Book Title: Vitrag Stotram
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 46
________________ श्रीवीतरागस्तोत्रम् तथा प्रार्थना किये बिना ही इच्छित वस्तु को देने वाले हैं। अतः इस प्रकार के कल्पवृक्षरूप आपसे मैं फल को प्राप्त करता हूँ। (५) असङ्गस्य जनेशस्य, निर्ममस्य कृपात्मनः । मध्यस्थस्य जगत्त्रातुरनकस्तेऽस्मि किङ्करः ॥६॥ अर्थ - (इस श्लोक में भी परस्पर विरुद्ध ऐसे छ: विशेषण इस प्रकार हैं - ) जो संगरहित हैं वे जनेश अर्थात् लोक के स्वामी नहीं हो सकते, जो ममतारहित हैं वे किसी पर कृपा नहीं कर सकते और जो मध्यस्थ-उदासीन हैं, वे दूसरे की रक्षा नहीं कर सकते, तो भी) आप तो सर्व संग का त्याग कर तीर्थङ्कर पद के प्रभाव से इच्छा रहित होते हुए भी तीन लोकों को सेव्य होने से 'जनेश' हैं तथा वीतरागता से ही ममता रहित होते हुए भी दुष्कर्म से पीड़ा प्राप्त करते हुए तीन जगत के प्राणियों पर कृपालु हैं तथा राग-द्वेष रहितता के लिए मध्यस्थ अर्थात् उदासीन होते हुए भी एकान्त हितकारक धर्मोपदेश देने से अभ्यन्तर शत्रु से त्रास पाते हुए जगत के जीवों के रक्षक हैं, ऐसे विशेषण वाले आपका मैं अंक (चिह्न) रहित किंकर हूं। जो किंकर है वह खड्गादि चिह्न वाला होता है, लेकिन मैं तो द्विपदादि परिग्रह रहित ऐसा आपका कदाग्रह रूपी कलङ्क रहित सेवक हूँ। (६)

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