Book Title: Vitrag Stotram
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 52
________________ श्रीवीतरागस्तोत्रम् पञ्चदश प्रकाशः जगज्जैत्रा गुणास्त्रातरन्ये तावत् तवासताम् । उदात्तशान्तया जिग्ये, मुद्रयैव जगत्त्रयी ॥१॥ अर्थ - [हे विश्वविभु !] प्रथम तो विश्व को जीतनेवाले अन्य आपके गुण दूर रहें, किन्तु उदात्त (पराभव न प्राप्त कर सके ऐसी) और शान्त (सौम्य) ऐसी आपकी मुद्राओं ने ही तीन जगत को जीत लिया है। (१) मेरुस्तृणीकृतो मोहात्-पयोधिर्गोष्पदीकृतः । गरिष्ठेभ्यो गरिष्ठो यैः, पाप्मभिस्त्वमपोषितः ॥२॥ अर्थ – हे नाथ ! जिन पापियों ने महान् से भी महान् अर्थात् इन्द्रादि से भी महान् ऐसे आपका अनादर किया है, उन्होंने अज्ञान से मेरुपर्वत को तृण समान माना है, और समुद्र को गोष्पद याने गाय की खुरी जैसा माना है । (२) च्युतश्चिन्तामणिः पाणे स्तेषां लब्धा सुधा मुधा । यैस्ते शासनसर्वस्वमज्ञानै त्मसात्कृतम् ॥३॥ अर्थ – जिन अज्ञानियों ने आपका शासनरूपी सर्वस्व (धन) अपने आधीन नहीं किया है। उनके हाथ से मानो चिन्तामणि रत्न गिर गया है और मिला हुआ अमृत निष्फल हो गया है। (३) यस्त्वय्यपि दधौ दृष्टिमुल्मुकाकारधारिणीम् । तमाशुशुक्षणिः साक्षादालप्यालमिदं हि वा ॥४॥

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