Book Title: Vitrag Stotram
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 59
________________ श्रीवीतरागस्तोत्रम् अर्थ - समस्त तीर्थङ्करादि के (अर्थात्-अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं साधु के) अरिहन्तावस्थादि जो जो गुण हों, उन सभी महात्माओं के उन सभी गुणों की मैं (हार्दिक) अनुमोदना करता हूँ । (४) त्वां त्वत्फलभूतान् सिद्धांस्त्वच्छासनरतान् मुनीन् । त्वच्छासनं च शरणं, प्रतिपन्नोऽस्मि भावतः ॥५॥ अर्थ - [हे शरण्य वीतराग परमात्मन् !] मैं आपका, आपके फलभूत याने आपकी बताई हुई क्रिया करने के फलरूप सिद्धों का, आपके शासन में रक्त बने हुए मुनियों का और आपके शासन का भाव से (अन्तःकरण-हृदय की शुद्धि से) शरण पाया हूं । अर्थात् आपकी शरणे रहा हूँ। क्षमयामि सर्वान् सत्त्वान्, सर्वे क्षाम्यन्तु ते मयि । मैत्र्यस्तु तेषु सर्वेषु, त्वदेकशरणस्य मे ॥६॥ अर्थ - [हे क्षमासिन्धु वीतराग विभु!] मैं समस्त (चौराशी लाख जीवयोनि में विद्यमान) जीवों को क्षमा करता हूँ, और वे सभी जीव मेरे ऊपर क्षमा करें। आपकी ही एक शरण में स्थित मुझे उन सभी जीवों पर मैत्री हो । (६) एकोऽहं नास्ति मे कश्चिन् न चाहमपि कस्यचित् । त्वदळिशरणस्थस्य, मम दैन्यं न किञ्चन ॥७॥ अर्थ - [हे विश्वेश वीतराग देव !] मैं अकेला ही हूँ,

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