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श्रीवीतरागस्तोत्रम्
इदं विरुद्धं श्रद्धत्तां, कथमश्रद्धानकः ? । आनन्दसुखसक्तिश्च, विरक्तिश्च समं त्वयि ॥४॥
अर्थ [हे नाथ !] अनन्त आनन्दरूप सुख में आसक्ति और समस्त संग की विरक्ति, ये दोनों एक साथ आप में है । ऐसी विरुद्ध बातें श्रद्धा रहित पुरुष [ आपके लोकोत्तर चरित्र को नहीं जानने वाले] किस तरह श्रद्धा करें ? अर्थात् किस तरह मानें ? | (४)
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नाथेयं घटयमानापि, दुर्घटा घटतां कथम् ? । उपेक्षा सर्वसत्त्वेषु, परमा चोपकारिता ॥ ५ ॥
अर्थ - हे नाथ ! आपकी समस्त प्राणिओं के प्रति उपेक्षा (अर्थात्-मध्यस्थता, रागद्वेष रहितता) और ज्ञानादि मोक्षमार्ग दिखलाने के द्वारा महा - उपकारीता ये दोनों बातें आपके अन्दर प्रत्यक्ष दिखाई देने से घटमान होते हुए भी अन्यत्र अघटमान होने से किस तरह घट सकती है । ? (५)
द्वयं विरुद्धं भगवंस्तव नान्यस्य कस्यचित् । निर्ग्रन्थता परा या च, या चोच्चैश्चक्रवर्त्तिता ॥ ६ ॥
अर्थ - हे भगवन् ! जो उत्कृष्ट निर्गन्थिता और जो उत्कृष्ट चक्रवर्त्तित्व ये दोनों विरुद्ध बातें जो अन्य किसी हरिहरादि में नहीं है, वे आपते अन्दर स्वाभाविक रूप से विद्यामन है । (६)