Book Title: Vitrag Stotram
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 53
________________ श्रीवीतरागस्तोत्रम् अर्थ - हे प्रभु ! जो मनुष्य अकारण वत्सल ऐसे आपके ऊपर भी जलते हुए अंगारों की तरह इर्ष्यावाली दृष्टि को धारण करते हैं, उन्हें साक्षात् अग्नि या तो ऐसा वचन बोलने से अच्छा (अर्थात् न बोलना ही अच्छा है) । (४) त्वच्छासनस्य साम्यं ये, मन्यन्ते शासनान्तरैः । विषेण तुल्यं पीयूषं, तेषां हन्त ! हतात्मनाम् ॥५॥ अर्थ - [हे स्वामिन् !] खेद की बात यह है कि जो लोग आपके शासन को अन्य दर्शनों के साथ समान मानते हैं। ऐसे अज्ञान से आहत जनों को अमृत भी विष तुल्य है। (अर्थात्-वे लोग अमृत को विष समान मानते हैं ऐसा समझना चाहिए । (५) अनेडमूका भूयासुस्ते येषां त्वयि मत्सरः । शुभोदकार्य वैकल्यमपि पापेषु कर्मसु ॥६॥ अर्थ - [हे प्रभो !] जिन्होंने आपके ऊपर इर्ष्या की है, वे लोग बहरे और गंगे ही हैं, कारण कि-परनिन्दादि पाप व्यापार में इन्द्रियों की विकलता (रहितता) भी शुभ परिणाम के लिये ही है। अर्थात्-इन्द्रियों की विकलता से आपकी निंदादि न कर सकने से वे दुर्गति में नहीं जायेंगे, यही उनके लिये महालाभ है । (६) तेभ्यो नमोऽञ्जलिरयं, तेषां तान् समुपास्महे । त्वच्छासनामृतरसैरात्माऽसिच्यतान्वहम् ॥७॥

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