Book Title: Vitrag Stotram
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 43
________________ ४२ श्रीवीतरागस्तोत्रम् आप जब उदासीन रहते हैं, तब भी आपको वैराग्य ही है. उससे आप कहाँ और कब वैराग्यवाले नहीं हैं ? अर्थात् सर्वत्र वैराग्यवन्त ही हैं । (६) दुःखगर्भे मोहगर्भे, वैराग्ये निष्ठिताः परे । ज्ञानगर्भं तु वैराग्यं, त्वय्येकायनतां गतम् ॥७॥ अर्थ - अन्य (परतीर्थिक ) दुःखगर्भित और मोहगर्भित वैराग्य में स्थित हैं, किन्तु ज्ञानगर्भित वैराग्य तो आपमें एकीभाव को (तन्मयता को ) पाया है । [ - इष्ट के वियोग से और अनिष्ट के संयोग से होनेवाला वैराग्य 'दुःखगर्भित वैराग्य' कहा जाता है । २ - कुशास्त्र में वर्णित, अध्यात्म के अंश के श्रवण करने से जो वैराग्य होता है वह 'मोहगर्भित वैराग्य' कहा जाता है । ३-यथास्थित संसार का स्वरूप देखकर जो वैराग्य उत्पन्न होता है वह 'ज्ञानगर्भित वैराग्य' कहा जाता है ।] (७) औदासीन्येऽपि सततं, विश्वविश्वोपकारिणे । नमो वैराग्यनिघ्नाय, तायिने परमात्मने ॥८॥ अर्थ - [हे वीतराग देव !] उदासीनता (मध्यस्थता) में भी निरन्तर समस्त विश्व को उपकार करने वाले, वैराग्य में तत्पर, सबके रक्षक और परमात्मस्वरूप अर्थात्परब्रह्मस्वरूप ऐसे आपको हमारा नमस्कार हो । (८)

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