Book Title: Vitrag Stotram
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

View full book text
Previous | Next

Page 56
________________ श्रीवीतरागस्तोत्रम् अर्थ - [हे प्रभु !] मैं कईबार संसार के सुख में आशक्त हुआ हूँ तो कईबार उससे मुक्त अर्थात् निर्लोभ हुआ हूँ। कईबार क्रोधवान् हुआ हूँ तो कईबार क्षमावान् हुआ हूँ, इस तरह मोहादि ने मुझे बन्दर की तरह चपलता कराई है। अर्थात् बन्दर की तरह नचाया है । (४) प्राप्यापि तव सम्बोधिं, मनोवाक्कायकर्मजैः। दुश्चेष्टितैर्मया नाथ !, शिरसि ज्वालितोऽनलः ॥५॥ अर्थ - हे नाथ ! आपके धर्म की प्राप्ति होने पर भी मन वचन और काया के कर्म से उत्पन्न हुई दुष्ट चेष्टाओं के द्वारा मैंने अपने मस्तक पर अग्नि सुलगायी है [अर्थात्दुर्गति के दुःख का उपार्जन किया है । (५) त्वय्यपि त्रातरि त्रातर्यन्मोहादिमलिम्लुचैः । रत्नत्रयं मे हियते, हताशो हा ! हतोऽस्मि तत् ॥६॥ अर्थ - हे रक्षक ! आप रक्षण करने वाले होते हुए भी मोहादि शत्रु मेरे ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप तीन रत्नों का हरण करते हैं । उससे हत आशा वाला मैं मारा गाया हूँ। (६) भ्रान्तस्तीर्थानि दृष्टस्त्व, मयैकस्तेषु तारकः । तत् तवाङ्ग्रौ विलग्नोऽस्मि, नाथ ! तारय तारय ॥७॥ अर्थ - हे स्वामिन् ! मैं अनेक तीर्थों में भ्रमण किया हूँ (घूमा-फिरा हूँ,) उन सबों में आपको ही देखा । उससे मैं

Loading...

Page Navigation
1 ... 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70