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श्रीवीतरागस्तोत्रम् अंश मात्र भी प्रभावित नहीं हुआ । [अर्थात् अप्रतिहत रहा है] (३)
यदा मरुन्नरेन्द्र श्रीस्त्वया नाथोपभुज्यते । यत्र तत्र रतिर्नाम, विरक्तत्वं तदापि ते ॥४॥
अर्थ – हे नाथ ! जब आप पूर्वभव में देव की ऋद्धि की और उसके पश्चात् तीर्थङ्कर के भव में राजलक्ष्मी को भोगते हैं तब भी आपका वैराग्य ही है, कारण कि जहाँ तहाँ भी तुम्हारी रति [समाधि] ही है। अर्थात्-देव और राज्य की लक्ष्मी भोगते हुए भी आप भोग्य फलवाला कर्म भोगे बिना क्षय नहीं होगा इस तरह विचार करके अनासक्त भाव से भोगते हैं, उससे कर्म की निर्जरा ही होती है। (४)
नित्यं विरक्तः कामेभ्यो, यदा योगं प्रपद्यसे । अलमेभिरिति प्राज्यं, तदा वैराग्यमस्ति ते ॥५॥
अर्थ - [हे वीतराग मूर्ति !] सर्वदा अर्थात् दीक्षा ग्रहण के पूर्व भी विषयों से विरक्त होते हुए आप जब योग [दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप दीक्षा] को स्वीकार करते हैं, तब इन विषयों से मुक्त हुआ ऐसा विचार करते हुए आपको महावैराग्य ही हुआ । (५)
सुखे दुःखे भवे मोक्षे, यदौदासीन्यमीशिषे । तदा वैराग्यमेवेति, कुत्र नासि विरागवान् ? ॥६॥ अर्थ - सुख में, दु:ख में, संसार में और मोक्ष में सर्वत्र