Book Title: Vitrag Stotram
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

View full book text
Previous | Next

Page 48
________________ श्रीवीतरागस्तोत्रम् ४७ चतुर्दश प्रकाश: मनोवचःकायचेष्टाः, कष्टाः संहृत्य सर्वथा । श्लथत्वेनैव भवता, मनःशल्यं वियोजितम् ॥ १ ॥ अर्थ - [ हे योगीश्वर !] कष्टकारक अर्थात् पापवाली ऐसी मन, वचन और काया की चेष्टा को सर्वथा त्याग कर शिथिलता द्वारा ही आपने मन के शल्य को दूर किया है। ( देह में किसी स्थान पर शल्य (कण्टक) लगा हो तो बाह्य चेष्टा का निरोध करके शरीर को शिथिल करने से तत्काल ही वह शल्य चिमटा आदि साधन से निकल सकता है । उसी तरह सभी चेष्टाओं को रोक कर मन को शिथिल करने से वह मन स्वयं ही शान्त हो जाता है। कारण कि विपरीत शिक्षावाले अश्व की भांति मन को नियंत्रित करने से वह और अधिक फैलता है। अर्थात् विशेष चपल होता है, और शिथिल करने से स्वयं ही स्थिर हो जाता है ।) (१) संयतानि न चाक्षाणि नैवोच्छुङ्गलितानि च । इति सम्यक् प्रतिपदा, त्वयेन्द्रियजयः कृतः ॥२॥ , अर्थ - [हे योगीनाथ !] आपने इन्द्रियों के बलात्कार नियन्त्रित से नहीं किया, उसी प्रकार लोलुपता से आजादी भी नहीं दी। इस तरह सम्यक् प्रकार से वस्तुतत्त्व को स्वीकार करने वाले अपने इन्द्रियों का जय किया है ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70