Book Title: Vitrag Stotram
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 45
________________ श्रीवीतरागस्तोत्रम् अर्थ भव (महादेव) रहित महेश्वरूप, गदा रहित नरकच्छिद् (विष्णु) रूप और रजोगुण रहित ब्रह्मारूप ऐसे (कोई न कह सके वैसे) आपको नमस्कार हो । ४४ - [ इस श्लोक में कहे हुए छहों शब्द परस्पर विरोधी हैं । इस विरोध को दूर करने के लिए निम्नलिखित अर्थ इस तरह हैं - "वीतराग परमात्मा 'अभव' अर्थात् संसार रहित हैं । 'महेश' अर्थात् तीर्थङ्कर सम्बन्धी परम ऐश्वर्य सहित हैं, 'अगद' अर्थात् रोग रहित हैं, 'नरकच्छिद' अर्थात् धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति करने से भव्य प्राणियों की नरकगति को छेदने वाले, ‘अराजस' अर्थात् कर्मरूपी रजरहित और 'ब्रह्मा' अर्थात् परब्रह्म (मोक्ष) में लय प्राप्त होने से ब्रह्मरूप हैं । ऐसे आपको नमस्कार हो ।" (४) अनुक्षितफलोदग्रादनिपातगरीयसः । असङ्कल्पितकल्पद्रोरत्वत्तः फलमवाप्नुयाम् ॥५॥ अर्थ - ( सर्व वृक्ष निरन्तर जलसिंचन करने से अमुक समय पर ही मात्र फल को देते हैं । और पत्रों के द्वारा ही महा भारवाले होते हैं। तथा प्रार्थना करने से ही इच्छित वस्तु को देने वाले होते हैं | किन्तु) आप तो सिंचन किये बिना ही उभयलोक के सुख रूपी फलों द्वारा परिपूर्ण हैं, पतन के बिना ही अर्थात् स्व स्वरूप में रहने से ही गौरव वाले हैं ।

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