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श्रीवीतरागस्तोत्रम्
द्वादश प्रकाशः
पट्वभ्यासादरैः पूर्वं, तथा वैराग्यमाहरः । यथेह जन्मन्याजन्म, तत् सात्मीभावमागमत् ॥१॥
अर्थ - हे वीतराग देव ! आपने पर्व भव में उत्तम अभ्यास के आदर से ऐसा वैराग्य प्राप्त किया था, जिससे इस [तीर्थंकर के] भव में वह वैराग्य जन्म से ही सहज भाव से प्राप्त किया है अर्थात् जन्म से ही आपकी आत्मा वैराग्य से रंगी हुई है। (१)
दुःखहेतुषु वैराग्यं, न तथा नाथ ! निस्तुषम् । मोक्षोपायप्रवीणस्य, यथा ते सुखहेतुषु ॥२॥
अर्थ - हे नाथ ! मोक्ष के (सम्यग्ज्ञानादि) उपाय में प्रवीण ऐसे आपके सुख के हेतु में जैसा निर्मल वैराग्य होता है, वैसा दुःख के हेतु में नहीं होता । अर्थात्-जो दुःखहेतुक वैराग्य होता है वह क्षणिक है और सुखहेतुक वैराग्य होता है वह निश्चल होने से मोक्ष का साधन अवश्य होता है। (२)
विवेकशाणैर्वैराग्यशास्त्रं शातं त्वया तथा । यथा मोक्षेऽपि तत्साक्षा-दकुण्ठितपराक्रमम् ॥३॥
अर्थ - [हे वैराग्यनिधि !] विवेकरूपी शाण के ऊपर वैराग्यरूपी शस्त्र को आपने उसी तरह घिसकर तीक्ष्ण किया है, जिससे मोक्ष में भी उस (वैराग्यरूपी शस्त्र) का पराक्रम