Book Title: Vitrag Stotram
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 40
________________ श्रीवीतरागस्तोत्रम् फिर भी आपका यह (समवसरणादि लक्ष्मीरूप) ऐश्चर्य है, अतः विद्वानों की कला अपूर्व है । (४) यद् देहस्यापि दानेन, सुकृतं नार्जितं परैः । उदासीनस्य तन्नाथ ?, पादपीठे तवालुठत् ॥५॥ अर्थ - [हे नाथ !] अन्य बौद्धादि अपने देह को आपके द्वारा भी जो सुकृत उपार्जन नहीं किया वह (उपकार रूप सुकृत) उदासीन भाव से आपके पादपीठ में आकर लोटता है। (५) रागादिषु नृशंसेन, सर्वात्मसु कृपालुना । भीमकान्तगुणेनोच्चैः, साम्राज्यं साधितं त्वया ॥६॥ अर्थ - [हे विश्वेश!] रागादि के ऊपर दया रहित और सर्व प्राणियों पर दयावाने ऐसे आपने प्रतापादि भयंकर और समतादि मनोहर गुणों के द्वारा महासाम्राज्य प्राप्त कर लिया है। (६) सर्वे सर्वात्मनाऽन्येषु, दोषास्त्वयि पुनर्गुणाः । स्तुतिस्तवेयं चेन्मिथ्या, तत्प्रमाणं सभासदः ॥७॥ अर्थ - [हे स्वामिन् !] हरिहरादि अन्य देवो में सर्व दोष सर्व प्रकार से विद्यमान हैं, और अपके अन्दर सर्वथा सर्व गुण विद्यमान हैं। यह आपकी स्तुति यदि मिथ्या हो तो उपस्थित सभासद प्रमाणभूत हैं । वे जो कहें वही सच्चा है। (७) महीयसामपि महान्, महनीयो महात्मनाम् । अहो ! मे स्तुवतः स्वामी, स्तुतेर्गोचरमागमत् ॥८॥ अर्थ - महान में महान और महात्माओं के भी पूज्य ऐसे स्वामी ! आज स्तुति करते हुए ऐसी मेरी स्तुति के विषय को प्राप्त किए हो । (८)

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