽर्हत्त्वादिको गुणः । अनुमोदयामि तं तं, सर्वं तेषां महात्मनाम् ॥४॥