Book Title: Vitrag Stotram
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 54
________________ श्रीवीतरागस्तोत्रम् ५३ अर्थ - जिन्होंने आपके शासनरूपी अमृत रस द्वारा निरंतर अपनी आत्मा को सिंचन किया है। उन्हीं को हमारा नमस्कार हो, हम दोनों हाथ जोड़ते हैं और हम आपकी सेवा करते हैं । (७) भुवे तस्यै नमो यस्यां, तव पादनरवांशवः । चिरं चूडामणीयन्ते, ब्रूमहे किमतः परम् ? ॥८॥ अर्थ - [हे प्रभो !] जिस भूमि पर आपके चरण-पाद के नख की किरणें चिरकाल पर्यन्त चूडामणि की तरह शोभती हैं, उस भूमि को नमस्कार हो । इससे अधिक हम क्या कहें ? इससे अधिक भक्ति का वचन हमारे पास नहीं है। (८) जन्मवानस्मि धन्योऽस्मि, कृतकृत्योऽस्मि यन्मुहुः । जातोऽस्मि त्वद्गुणग्रामरामणीयकलम्पटः ॥९॥ अर्थ - [हे वीतराग प्रभो !] आपके गुण समूहरूपी रमणीकता में मैं वारंबार लंपट याने मग्न हुआ हूँ, उससे मेरा जन्म सफल है, मुझे धन्य है और मैं कृतकृत्य अर्थात् कृतार्थ बना हूँ। (९)

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