Book Title: Vitrag Stotram
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 49
________________ श्रीवीतरागस्तोत्रम् (इन्द्रियों को बलात्कार से बांधने पर वह कौतुक वाली हो कर बन्धन में नहीं रहती, तथा कुछ देर बाद उसको स्वतन्त्र कर दिया जाए तो विषय के स्वरूप को जानकर, अनुभवी, कौतुकरहित होकर स्वयं ही निवृत्ति प्राप्त करती है, और फिर से वह कभी भी विकार नहीं प्राप्त करती । ४८ यह कथन ज्ञानी महात्मा के लिये है, अन्य जनों के लिये तो इन्द्रियों को जय करने के लिये सर्वथा शक्ति लगा देनी चाहिए । (२) योगस्याऽष्टाङ्गता नूनं, प्रपञ्चः कथमन्यथा ? | आबालभावतोऽप्येष, तव सात्म्यमुपेयिवान् ॥३॥ अर्थ - [ हे योगीश !] अन्य शास्त्रो में (१) यम, (२) नियम, (३) आसन, (४) प्राणायाम, (५) प्रत्याहार, (६) धारणा, (७) ध्यान, और (८) समाधि ये आठों अंग योग (समाधि) के कहे गये हैं । वे मात्र प्रपञ्च (आडम्बर विस्तार) है इस प्रकार प्रतीत होता है, कारण कि यदि ऐता न हो तो हम बाल्यावस्था से ही इस योग सहजता को किस तरह प्राप्त कर सकते हैं ? (आसनादिक बाह्यविस्तार के बिना ही परम ज्ञान - वैराग्यादिरूप योग आपको स्वाभाविक ही प्राप्त हुआ है। (३) विषयेषु विरागस्ते, चिरं सहचरेष्वपि । योगे सात्म्यमदृष्टेऽपि, स्वामिन्निदमलौकिकम् ॥४॥

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