________________
श्रीवीतरागस्तोत्रम्
४६
अगोपिते रत्ननिधाववृते, कल्पपादपे । अचिन्त्ये चिन्तारत्ने च, त्वय्यात्माऽयं मयार्पितः ॥७॥
अर्थ - (इस श्लोक में भी छः शब्द परस्पर विरुद्ध इस तरह हैं - रत्न की निधि छुपाए बिना नहीं रह सकती, कल्पवृक्ष वाड़ बिना नहीं रह सकता और चिन्तामणि रत्न प्रार्थना बिना कुछ भी नहीं दे सकता परन्तु ) आप तो गुप्त किये बिना प्रगट रत्न के सिद्धि के समान, कर्मरूपी वाड़ के बिना के कल्पवृक्ष के समान और अचिन्त्य चिन्तामणि रत्न के समान ऐसे आपमें मैंने अपनी आत्मा को अर्पण किया है। (७)
फलानुध्यानवन्ध्योऽहं, फलमात्रतनुर्भवान् । प्रसीद यत्कृत्यविधौ, किङ्कर्तव्यजडे मयि ॥८ ॥ अर्थ - आप सिद्धत्व रूप फल मात्र शरीर वाले हैं और मैं फलरूप आपके ध्यान रहित हूँ, उससे मुझे क्या करना ? इस विषय में जड़-मूढ़ बने हुए मेरे ऊपर जो मेरे करने योग्य है वह विधि दिखाने की कृपा करें । (८)